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सपनों का शाहपुरा, असल में बिल्कुल फिजूल!- अब तेरा क्या होगा रे शाहपुरा

(लेखक- हास्य व्यंग्य- कवि दिनेश शर्मा बंटी)

कहते हैं
शहर तो बस नाम का रह गया,
कागजों में विकास और जमीं पर सिर्फ धूल रह गया।
शहर के नाम बड़े और दर्शन छोटे,
कागजों में जिले का दर्जा, और हकीकत में गड्ढों से भरा रास्ता।
शाहपुरा आज भी वहीं खड़ा है,
जहां पचास साल पहले था खड़ा!

शाहपुरा का किस्सा अब ऐसा हो चला है कि हर गली, हर नुक्कड़ पर लोग एक-दूसरे से पूछते हैं। भाई, आज क्या नया तमाशा हुआ? क्योंकि यहां हर दिन कोई नया मजाक शहर के साथ होता है।

शाहपुरा की हालत देखकर अब दिल से एक ही बात निकलती है, अब तेरा क्या होगा रे शाहपुरा? हर बार इस शहर के माथे पर विकास का तिलक तो लगाया गया, लेकिन काजल की जगह कालिख ही पुती।
कभी रेल आने वाली थी। खूब बातें चलीं, मीटिंग हुईं, भूमिपूजन हुआ। लेकिन हुआ क्या? सिर्फ रेलवे ट्रैक बिछा, और वो भी ऐसा कि जैसे किसी कलाकार ने दीवार पर लाइन खींच दी हो। ट्रेन आई नहीं, और लोग अब उस ट्रैक पर साइकिल चलाकर ही अपना मन बहलाते हैं।

कॉटन मिल को ही देख लीजिए। पहले तो लगता था कि यहां रोजगार मिलेगा, शाहपुरा में मजदूरों के घरों में चूल्हा जलेगा। पर अब वो जैसे भूत बंगले का सेट। वहां कभी-कभी गाय-भैंस चरते हैं और रात में कुत्ते भी डर के भाग जाते हैं।

कविता की कुछ कड़वी पंक्तियाँ-
कुर्सी बदली, कुर्सी वाला बदला,
पर शहर की गलियाँ वहीं की वहीं सड़ी रहीं।
कागजों में विकास, फाइलों में उड़ता धूल,
सपनों का शाहपुरा, असल में बिल्कुल फिजूल!

अब बात आती है जिला बनने की। कितनी उम्मीदें जगीं थीं। लोग मिठाई बांटने निकल पड़े थे। वो साब हो गया जो जिले में हो। प्रोपटी के भाव सातवें आसमान पर ऐसे बढ़े जैसे प्रदेश की राजधानी ही शाहपुरा बन गयी। लेकिन वो सब बस सपना ही रह गया। दिल्ली में बैठकर जिला की फाइल बंद हो गई और शाहपुरा फिर वहीं का वहीं। ऐसा लगा जैसे किसी ने नवजात बच्चे का नामकरण तो कर दिया लेकिन उसे जीने नहीं दिया।

फिर नगर परिषद बनी, तो उम्मीद जगी कि शायद अब कुछ बदले। लेकिन किस्मत में तो तीसरी श्रेणी की नगर पालिका ही थी। विकास की गंगा तो क्या बहती, यहां तो नाली का पानी भी ढंग से नहीं बहता। सड़कों पर तो चल कर ही देखा जा सकता है कि क्या अनुभव है।
शाहपुरा की कुंडली में इतने राहु-केतु और शनि बैठे हैं कि बड़े-बड़े पंडित भी देख कर सिर खुजाने लगते हैं। उपाय बताया गया था कि सरसों का तेल चढ़ाओ। लोगों ने चढ़ाया भी, लेकिन हालत यह हो गई कि तेल बह-बहकर गली-मोहल्लों में फैलने लगा। ऐसा लगा जैसे शनि महाराज भी शाहपुरा के हालात से परेशान होकर खुद तेल में तैरने लगे हों!

अब सुनिए असली तमाशा। नगर परिषद के चेयरमेन साहब एक दिन छत पर चढ़े शहर के विकास का जायजा लेने। पर हुआ ये कि नीचे उतरने वाली सीढ़ी ही किसी ने हटा दी। और साहब छत पर ही अटके रह गए। आखिरकार उन्हें डामर के दो ढोल एक के ऊपर एक रखकर नीचे उतारा गया। नीचे आते ही लोगों ने ताली बजाई, बधाइयाँ दीं। कोई बोला बधाई हो साहब! ऊपर गये थे तो सभापति थे, नीचे उतरे तो सिर्फ पति रह गये। चेयरमेन साहब ने भी मुस्कुराते हुए कहा कोई बात नहीं, कुर्सी वही है, ऑफिस वही है!

अब इससे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति और क्या होगी?

किसी ने मजाक में कह भी दिया साहब, अब जिला अस्पताल से जिला शब्द हटा दो। डॉक्टरों को हटा कर कंपाउंडर रख दो। नई बिल्डिंग खोलकर किसी और जगह भेज दो। स्कूलों को भी घटा दो उच्च माध्यमिक विद्यालय को प्राथमिक विद्यालय बना दो। शायद तब कहीं विकास की गंगा बहे।

अब ये हालत देखकर तो यही लगता है कि शाहपुरा की तेरहवीं रखनी चाहिए। सब लोग सफेद कुर्ता-पायजामा पहनकर आएं। रंगीन कपड़े पहनने का सवाल ही नहीं, वरना लोग कहेंगे इनको कोई गम ही नहीं?

कवि दिनेश बंटी लिखते हैं-

तेरहवीं में भी करेले की सब्जी,
क्योंकि यही स्वाद बचा है इस शहर में अभी।
कुर्सी वही, कुर्सी पर बैठने वाला वही,
पर शहर का हाल बेहाल वही का वही।

कुछ और तीखी पंक्तियाँ भी पेश हैं-

शाहपुरा का विकास देख रोये पत्थर,
कागजों में पुल और सड़कों के सपने,
हकीकत में बस धूल और गड्ढे।
नेता आये, वादे किये,
फिर खुद भी भूल गये कि कभी शाहपुरा भी था।

आज की तारीख में हालत ऐसी हो गई है कि अगर कोई नया आदमी यहां आ जाए तो पूछेगा भाई, ये शहर है या कोई मजाक?

लोग हंसी में भी कहते हैं यहां राजनीति है, योजनाएं हैं, लेकिन शहर की हालत वही ढाक के तीन पात!

अंत में कवि दिनेश बंटी की तरफ से निवेदन है

अगर किसी दिन आपको शाहपुरा के हालात पर सच में दुख हो,
तो तेरहवीं में आकर कड़वा ग्रास जरूर खाइए।
क्योंकि कड़वा खाकर ही शायद आपको ये बात समझ में आए,
कि हम सब सालों से इस शहर में कड़वा ही तो चबा रहे हैं।

बकौल कवि दिनेश-अब तो यही कहने का मन करता है
अब तेरा क्या होगा रे शाहपुरा!

और सबसे तीखी बात-

यहां विकास की बात करना वैसा ही है जैसे रेत में बीज बोना।
यहां नेता आते हैं, भाषण देते हैं,
फिर चले जाते हैं, जैसे बारात बिना दूल्हे के।

अब शाहपुरा की किस्मत सुधारनी है तो पहले कुर्सियों के पीछे भागना छोड़कर शहर से सच्चा प्यार करना होगा। वरना आगे भी यही कहना पड़ेगा

अब तेरा क्या होगा रे शाहपुरा!

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