A legacy, memories, traditions, and generations captured in wrinkles
– राजकुमार जैन
स्मार्ट हलचल|क्या कभी आपने घर के उस मौन कोने को देखा है, वहाँ आराम कुर्सी पर बैठे बुज़ुर्ग, शून्य में निहारते रहते हैं। दरअसल वो सिर्फ देख नहीं रहे होते; वे अपनी यादों के गलियारों में टहल रहे होते हैं। उनके चेहरे पर पड़ी हर झुर्री समय का एक दस्तावेज है, एक ऐसी लिपि है जिसमें संघर्ष, प्रेम, त्याग और जीवन के गहरे रहस्य लिखे हैं। वे वह नींव हैं, जिसके पत्थरों में हमारे अस्तित्व का इतिहास उकेरा हुआ है।
हमारे घरों में मौजूद ये बुज़ुर्ग जनगणना रिकार्ड में दर्ज एक ‘सदस्य’ भर नहीं हैं, वो तो बीते हुए समय के जीवंत हस्ताक्षर हैं। वो वह वटवृक्ष हैं, जिसकी छाँव तले हमारा बचपन खेला और जवानी परवान चढ़ी। उनके सानिध्य में सुकून की वो खुशबू है, जो किसी इत्र में नहीं मिलती। उनके अनुभवों की भूमि में हमारे परिवार रूपी वृक्ष की जड़ें फैली हुई हैं। लेकिन विडंबना यह है कि हम उसके फलों को तो तोड़ रहे हैं, पर जड़ों को पानी देना भूल रहे हैं। यही विरासत, यही यादें अगर हमने आज नहीं सहेजीं, तो वक्त की आंधी में धीरे-धीरे सारी पारिवारिक स्मृतियाँ रेत की तरह बिखर जाएंगी। और एक दिन, जब हम पीछे मुड़कर देखेंगे, तो वहां सिवाय सन्नाटे के कुछ नहीं होगा। लिखकर, बोलकर, रिकार्ड कर, और अपने दिल में सँजोकर हम अपनी पारिवारिक स्मृतियों को अमिट बना सकते है।
सहेजिए रसोई की वो महक, जहाँ स्वाद नहीं, भावनाएँ पकती थीं। क्या आपको याद आती है नानी-दादी की रसोई से आती वह सोंधी महक जो महज़ मसालों का संगम नहीं थी, वह एक युग की पहचान थी। वह खट्टा-मीठा अचार जिसे धूप में सुखाते वक्त नानी की नजरों का पहरा होता था, सर्दियों में तिल-गुड़ की पट्टी, मैथीदाने वाली कढ़ी, या माँ के हाथों रोज पकने वाली अलौकिक दाल, इनमें कोई सीक्रेट मसाला नहीं डलता था। इनका सीक्रेट इनग्रेडिएंट था बनाने वाले का ‘भाव’।
दादी की उंगलियों का वह नाप, जिसे दुनिया का कोई भी ‘मेज़रिंग कप’ नहीं माप सकता। “बेटा, अंदाज से डाल दो” यह ‘अंदाज़’ ही तो उनकी पाककला की विशेषज्ञता थी। उनकी सरलता, धैर्य, वह परोसने की आत्मीयता, वह जिद करके खिलाना, यह सब हमारी अगली पीढ़ी का असली खजाना है। लेकिन अफसोस, हम पिज़्ज़ा की डिलीवरी में उस स्वाद को भूलते जा रहे हैं। यदि इन पारिवारिक और परंपरागत विधियों को सहेजा ना गया, यदि घर की बेटियों और बेटों को वो हुनर न सिखाया गया, तो एक दिन हमारे पास खाने को तो बहुत कुछ होगा, लेकिन ‘स्वाद’ हमेशा के लिए खो जाएगा। हमें इस स्वाद को अगली पीढ़ी की थाली तक पहुँचाना होगा।
लिख लीजिए उन कहानिययों को जो अब स्क्रीन के पीछे छुप गई हैं, एक वक्त था जब रातें “एक था राजा, एक थी रानी” से शुरू होती थीं और दादी की लोरी पर खत्म होती थीं। उन कहानियों में परियों का जादू था, राजकुमारों का साहस था, और जीवन का वो भोलापन था जो आज की चालाक दुनिया में दुर्लभ है। दादा जी के किस्से हमें सिखाते थे कि गिरकर कैसे संभलना है।
लेकिन आज की रातें मोबाइल की नीली रोशनी से शुरू होती हैं। कहानियाँ अब सुनाई नहीं जातीं, ‘डाउनलोड’ की जाती हैं। हम भूल रहे हैं कि एक कहानी पीढ़ियों के बीच एक ऐसा अदृश्य लेकिन मज़बूत पुल बनाती है, जिस पर चलकर संस्कार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते हैं। वे कहानियाँ लिखी जानी चाहिए, उनकी आवाज़ रिकॉर्ड होनी चाहिए। बच्चों को पता होना चाहिए कि उनके दादा के दादा कौन थे, न कि सिर्फ यह कि स्पाइडरमैन कौन है।
दर्ज कर लीजिए भावनाओं के प्रमाण और यादों के दस्तावेज़, हम दुनिया का इतिहास रटते हैं, परीक्षाओं में पास होने के लिए। लेकिन अपने ही घर के इतिहास में हम ‘फेल’ हो रहे हैं। हमारा गाँव कौन सा था, हमारे पुराने घर की नींव किस संघर्ष पर रखी गई थी, पिता की पहली कमाई क्या थी माँ ने अपने कौन से सपने गिरवी रखकर हमें पाला पोसा, ये महज बातें नहीं हैं; ये भावनाओं के जीवित प्रमाण हैं।
हमें अपने घर का इतिहासकार बनना होगा। उन पुरानी एल्बमों को अलमारी से निकालिए, उन पीली पड़ती तस्वीरों के पीछे तारीख और नाम लिखिए। पुराने लोकगीत जो घर की महिलाये ढोलक पर गाती थीं, उन्हें वीडियो में कैद कीजिए। क्यों न हम प्रति माह एक दिन ‘विरासत दिवस’ मनाएँ, उस दिन कोई टीवी नहीं, कोई फोन नहीं। उस दिन सिर्फ घर के बुजुर्ग बोलें और हम सुनें। उनसे पूछें कि उन्होंने जीवन को कैसे जिया, कैसे समझा, मुश्किलों का सामना कैसे किया। यकीन मानिए, उनके पास जीवन प्रबंधन (के ऐसे सूत्र हैं जो किसी मैनेजमेंट स्कूल में नहीं पढ़ाए जाते।
भविष्य को जड़ों से जोड़िये, विरासत का मतलब बैंक बैलेंस या ज़मीन का टुकड़ा नहीं होता। असल विरासत वह है जो स्मृति में रहती है, जो हमारे आचरण में झलकती है, जो खून में बहती है। एक रेसिपी, एक लोरी, एक कथा, एक संस्कार, यही वो अथाह दौलत है जो कभी खर्च नहीं होती। बुज़ुर्ग से यदि यह सब सीखा जाए, तो हमारे बच्चे सिर्फ ‘खोखले आधुनिक’ नहीं बनेंगे। वे ऐसे आधुनिक इंसान बनेंगे जिनके पास उड़ने के लिए तकनीक के पंख तो होंगे, लेकिन जमीन पर टिके रहने के लिए संस्कारों की मज़बूत जड़ें भी होंगी। वे ‘स्मार्ट’ भी होंगे और ‘संवेदनशील’ भी।
याद रखिए कि यादें अपने आप नहीं मिटतीं, उन्हें मिटा देती है हमारी व्यस्तता और उपेक्षा। यादों को थामने वाला हाथ चाहिए। आज वही कांपते हुए हाथ हमारे बुजुर्गों के हैं, जो बड़ी आस से हमारी तरफ देख रहे हैं। उन्हें सहारे की उतनी ज़रूरत नहीं है, जितनी की ‘सुनवाई’ की है।
जो हाथ आज थाम लिया जाएगा, वही संस्कार आगे जाएगा। उनकी झुर्रियों में लिखा इतिहास पढ़ने की कोशिश कीजिए, उनके कांपते हाथों की दुआएँ बटोर लीजिए। इससे पहले कि वह कांपती आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो जाए और वह कुर्सी खाली हो जाए, अपनी विरासत को सहेज लीजिए। क्योंकि खाली कुर्सियां किस्से नहीं सुनातीं, बस खामोश रह जाती हैं


