Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगहिन्‍दी को जनमानस की भाषा मानते थे गांधी जी

हिन्‍दी को जनमानस की भाषा मानते थे गांधी जी

कुमार कृष्णन

स्मार्ट हलचल| प्रतिवर्ष 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1949 में इसी तारीख को संविधान सभा ने एक लंबी और सजीव बहस के बाद देवनागरी लिपि में हिंदी को भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में अपनाया था। भारतीय संविधान के भाग XVII के अनुच्छेद 343 से 351 तक इसी विषय के बारे में है। अनुच्‍छेद 343 (1) में यह घोषणा की गई है कि देवनागरी लिपि में हिंदी संघ की राजभाषा होगी। लेकिन अनुच्छेद 343 (2) और उसके बाद के अनुच्‍छेदों को पढ़ने से पता चलता है कि भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में राजभाषा के मुद्दे को बहुत कठिन और जटिल रास्‍ते से होकर गुजरना है क्‍योंकि देश के सरकारी संस्‍थानों में अंग्रेजी में निर्धारित कानूनों, नियमों और विनियमों का ही वर्चस्व है।
इसका एक समझौता के रूप में वर्णन किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों की सभी कार्यवाहियां, संसद और राज्य विधानसभाओं में पेश किए जाने वाले या पारित सभी विधेयकों और अधिनियमों के अधिकृत पाठ, संविधान के तहत पारित सभी आदेश / नियम / कानून और विनियमों को अंग्रेजी में ही होना चाहिए (जैसा औपनिवेशिक भारत में था)। 17 फरवरी, 1987 को संविधान (58वां) संशोधन अधिनियम के पारित होने तक संविधान (संशोधनों में शामिल) का कोई अद्यतन संस्करण संशोधनों के साथ हिंदी में जारी नहीं किया जा सकता था। विभिन्न कारणों से एक राजभाषा के रूप में हिंदी का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है। यही कारण है कि 78 वर्षों के बाद भी हिन्‍दी अंग्रेजी की जगह लेती हुई कहीं भी दिखाई नहीं दे रही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इस कार्य के लिए केवल 15 साल का समय दिया था।
राजभाषा की अवधारणा राज्य के विभिन्न अंगों जैसे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और सशस्त्र बलों आदि से संबंधित है। हालांकि, देश अपने सरकारी संस्थानों से कहीं बड़ा है। भारत में महात्मा गांधी ने जो जन जागरण किया वह संस्‍थानों से बाहर हुआ था। उनका असहयोग आंदोलन या भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत कांग्रेस का चुनाव में भाग लेने के उनके विरोध से यह पता चलता है कि उन्‍होंने देश की अपने संस्‍थानों पर निर्भरता को नकार दिया था। गांधीजी औपनिवेशिक भारत में उसके राज्य तंत्र के बीच की खाई और उसके लाखों लोगों के बारे में पूरी तरह जागरूक थे। वे भारत की बजाय भारतीय राष्ट्र को संबोधित करना चाहते थे। गांधीजी ने ऐसा करने के लिए अंग्रेजी की बजाय लोगों की भाषा का उपयोग करने का तरीका अपनाया।
भाषा का यह प्रश्‍न गांधीजी के स्वदेशी अभियान का अभिन्न अंग था। उन्‍होंने यह समझ लिया था कि लोग अपनी भाषा के जरिए ही स्वराज के मिशन में शामिल हो सकते हैं। इसलिए 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, गांधी ने हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के अधिक से अधिक उपयोग पर जोर दिया। प्रताप (हिन्‍दी) में 28 मई, 1917 को प्रकाशित उनके लेख में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने की वकालत की गई थी। 15 अक्टूबर 1917 को भागलपुर केे कटहलबाड़ी क्षेत्र में बिहारी छात्रों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। देशरत्न डाॅ राजेन्द्र प्रसाद के निर्देश पर बिहारी छात्रों के संगठन का काम लालूचक के श्री कृष्ण मिश्र को सौंपा गया था। बिहारी छात्रों के सम्मेेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी। अपने संबोधन में महात्मा गांधी ने कहा था-‘ मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्याख्यान देना और सम्मेेेेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेेम का परिचय दिया है। इस सम्मेलन का काम इस प्रांत की भाषा में ही और वही राष्ट्रभाषा भी है- करने का निश्चय दूरन्वेषी से किया है।’ इस सम्मेलन में सरोजनी नायडू का भाषण अंग्रेजी से हिन्दी में अनुदित होकर छपा था। यह सम्मेलन आगे चलकर भारत की राजनीति, विशेषकर स्वतंत्रता संग्राम में राजनीति का कॅानवास बना, जिससे घर-घर में स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद करना मुमकिन हो सका। वही प्रसिद्ध गांधीवादी काका कालेलकर ने इस सम्मेलन के भाषण कोे राष्ट्रीय महत्व प्रदान कर राष्ट्रभाषा हिन्दी की बुनियाद डाली थी। बाद में इसी कटहलबाड़ी परिसर में मारवाड़ी पाठशाला की स्थापना हुई। राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने हिन्‍दी को जनमानस की भाषा कहा था।उन्‍होंने 1918 में आयोजित हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन में हिन्‍दी को राष्‍ट्र भाषा बनाने के लिए कहा था।
इसमें उन्होंने कहा था कि ज्यादातर भारतीय, जिन्हें न तो हिंदी आती है और न ही अंग्रेजी, उनके लिए हिन्‍दी सीखना अधिक आसान होगा। उन्‍होंने कहा कि केवल डरपोक होने के कारण ही भारतीयों ने अपना राष्ट्रीय कार्य व्यापार हिंदी में करना शुरू नहीं किया है। अगर भारतीय इस कायरता को छोड़ दे और हिंदी में विश्वास जताएं तो राष्ट्रीय और प्रांतीय परिषदों का कार्य भी इस भाषा में किया जा सकता है।
इसी लेख में गांधीजी ने पहली बार दक्षिण भारत में हिंदी मिशनरियों को भेजने का विचार प्रस्‍तुत किया। उन्‍हीं के विचार ने 1923 में स्‍थापित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के रूप में मूर्त रूप लिया। 20 अक्‍टूबर 1917 को भरूच में दूसरे गुजरात शिक्षा सम्‍मेलन में दिया गांधीजी का भाषण महत्‍वपूर्ण समझा जाता है। इस भाषण में उन्‍होंने हिंदी को लोकप्रिय बनाने में स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के अग्रणी प्रयासों की सराहना की।
स्‍वामी दयानंद (1824-1883) गांधीजी की तरह ही गुजरात के रहने वाले थे। वे धार्मिक बहस और शिक्षण के माध्‍यम के तौर पर संस्‍कृ‍त का उपयोग करते थे। हिमालय क्षेत्र और उत्‍तर भारत में दशकों तक रहने के बावजूद उन्‍होंने कभी भी हिंदी सीखने का प्रयास नहीं किया। लेकिन 1873 में, जब वे कोलकाता की यात्रा पर गए, तो उनकी भेंट ब्रह्म समाज के केशब चन्‍द्र सेन से हुई। सेन ने उन्‍हें सलाह दी कि वे जनता तक पहुंच बनाने के लिए संस्‍कृत की जगह हिंदी का उपयोग करें। दिलचस्‍प बात यह है कि स्‍वामी दयानंद और केशब चन्‍द्र सेन दोनों में से कोई भी मूल रूप से हिंदी भाषी नहीं था। उन्‍होंने इस मैत्रीपूर्ण परामर्श को स्‍वीकार कर लिया और थोड़े ही समय में हिंदी में महारत हासिल कर ली। उन्‍होंने अपनी महान कृति सत्‍यार्थ प्रकाश (1875) की रचना भी हिंदी में ही की। उनके द्वारा स्‍थापित आर्य समाज ने हिंदी को लोकप्रिय बनाने की सशक्‍त एजेंसी के रूप में कार्य किया।
इस प्रकार गांधीजी ने हिंदी की मशाल उस जगह से अपने हाथ में थामी, जहां स्‍वामी दयानंद ने उसे छोड़ा था। जहां एक ओर स्‍वामी दयानंद का मिशन धार्मिक था, वहीं दूसरी ओर गांधीजी का मिशन राष्‍ट्रीय था। गांधीजी ने हिंदी को भारतीय मानस को ‘उपनिवेशवाद से मुक्‍त’ कराने के साधन के रूप में देखा। हिंदी को लोकप्रिय बनाने के उनके मिशन को दक्षिण भारत में कई लोगों ने आगे बढ़ाया।
जी. दुर्गाबाई (1909-1981) जो आगे चलकर संविधान सभा की सदस्‍य भी बनीं, ने किशोरावस्‍था में काकीनाडा (आंध्र प्रदेश), में लोकप्रिय बालिका हिंदी पाठशाला का संचालन किया। बालिका हिंदी पाठशाला का दौरा करने वालों में सी.आर. दास, कस्‍तूरबा गांधी, मौलाना शौकत अली, जमना लाल बजाज और सी.एफ. एंड्रयूज शामिल थे। वे यह देखकर हैरत में पड़ गये कि कुछ सौ महिलाओं को हिंदी का ज्ञान प्रदान करने वाली पाठशाला का संचालन एक किशोरी द्वारा किया जा रहा है।
लेकिन दुर्गाबाई के संविधान सभा तक पहुंचते-पहुंचते दक्षिण भारत में हिंदी के हालात बदल चुके थे। उन्‍होंने महसूस किया कि मूल हिंदी भाषियों द्वारा हिंदी के पक्ष में जोशोखरोश से किये गये प्रचार ने अन्‍य भाषाओं के लोगों को बेगाना कर दिया। स्‍वयं सेवियों ने जो उपलब्धि हासिल की थी, उत्‍साही गुमराह लोग उसे नष्‍ट कर रहे थे। इसीलिए उन्‍होंने 14 सितंबर, 1949 को अपने भाषण में कहा, ‘इस सदी के आरंभिक वर्षों में हमने जिस उत्‍साह के साथ हिंदी को आगे बढ़ाया था, उसके विरूद्ध इस आंदोलन को देखकर मैं स्‍तब्‍ध हूं।…. श्रीमान, उनकी ओर से बढ़चढ़कर किया जा रहा प्रचार का दुरूपयोग मेरे जैसे हिंदी का समर्थन करने वाले लोगों का समर्थन गंवाने का जिम्‍मेदार है और जिम्‍मेदार होगा। ’
जी. दुर्गाबाई द्वारा अपने भाषण में जिस कशमकश की बात की है वह 78 साल बाद आज भी प्रासांगिक है। भाषा के कानूनी दर्जे को लागू करने वालों की तुलना में गैर हिंदी भाषी अपने स्‍वैच्छिक प्रयासों के बल पर हिंदी के प्रति ज्‍यादा जिम्‍मेदार होंगे। संवर्द्धित साक्षरता तथा हिंदी और अन्‍य भारतीय भाषाओं के बीच सांस्‍कृतिक संपर्क हिंदी के उद्देश्‍य के लिए ज्‍यादा मददगार होंगे।

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