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“एक बार विधायक, उम्रभर ऐश!” “5 साल की कुर्सी बनाम 60 साल की नौकरी: पेंशन का पक्षपात”

“Once an MLA, lifelong enjoyment!” “5 years of chair vs 60 years of job: Pension bias”

“एक बार विधायक, उम्रभर ऐश!” “5 साल की कुर्सी बनाम 60 साल की नौकरी: पेंशन का पक्षपात”

डॉ.सत्यवान सौरभ

एक कर्मचारी 60 साल काम करने के बाद भी पेंशन के लिए तरसता है, जबकि एक नेता 5 साल सत्ता में रहकर जीवनभर पेंशन पाता है। यह लोकतांत्रिक समानता के मूल्यों का मज़ाक है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई गई है। अब वक्त है कि आम नागरिक, कर्मचारी और युवा इस मांग को साझा करें — या तो सभी को बराबरी से पेंशन मिले, या नेताओं की यह सुविधा खत्म हो।
“एक आदमी 60 साल काम करके भी पेंशन के लिए भटकता है, और एक नेता 5 साल की कुर्सी पकड़कर उम्रभर ऐश करता है!” क्या यह वही लोकतंत्र है, जिसे हमने ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’ माना था? क्या संविधान ने यही समानता का वादा किया था?
सरदार सिंह जोहल जैसे नागरिकों की याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक इसलिए पहुंचती हैं क्योंकि अब सब्र की हदें पार हो चुकी हैं। जो कर्मचारी ताउम्र फाइलें उठाता रहा, खेत में पसीना बहाता रहा, स्कूल में बच्चों को गढ़ता रहा, अस्पताल में जिंदगी बचाता रहा — उसके लिए पेंशन आज भी एक सुविधा नहीं, संग्राम है। वहीं एक जनप्रतिनिधि, जिसे जनता ने 5 साल के लिए चुनकर भेजा, भले ही वो एक दिन भी सदन में न गया हो, उसे आजीवन पेंशन मिलती है — और सिर्फ एक बार विधायक या सांसद बनने के आधार पर!

काम नहीं, कुर्सी ही काफी है!
भारत में कई राजनेता ऐसे हैं जो एक बार विधायक या सांसद बने, और फिर कोई चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन उनकी जेब में अब जीवन भर के लिए सरकारी खजाने से पैसा जाता रहेगा — क्योंकि ‘वो कभी विधायक थे’! सोचिए, अगर किसी क्लर्क को सिर्फ एक साल नौकरी करके पेंशन मिलने लगे तो वित्त मंत्रालय थर-थर कांप उठेगा! लेकिन जब बात नेताओं की हो, तो तर्क, नैतिकता और समानता सब किनारे हो जाते हैं।

2018 सुधार अधिनियम का खोखलापन
2018 में एक सुधार अधिनियम लाया गया था, जिसमें कोशिश की गई कि जनप्रतिनिधियों की पेंशन व्यवस्था को तर्कसंगत बनाया जाए। लेकिन ज़मीनी स्तर पर न तो इसके नियम लागू हुए, न ही नेताओं की कोई जवाबदेही तय हुई। नेताओं की पेंशन न नौकरी पर आधारित है, न योगदान पर। कोई रिव्यू नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं। बस एक बार शपथ ले लो, उम्र भर सुख।

सवाल यह नहीं कि उन्हें क्यों मिलती है, सवाल यह है कि हमें क्यों नहीं?
सवाल यह नहीं कि नेताओं को पेंशन क्यों मिलती है। सवाल यह है कि आम नागरिक जो जीवन भर सेवा करता है, उसे यह क्यों नहीं मिलती? हजारों संविदा कर्मचारी, गेस्ट टीचर, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, अनुबंध पर काम करने वाले डॉक्टर-नर्स, सफाईकर्मी — क्या इनकी मेहनत नेता से कम है?
आज भी लाखों सरकारी कर्मचारी रिटायर होने के बाद NPS (New Pension Scheme) के तहत अपने ही पैसों की EMI काटकर पेंशन पाने की आस लगाए बैठे हैं। और उधर नेताजी, जिनके पास पहले से ही तमाम भत्ते, गाड़ियाँ, बंगले और सुरक्षा है, वो पेंशन का लड्डू भी चबा रहे हैं।

लोकतंत्र की मखौल उड़ाती पेंशन व्यवस्था
इस देश में अगर कोई प्रणाली सबसे ज्यादा असमान और तानाशाही के पास है, तो वो नेताओं की पेंशन है। खुद को जनसेवक कहने वाले ये लोग, सेवा कम और सत्ता ज्यादा भोगते हैं। और जब सेवा खत्म होती है, तब भी सत्ता की सुविधाएं जारी रहती हैं — पेंशन के रूप में।
जनता से जुड़े मुद्दों पर चुप रहने वाले कई नेता सिर्फ इस पेंशन के भरोसे राजनीति में बने रहते हैं। विचारधारा कोई भी हो — पेंशन सबकी एक जैसी चलती है। यहाँ कोई आरक्षण नहीं, कोई कटौती नहीं, कोई ग्रेड पे नहीं। सब एक समान — क्योंकि वो नेता हैं! क्या यही समानता का राज है?

नेताओं की पेंशन समाप्त करो — नहीं तो कर्मचारियों को भी बराबरी दो!
अगर एक नेता 5 साल की सेवा के बाद पेंशन का अधिकारी हो सकता है, तो क्यों न एक अध्यापक को भी 5 साल की सेवा पर वही सुविधा दी जाए? क्यों नहीं एक किसान को, जिसने हर साल अन्न उगाया, उम्र भर के लिए न्यूनतम पेंशन मिले?
या फिर एक सख्त और निष्पक्ष निर्णय लिया जाए — कि जब तक आम कर्मचारी को स्थायी नौकरी और पेंशन की गारंटी नहीं दी जाती, तब तक किसी नेता को भी यह सुविधा नहीं मिलेगी।

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: उम्मीद की किरण
सरदार सिंह जोहल की याचिका में यह मांग की गई है कि नेताओं की पेंशन को समाप्त किया जाए या कम से कम उसमें भी कर्मचारी की तरह ही नियम लागू किए जाएं। सुप्रीम कोर्ट को इस पर त्वरित और ऐतिहासिक फैसला देना चाहिए।

यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, यह सामाजिक न्याय का सवाल है। यह भारत के संविधान में लिखी गई समानता की भावना का अपमान है कि एक वर्ग विशेष को सिर्फ पद के नाम पर लाभ दिया जाए, और बाकी लोगों को जीवन भर संघर्ष करना पड़े।

जनता की भूमिका: अब चुप मत रहो
यदि हम चुप रहेंगे तो ये असमानता कभी नहीं खत्म होगी। इस संदेश को, इस भावना को और इस आवाज़ को हमें हर गली, मोहल्ले, पंचायत, और विश्वविद्यालय तक पहुँचाना होगा। आज जो कर्मचारी है, कल वो ही मतदाता है — और जब तक वोट की ताक़त से बदलाव नहीं होगा, तब तक पेंशन जैसी सुविधा सिर्फ नेता की जेब में ही रहेगी।

हर कर्मचारी संगठन, हर युवा मंच, हर शिक्षक संघ, हर डॉक्टर संगठन को यह मांग अब ज़ोर से उठानी चाहिए — “या तो सबको पेंशन, या किसी को नहीं!”

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