अशोक भाटिया , मुंबई
स्मार्ट हलचल/1977 के चुनावों के बाद, कांग्रेस विभाजित हो गई और दो कांग्रेस दल थे, इंदिरा कांग्रेस और रेड्डी कांग्रेस। मूल कांग्रेस रेड्डी कांग्रेस थी। बाद में, रेड्डी कांग्रेस का इंदिरा कांग्रेस में विलय हो गया। इसलिए यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि आज राहुल और सोनिया की कांग्रेस इंदिरा कांग्रेस है। यह पार्टी उनकी निजी संपत्ति नहीं है। केवल गुलामों के लिए अवसर है। सरदार वल्लभभाई, राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी, नरसिम्हा राव, प्रणव दा का इस जगह में कोई स्थान नहीं है। जो चाटुकार हैं वही आज की कांग्रेस की वास्तविकता हैं। तो इस नई इमारत में एकमात्र जगह मनमोहन सिंह थे, वह भी एक कोने में। दूसरी ओर, राहुल बाबा, इस कांग्रेस नामक निजी संपत्ति के एकमात्र ट्रस्टी, किसी भी भारत विरोधी ताकतों के एजेंडे को चलाने में सक्षम हैं। और उन्होंने बांग्लादेश की तर्ज पर तख्तापलट के बाद अराजकता पैदा करने और खुद को प्रधानमंत्री बनाने का वादा किया है। वह इन दिवास्वप्नों को आगे बढ़ाने के लिए डीप स्टेट के प्रवक्ता बन गए हैं।
इस एजेंडे में पहला है यहां विभिन्न जातियों को विभाजित करना, यानी हिंदुओं को विभाजित करना और मुसलमानों और ईसाइयों को खलनायक बनाना। नंबर दो भारत के विकास का विरोध करना है। तीसरा राष्ट्र-विरोधी ताकतों को प्रोत्साहित करना है, चाहे वह खालिस्तान हो, नक्सलवाद हो या शहरी माओवादी हों। चौथा, अदालतें, पुलिस, सेना उन सभी के लिए एक नैतिक अहित है और उनके बारे में लोगों में अविश्वास पैदा करती है। यह उतना दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि कांग्रेस और राहुल गांधी जैसा नेता देश में अराजकता का प्रतीक बन गया है। इंदिरा भवन में अपने भाषण में उन्होंने जो सितारे तोड़े हैं, वे एक माओवादी या अब प्रचलित डीप स्टेट प्रवक्ता के लिए उपयुक्त हैं। जब आरएसएस और भाजपा के साथ लड़ने की बात आती है, तो सबसे पहले यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह जॉर्ज सोरस और माओवादियों द्वारा प्रशिक्षित एक अत्यधिक जहरीले वैचारिक बच्चे पप्पू नहीं हैं।
इन सितारों के टूटने का अवसर इंदौर में मोहनजी भागवत का बयान था। वास्तव में, सरसंघचालक ने जो कहा वह एक निर्विवाद सत्य है। उनके भाषण में कहीं भी स्वतंत्रता या स्वतंत्रता सेनानियों के अपमान का कोई सवाल ही नहीं था। देश को आजादी मिली, यह किसी राजनीतिक दल की विरासत नहीं है। वह गुलामी का शिकार था। इस प्रकार इस तथ्य को मुखर करने में कोई गलती नहीं थी कि विदेशी गुलामी के कई प्रतीक एक स्वतंत्र देश में खड़े थे जिसने खून, पसीना और आँसू खो दिए थे, उनमें से एक बाबरी मस्जिद थी, जिसे राम मंदिर को नष्ट करके बनाया गया था। इसके लिए बहुत अधिक नैतिक अधिकार की आवश्यकता होती है। आपको निस्वार्थ होने का जीवन जीना होगा और इसे स्थापित करने के लिए अदम्य साहस चाहिए।
सोने का एक चम्मच लेकर पैदा हुए और हर दो महीने में विदेश यात्रा करके उपभोक्तावादी संस्कृति में रहते हुए, राहुल गांधी को संघ और संघ के नेतृत्व को समझने के लिए कुछ और जन्म लेने होंगे। अडानी के बहाने भारतीय अर्थव्यवस्था को धमकाने के लिए हिंडनबर्ग की झूठी रिपोर्ट का उपयोग करना देशद्रोह है। सरसंघ संचालक मोहनजी भागवत जैसे देशभक्त इस देश के ज्योतिषी हैं। आप सर संघ चालक की बात कर सकते हैं क्योंकि स्वयंसेवक धैर्यवान होते हैं और संविधान के अनुसार व्यवहार करते हैं। लेकिन अगर आप ऐसी बात करते रहेंगे तो आपको राजनीति छोड़कर अदालत जाना पड़ेगा। राहुल गांधी को मोहन भागवत जी के भाषण में देशद्रोह दिखाई दिया। वह सर संघचालक की गिरफ्तारी की बात करने लगे। टीम नेतृत्व को गिरफ्तार करने के लिए कहा गया है। उन्होंने टीम को खत्म करने की शपथ ली है। लेकिन दुर्भाग्य से उसके लिए, टीम समाप्त नहीं हुई है, यह बढ़ी है, यह बढ़ रही है और आज टीम के विचार का प्रभाव हर जगह है, टीम सामाजिक रूप से विविध हो रही है।
एक जिम्मेदार विपक्षी दल या सत्ता के लिए बेताब एक राजनीतिक समूह के रूप में, कांग्रेस के नेता वास्तव में खुद को क्या होते देखना चाहते हैं? लेकिन देश ने, देश की जनता ने आत्मनिर्भर भारत को विश्वगुरु के पद पर ले जाने का फैसला कर लिया है। समाज में अपनी विदेशी गुलामी के सभी निशान मिटा देने की आत्म-चेतना है। इसके लिए वो एक ऐसा लीडर ढूंढेगा या तैयार करेगा जो इन आकांक्षाओं को पूरा करे। एक जिम्मेदार विपक्ष और नेता होगा या फिर समाज में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता को चुनने की क्षमता है। राहुल गांधी को विदेशी शक्तियों का प्रवक्ता बनना बंद कर देना चाहिए।
कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा , यह सवाल कांग्रेस के लिए भी बार – बार उभर कर सामने आता है कि आखिर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की दुर्गति का जिम्मेदार कौन है? कई जानकारों के अलावा अब पार्टी के भीतर भी इसके लिए गांधी परिवार को जिम्मेदार माना जा रहा है। यह निष्कर्ष सच तो है, किंतु यही पूरी सच्चाई नहीं। क्या इस संदर्भ में केवल गांधी परिवार को ही दोषारोपित करना उचित होगा? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार के बाद सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं। राहुल गांधी परोक्ष रूप से पार्टी के निर्णायक फैसले ले रहे हैं। तमाम कोशिश के बावजूद प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति में कोई सुधार नहीं कर पाईं। वस्तुत: परिवारवाद कांग्रेस की समस्याओं की जड़ है तो उसके बीज भी पार्टी ने ही बोए थे। इसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के दौर में हो गई थी। परिणामस्वरूप विगत साढ़े सात दशकों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर गांधी परिवार ही काबिज रहा है। इसमें पिछले ढाई दशकों के दौरान पार्टी की राजनीतिक जमीन खिसकती ही गई। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या नेतृत्व परिवर्तन से ही पार्टी का कायाकल्प संभव है?
हाल के वर्षों का राजनीतिक रुझान दर्शाता है कि जहां भी कांग्रेस तीसरे स्थान पर पहुंची, वहां वह दोबारा नहीं उभर पाई। दिल्ली इसका सबसे ताजा उदाहरण है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही अब दो ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस की अपने दम पर सरकार बची है। राज्यसभा में उसके सदस्यों की संख्या सिमटकर 33 रह गई है। अपने आरंभिक काल में कांग्रेस में विविध विचारधारा वालों के लिए स्थान था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय और गांधीजी, ये सभी भारत की सनातन संस्कृति से प्रेरणा पाते थे। गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद जब कांग्रेस पर नेहरू का एकाधिकार हुआ, तो पार्टी के मूल सनातनी और बहुलतावादी चरित्र को धीरे-धीरे हाशिये पर धकेल दिया गया। इसमें रही-सही कसर इंदिरा गांधी ने पूरी कर दी। 1969 में जब कांग्रेस दो फाड़ हुई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आई, तब संसद में उन्हें अपनी सरकार बचाने हेतु 41 सांसदों की आवश्यकता थी। इस कमी को वामपंथियों ने बाहरी समर्थन देकर पूरा किया। इंदिरा ने उन कम्युनिस्टों के सहारे अपनी सरकार बचाई, जिनका अपने उद्भव काल से एकमात्र एजेंडा भारत की सनातन संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली पर प्रहार करना रहा। अपने इसी दर्शन के कारण वामपंथियों ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में अंग्र्रेजों के लिए मुखबिरी की। गांधीजी, नेताजी आदि देशभक्तों को अपशब्द कहे। पाकिस्तान के जन्म में मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के साथ मिलकर महती भूमिका निभाई। भारतीय स्वतंत्रता को अस्वीकार करके उसे 17 देशों का समूह माना। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के जिहादी रजाकरों के साथ, तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में वैचारिक समानता के कारण चीन के पक्ष में खड़े रहे। इसके अतिरिक्त, 1967 में लोकतंत्र विरोधी नक्सलवाद को जन्म दिया।
जब 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया, तब तमाम वामपंथी न केवल कांग्रेस में शामिल हुए, बल्कि उन्हें शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए। इसी दौर में कांग्रेस ने अपनी मूल गांधीवादी विचारधारा को वामपंथियों को ‘आउटसोर्स’ कर दिया, जो अब भी उससे केंचुली की भांति चिपकी हुई है। कांग्रेस का सार्वजनिक-व्यवहार उस घिसे-पिटे वामपंथी व्याकरण से निर्धारित हो रहा है, जिसमें उसका भी कोई दृढ़ विश्वास नहीं है। कांग्रेस ऐसा केवल इसलिए करने को विवश है, क्योंकि विचारधारा के मामले में वह पहले ही शून्य हो चुकी है। मैकाले चश्मा पहनी कांग्रेस जाने-अनजाने में तभी से वामपंथियों के साथ मुस्लिम लीग के अधूरे एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। वह चाहे देश पर आपातकाल थोपना हो या शाहबानो मामले में मुस्लिम समाज में सुधार के प्रयासों को रोकना हो, परमाणु परीक्षण का विरोध करना हो या भगवान श्रीराम को काल्पनिक बताना हो, उनमें कांग्रेस की हिंदू विरोधी और मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता प्रत्यक्ष होती है। मानो इतना ही काफी नहीं। 2005-2011 के बीच केवल हिंदुओं को लक्षित करता ‘सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम’ लाया गया। जेएनयू परिसर में भारत विरोधी नारों का समर्थन करने से लेकर सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह किया गया। ऐसे अंतहीन उदाहरणों की सूची लंबी है।
यदि कांग्रेस के सिकुड़ते जनाधार के लिए केवल गांधी परिवार ही जिम्मेदार है, तो क्या यह सत्य नहीं कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, पी चिदंबरम और सुशील कुमार शिंदे आदि ने ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ का हौवा खड़ाकर वामपंथी एजेंडे के अनुरूप विमर्श नहीं गढ़ा था? क्या सर्वोच्च न्यायालय में राम मंदिर के खिलाफ पैरवी करने वालों में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल नहीं थे? क्या स्वदेशी कोविड-19 रोधी टीके की दक्षता पर सवाल उठाने वालों में शशि थरूर जैसे कांग्रेस नेता अग्रणी नहीं थे? ‘द कश्मीर फाइल्स’ का विरोध करते हुए कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को ‘प्रोपेगंडा’ और हत्याओं के आंकड़ों को ‘फर्जी’ बताने की शुरुआत क्या कांग्रेस की केरल इकाई ने नहीं की? मई 2014 में मिली करारी हार की पड़ताल के लिए गठित एके एंटनी समिति ने भी माना था कि पार्टी की छवि हिंदू विरोधी हो गई है। इसके बाद आधे-अधूरे मन से कांग्रेस ने अपनी इस गलती का सुधार बहुत भोंडेपन के साथ किया। एक ओर चुनाव प्रचार में पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी जनेऊ पहनकर मंदिर-मंदिर घूमकर स्वयं को सच्चा हिंदू स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। दूसरी ओर उनके कार्यकर्ताओं ने केरल में सरेआम गाय के बछड़े को मारा। स्वाभाविक है कि इससे पार्टी को न ही कोई वांछनीय फल मिला और न ही जनमानस प्रभावित हुआ।
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार