Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगमहंगाई की मार: आम जनता लाचार .

महंगाई की मार: आम जनता लाचार .

महंगाई की मार: आम जनता लाचार .

स्मार्ट हलचल/देश में महंगाई की मार से आम जनता परेशान है. सब्जियों के दाम में भी कमी और उछाल का दौर जारी है. चावलों के दाम बढ़ने के बाद सरकार ने चावलों के निर्यात पर बैन लगा दिया था. जिसके बाद चावल की कीमत तो नियंत्रण में आ गई. लेकिन अन्य वस्तुओं के दाम बढ़ते जा रहे हैं. अभी तक लगातार गर्मी के चलते दाल, राजमा, मटर जैसी चीजों के दाम में उछाल जारी है.फुटकर में टमाटर 120 रुपये प्रति किलो और हरी मिर्च 150 रुपये प्रति किलो तक बिक रहे हैं। भिंडी, अरबी, तोरई, बैंगन 80 रुपये किलो पर पहुंच गए हैं। लौकी 50 रुपये किलो है। अधिकतर हरी सब्जियां आम लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही हैं। कुछ सब्जियां क्षेत्र के हिसाब से भी महंगी हैं।
केवल भारत में ही नहीं दुनिया भर में जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है वो किसी से छुपी नहीं है। बढ़ती कीमतों ने लोगों की समस्याओं को और बढ़ा दिया है, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा समाज के गरीब तबके को उठाना पड़ रहा है।इस पर संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास संगठन (यूएनसीटीडी) द्वारा जारी ताजा विश्लेषण से पता चला है कि खाद्य कीमतों में 10 फीसदी के उछाल से, निर्धन परिवारों की आय में 5 फीसदी की गिरावट आ जाती है। देखा जाए तो यह राशि इतनी है जितनी वो परिवार आमतौर पर अपनी स्वास्थ्य देखभाल सम्बन्धी जरूरतों पर खर्च करता है। यूएनसीटीडी के अनुसार दुनिया भर में तेजी से आसमान छूती महंगाई और बढ़ता कर्ज बड़ी समस्या बन चुका है। इसके साथ-साथ खाद्य पदार्थों और ऊर्जा साधनों की बढ़ती कीमतों के चलते करोड़ों लोग जीवन यापन के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। दो साल तक महामारी जूझने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति भी तब से ख़राब चल रही है।
ऊपर से यूक्रेन में जारी युद्ध और जलवायु में आते बदलावों ने स्थिति को बद से बदतर बना दिया है। आंकड़ों की मानें तो आज 60 फीसदी मजदूरों की वास्तविक आय महामारी से पहले की तुलना में कम है। इतना ही नहीं दुनिया के 60 फीसदी सबसे कमजोर देश कर्ज के दलदल में फंसे हुए हैं। अनुमान है कि अफ्रीका में 5.8 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बस थोड़ा ऊपर हैं। वहीं वैश्विक स्तर पर 410 करोड़ लोग सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड’ से पता चला है कि 2021 में करीब 82.8 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार थे। यह आंकड़ा कितना विशाल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह भारत की करीब 59 फीसदी आबादी के बराबर है।
वहीं 230 करोड़ लोगों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है। जिन लोगों को खाना मिल भी रहा है उनकी स्थिति भी कोई ख़ास अच्छी नहीं है। पता चला है कि स्वस्थ आहार दुनिया में 310 करोड़ लोगों की पहुंच से बाहर है।खा जाए तो एफएओ द्वारा जारी फूड प्राइस इंडेक्स करीब-करीब रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुका है और पिछले साल की तुलना में इस समय 20.8 फीसदी ज्यादा है। यही हाल ऊर्जा क्षेत्र का भी है। जहां कच्चे तेल की कीमत 120 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई है। वहीं ऊर्जा कीमतों में भी 2021 की तुलना में इस साल 50 फीसदी वृद्धि की आशंका है। ऐसा ही कुछ उर्वरकों के साथ भी हो रहा है जिनकी कीमतें 2000 से 2020 के औसत की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा हो चुकी हैं।
देखा जाए तो एशिया और अफ्रीका में रहने वाले 9 करोड़ लोग, जो पहले बिजली इस्तेमाल कर रहे थे अब स्थिति यह है वो अपनी ऊर्जा सम्बन्धी बुनियादी जरूरतों का भुगतान नहीं कर सकते हैं। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते हर साल करीब 2 करोड़ लोगों को मजबूरी में विस्थापित होना पड़ रहा है। अनुमान है कि जलवायु से जुड़ी आपदाओं की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को हर साल 41.6 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है।नतीजन इसका असर न केवल खाद्य उत्पादों की बढ़ती कीमतों पर पड़ रहा है साथ ही उत्पादन में भी गिरावट आ रही है। यह सब कुछ यहीं तक ही सीमित नहीं रहेगा, इसका असर अगले सीजन में भी बढ़ी कीमतों के रूप में सामने आएगा।यदि आम लोगों के जनजीवन पर पड़ते असर की बात करें तो बढ़ती महंगाई का मतलब है कि खाद्य उत्पादों और ऊर्जा कीमतों में इजाफा आ जाएगा, जिसका असर लोगों की वास्तविक आय पर पड़ेगा। उनके रहनसहन के स्तर में गिरावट आ जाएगी, जो अगले चलकर उनके भविष्य की संभावनाओं को भी प्रभावित करेगा।
अनुमान है कि इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं और लड़कियों पर पड़ेगा। इसकी वजह से सामाजिक रुपरेखा में जो दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगें वो चिंताजनक हैं। बढ़ती गरीबी से लेकर असमानता की खाई कहीं ज्यादा गहरी हो जाएगी। शिक्षा के स्तर और उत्पादकता में गिरावट आ जाएगी, साथ ही लोगों की मजदूरी भी कम हो जाएगी। इसका असर सरकारों की इस तरह के संकटों से निपटने की क्षमता पर भी पड़ेगा जिससे सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है।इस स्थिति से निपटने के लिए जहां कुछ परिवारों को अपने भोजन की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ सकता है। वहीं बच्चों को शिक्षा से वंचित होने से लेकर स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चों के साथ समझौता करना पड़ रहा है। ऐसे में जब परिवार अपने खर्चों में कटौती करने की कोशिश करेंगें तो वो सस्ते उत्पादों की तरफ जाएंगें, जिनकी गुणवत्ता उतनी बेहतर नहीं होगी। नतीजन यह उन्हें आगे चलकर कहीं ज्यादा महंगा पड़ेगा।
इस मामले में यूएनसीटीडी की महासचिव रिबेका ग्रिन्सपैन का उपभोक्ता संरक्षण पर हाल में हुई बैठक में कहना था कि सरकारों को अपने उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए दीर्घकालीन मिशन को जारी रखने की जरुरत है। संगठन का कहना है कि एक तरफ विकसित देश हैं जिन्होंने अपने उत्पाद सुरक्षा ढांचें को मजबूत किया है। इसके लिए उन्होंने कानून उनके क्रियान्वयन, उत्पादों को वापस लेना सहित संचार अभियान जैसे उपायों को शामिल किया है।वहीं दूसरी तरफ विकासशील देशों में इसको लेकर मौजूदा प्रणालियां जर्जर अवस्था में हैं, जो असुरक्षित उत्पादों के अभिशाप को नियंत्रित करने में असमर्थ रही हैं। ज्यादा दुखद यह है कि देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों के छोटे से लेकर बड़े नेता सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए आम जनता का ध्यान भी इन्हीं चीजों की तरफ केन्द्रित करने के प्रयास करते हैं। कैश क्राप्स की कीमत प्रतिदिन सब्जी मंडियों में आने वाली सब्जी की आवक पर निर्भर करती है जिसका सीधा सम्बन्ध किसान से होता है। किसान के खेत में जितनी उपज होती है वह दैनिक आधार पर मंडी में ले आता है और उस उपज को देखते हुए उस सब्जी या फल के दाम नियत हो जाते हैं। यहां से माल खुदरा बाजार में जाता है और प्रत्येक खुदरा कारोबारी के लाभ के अनुसार उसके दाम बढ़ते जाते हैं। लेकिन असली महंगाई स्थायी उपजों जैसे गेहूं, आटा, चावल, दाल, चीनी, तेल, गुड़ , मसालों, दूध, दही, घी आदि की होती है। उत्तर भारत के गांवों में एक कहावत बहुत प्रचलित हुआ करती थी कि यदि ‘गेहूं महंगा तो सब महंगा’। मगर यह संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था के दौर की कहानी है। पिछले तीन दशकों में भारत बहुत बदला है और इसकी अर्थव्यवस्था के मूल मानकों में भारी परिवर्तन आया है। सेवा क्षेत्र का हिस्सा सकल विकास उत्पाद में लगातार बढ़ रहा है। औद्योगिक व उत्पादन क्षेत्र का अंश भी बढ़ रहा है। अतः हमें लोहों से लेकर सीमेंट व अन्य धातुओं के साथ औषधि क्षेत्र व घरेलू टिकाई उपकरणों ( बिजली उत्पादों समेत) के उत्पादों की महंगाई की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। इन सभी उत्पादों की कीमत बढ़ने का सीधा असर उपभोक्ता सामग्रियों पर पड़ता है।
अर्थात अब अर्थव्यवस्था के समीकरण बदलने लगे हैं। भविष्य में यह चलन और गहरा होगा क्योंकि भारत तरक्की की राह पर चल रहा है और डिजिटल दौर में प्रवेश कर चुका है। अब जाकर हमें अपनी अर्थव्यवस्था के आधारभूत मानकों की तरफ देखना होगा जिनकी वजह से महंगाई पर लगाम कसे जाने की संभावनाएं पैदा होंगी। औद्योगिक उत्पादन से लेकर यदि टिकाऊ घरेलू उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन बढ़ रहा है तो हमें ज्यादा फिक्र करने की जरूरत नहीं है और यदि सेवा (पर्यटन समेत) क्षेत्र में भी वृद्धि हो रही है तो सोने पर सुहागा। ये दोनों कारक आय में वृद्धि और उसके वितरण के वाहक होते हैं। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर इससे भी समझा जा सकता है। परन्तु गैस सिलेंडर से लेकर पेट्रोल व डीजल के दाम इस बात पर निर्भर करते हैं कि सरकारें इनके मूल दामों में किस हद तक उत्पादन शुल्क या बिक्रीकर ( वैट) के मामले में समझौता करने को तैयार होती हैं। मगर यह इस बात पर निर्भर करता है कि सरकारों की आमदनी अन्य उत्पादनशील मदों से किस हद तक होती है। पूरा आर्थिक चित्र देखने के बाद यही कहा जा सकता है कि अगले साल के शुरू तक महंगाई का चक्र उल्टा घूमना शुरू हो जाना चाहिए जैसी कि रिजर्व बैंक के गवर्नर की अपेक्षा है। मगर फिलहाल के लिए कुछ न किया जाये तो बेहतर होगा।

स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर  01 अगस्त  2024, Smart Halchal News Paper 01 August 
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