धर्मद्रव्य का अपवित्र उपयोग पाप का कारण : प्रज्ञासागर जी
धर्म कार्य हेतु मिले द्रव्य का सदुपयोग अनिवार्य : गुरुदेव प्रज्ञासागर महाराज
“पुण्य के स्थान पर पाप मत कमाओ” – प्रज्ञासागर जी महाराज
— मंदिर निधि केवल धर्म कार्यों में ही व्यय हो – गुरुदेव का आह्वान
— धर्म कार्य हेतु मिले द्रव्य का सदुपयोग अनिवार्य
कोटा।स्मार्ट हलचल|गुरु आस्था परिवार कोटा के तत्वावधान में तथा सकल दिगंबर जैन समाज कोटा के आमंत्रण पर, तपोभूमि प्रणेता, पर्यावरण संरक्षक एवं सुविख्यात जैनाचार्य आचार्य 108 श्री प्रज्ञासागर जी मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में श्रद्धा, भक्ति और आध्यात्मिक गरिमा के साथ संपन्न हो रहा है।
गुरु आस्था परिवार के महामंत्री नवीन दौराया एवं शैलेन्द्र जैन ने बताया कि दीप प्रज्वलन, पाद प्रक्षालन, शास्त्र विराजमान, आरती एवं पूजन जैसे मंगल अवसरों का पुण्य सौभाग्य पारसमल,अमित अग्रवाल,निमोदिया,विमल—चंदा,कुशल—गायत्री दमदमा परिवार को प्राप्त हुआ। चैयरमेन यतीश जैन खेडावाला ने बताया कि सौधर्म इंद्र मिश्रीलाल,संगीता अशोक नगर व कुबेर इन्द्र पारसमल,पवन बाकलीवाल निमोदिया, छोटा गिरनार थे।
संचालन लोकेश जैन सीसवाली ने किया। अजय जैन ने बताया कि भाजपा समाज के संरक्षक विमल जैन नांता,विमल वद्र्धमान और भाजपा जिलामहामंत्री जगदीश जिंदल ने गुरूदेव का श्री फल भेंट किया।
आचार्य 108 श्री प्रज्ञा सागर जी महाराज ने अपने प्रवचन में धर्मद्रव्य के शुद्ध उपयोग पर गहन प्रकाश डालते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति धर्म के नाम पर द्रव्य लेता है, उधार लेता है अथवा बोली के माध्यम से संकल्प करता है और समय पर भुगतान नहीं करता, तो उसे ब्याज सहित चुकाना चाहिए। अन्यथा वह पाप का भागी बनता है।
गुरुदेव ने स्पष्ट कहा कि धर्मद्रव्य का उपयोग केवल धर्मकार्य के लिए ही होना चाहिए। यदि मंदिर में भोजन का आयोजन हो रहा हो तो प्रत्येक व्यक्ति को धर्मादा में दान अवश्य देना चाहिए। बिना धर्मादे का योगदान किए भोजन ग्रहण करना दोष का कारण बनता है, यदि उस भोजन का पुण्यार्जक स्वयं आमंत्रित न करे।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अभिषेक, पादप्रक्षालन और शांतिधारा के लिए संचित धन का उपयोग केवल उन्हीं कार्यों में होना चाहिए। यदि इन मदों का धन मंदिर भोजन या अन्य किसी कार्य में लगा दिया जाए, तो वह दोष का कारण बनता है। धर्मद्रव्य का दुरुपयोग वास्तव में ‘पुण्य के स्थान पर पाप’ बन जाता है।
गुरुदेव ने रयणसार (गाथा 32–35) का उल्लेख करते हुए बताया कि धर्मद्रव्य के अपहरण से व्यक्ति को कठोर दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं—जैसे संतान का अभाव, दरिद्रता, शारीरिक अक्षमता, दृष्टिहीनता, अपंगता तथा चांडाल योनि में जन्म तक की प्राप्ति।
उन्होंने पंचकल्याणक और मंदिर जीर्णोद्धार जैसे अवसरों पर प्राप्त धन को उसी कार्य में व्यय करने का निर्देश दिया। यदि उसे अन्य कार्यों में लगाया गया, तो वह विपत्ति का कारण बन जाता है।
गुरुदेव ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वर्तमान में मंदिरों में पूजा सामग्रियाँ भी भंडार से ली जाने लगी हैं—नारियल, चावल तक व्यक्ति स्वयं नहीं लाता। यह पूजा-द्रव्य का अपहरण है और इसके दोष से कोई नहीं बच सकता।अंत में उन्होंने कहा कि देव, गुरु और माता-पिता के लिए जो भी दान या सेवा का संकल्प किया जाए, उसे सदैव भंडार खुला मानकर निभाना चाहिए, क्योंकि उनका ऋण मानव पर सदा बना रहता है।
इस अवसर पर विनय शाह,नितेश जैन,विजय लुहाड़िया, मनोज सेठी,नितिन बाबरिया,भूपेंद्र पिड़ावा,पारस पिड़ावा,
शैलेन्द्र जैन,गुलाब लुहाड़िया ,मिलाप अजमेरा,नवीन बाबरिया,राजेन्द्र कोटिया,त्रिलोक जैन, योगेश सिंघम सहित कई लोग उपस्थित रहे।