Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगजानलेवा बनता ध्वनि-प्रदूषण, कब जागेगी संसद ?

जानलेवा बनता ध्वनि-प्रदूषण, कब जागेगी संसद ?

– हरीश शिवनानी

स्मार्ट हलचल/भारतीय समाज की दिक्कत यह है कि यहाँ धार्मिक स्थलों, सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रमों, जलसों, राजनीतिक सभाओं, रैलियों, धरनों- प्रदर्शनों और वैवाहिक-सामाजिक समारोहों में लाउड-स्पीकरों के अलावा सभी तरह के ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का विवेकहीन तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है।

पहली नज़र में यह बात निश्चित रूप से हैरान करने वाली लग सकती है कि ध्वनि-प्रदूषण कैसे जानलेवा हो सकता है, लेकिन यह सच है। पिछले एक साल में ही ध्वनि-प्रदूषण की वजह से चार मौतें हो चुकी हैं। ताज़ी घटना अजमेर की है। दो मार्च की आधी रात को अजमेर के पुष्कर रोड पर कुछ युवक गाड़ी में तेज आवाज़ में म्यूज़िक सिस्टम बजाकर नाच रहे थे। लगातार हो रहे शोर-शराबे से परेशान होकर पास ही रहने वाले वकील पुरुषोत्तम जखेटिया ने उनका विरोध करते हुए म्यूज़िक सिस्टम बंद करने को कहा, इस पर नशे में धुत्त उन युवकों ने उनको लाठियों से पीट-पीट कर बुरी तरह घायल कर दिया। सिर में लगी गम्भीर चोट के कारण वकील ने सात मार्च को अस्पताल में दम तोड़ दिया। पिछले वर्ष सितंबर में भिलाई के हथखोज के धार्मिक पांडाल में तेज वोल्यूम में बज रहे डीजे से दिल के मरीज पचपन वर्षीय धन्नूलाल साहू ने परेशान होकर डीजे बंद करने या वोल्यूम कम करने को कहा लेकिन आयोजक उससे उलझ पड़े और डीजे बजाने की अनुमति मिलने का पत्र उसके मुँह पर फेंक दिया। शोर-शराबे और अपमान से व्यथित हार्ट-पेशेंट साहू ने फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली। सितंबर में ही छत्तीसगढ़ के बलरामपुर में साउंड सिस्टम के भारी शोर के कारण एक व्यक्ति के दिमाग की नस फट गई । अक्टूबर में भोपाल में दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान डीजे की तेज आवाज से तेरह वर्षीय समर बिल्लोरे की मौत हो गई। इस लिहाज से पिछले दिनों राजस्थान विधान सभा में जब लाउड स्पीकरों पर रोक लगाने या उनकी आवाज को नियंत्रित करने की जो मांग उठाई गई है, उसे समूचे परिवेश की सुरक्षा के लिए सकारात्मक रूप से लेना चाहिए। हम इतिहास के जिस कालखंड में जी रहे हैं, उस दौर में धनि-प्रदूषण सिर्फ़ मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि नभचर और जलचर प्राणियों तक को चपेट में ले चुका है। ध्वनि-प्रदूषण आधुनिक काल की ही देन नहीं है, कहा जाता है कि जूलियस सीज़र ने रात के समय रोम की पक्की सड़कों पर रथ चलाने पर रोक लगा थी थी,क्योंकि उनके शोर की वजह से वो रात को सो नहीं पाता था। ध्वनि दबाव स्तर को डेसिबल (डीबी) में मापा जाता है। एक लाउड स्पीकर का डेसिबल स्तर आमतौर पर 100-120 डेसिबल के बीच होता है, लेकिन जब चारों दिशाओं में लाउड स्पीकर लगाए जाते हैं और वे फुल वोल्यूम में बज रहे होते हैं, तो ध्वनि का डेसिबल स्तर 140 डेसिबल या अधिक हो सकता है। यही बात किसी समारोह में बज रहे म्यूज़िक सिस्टम के लिए भी कही जा सकती है। भारतीय समाज की दिक्कत यह है कि यहाँ धार्मिक स्थलों, सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रमों, जलसों, राजनीतिक सभाओं, रैलियों, धरनों- प्रदर्शनों और वैवाहिक-सामाजिक समारोहों में लाउड-स्पीकरों के अलावा सभी तरह के ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का विवेकहीन तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है। इनके बेतहाशा इस्तेमाल की स्थिति अब अराजकता की सीमा तक पहुंच गई है। भयानक शोर-शराबा और कोलाहल न सिर्फ़ मनुष्य के व्यवहार और आचरण पर नकारात्मक असर डालता है बल्कि ध्वनि-प्रदूषण सामाजिक और कानून-व्यवस्था के लिए भी चुनौती बनता जा रहा है। अंधाधुंध लाउड स्पीकरों, म्यूज़िक सिस्टम या किसी भी ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का उपयोग व्यवहार में चिड़चिड़ापन, झुंझलाहट ही नहीं लाता, उसे हिंसक भी बना सकता है। ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव पशु-पक्षियों और समुद्री जीवों पर भी गहरा होता है। कई पक्षी और जंगली जानवर संचार के लिए ध्वनि पर निर्भर होते हैं। लगातार शोर से जानवरों में तनाव हार्मोन (जैसे कॉर्टिसोल) बढ़ते हैं। अत्यधिक शोर के कारण कई प्रजातियां अपने प्राकृतिक आवास को छोड़ने पर मजबूर हैं, जिसका नकारात्मक प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है। समुद्री जीव जैसे व्हेल,डॉल्फिन और अन्य मछलियां दिशा-निर्धारण और संचार के लिए ध्वनि तरंगों पर निर्भर करती हैं। लिहाज़ा यह समय का तकाजा है कि अब संसद ही कोई कानून पारित करे और सभी ध्वनि-विस्तारक उपकरणों के निर्माण में आवाज की सीमा (डेसिबल) अधिकतम उस मानक तक तय कर दे जो वैज्ञानिकों ने प्राणियों के लिए सुरक्षित मानी है। मैन्यूफैक्चरिंग स्तर पर ही उपकरण की अधिकतम सीमा तय हो तो इस समस्या से काफ़ी हद तक निज़ात मिल सकता है। संसद के साथ-साथ न्यायपालिका को भी सजग रहना होगा कि कार्यपालिका इन कानूनों की सख़्ती से पालन करे।

हमारे देश में बुनियादी समस्या यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें उन कानूनों और दिशा-निर्देशों की पालना करवाने में बेहद उदासीन हैं। यही वजह है कि ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का इस्तेमाल करने वाले स्कूलों-कॉलेजों, प्रतियोगी परीक्षाओं के केन्द्रों, गंभीर बीमारियों के मरीजों वाले अस्पतालों और रहवासी कॉलोनियों के लोगों की असुविधाओं, परेशानियों के बारे में सोचे-समझे बगैर शोर-शराबा फैलाते रहते हैं। ऐसा नहीं कि भारत या उसके विभिन्न राज्यों में ध्वनि-प्रदूषण पर अंकुश के लिए कानून नहीं बने हुए हैं, इस बारे में तो उच्चतम न्यायालय के निर्णय और दिशा-निर्देश भी हैं। ज़रूरत कानूनों,नियम-कायदों और दिशा-निर्देशों की सख्ती से पालना करने और करवाने की है।

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