Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगआह उस्ताद आह, तबले का रुदन

आह उस्ताद आह, तबले का रुदन

राजकुमार जैन, स्वतंत्र लेखक और उस्ताद के अनन्य प्रशंसक

स्मार्ट हलचल/कहते हैं कि हुनर जन्मजात होता है, और उस्ताद जाकिर हुसैन अल्लारक्खा कुरैशी ने इस कहावत को अपने तबला वादन के अनोखे और अविस्मरणीय तरीके से सत्य सिद्ध किया। बोलना शुरू करने से पहले, कच्ची उम्र में घुटनों के बल रेंगते जाकिर ने घरेलू सामानों पर अपनी नन्ही अंगुलियों की थाप से लय की सहज समझ का ऐसा प्रदर्शन किया जिसे सुनकर उनके पिता, प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद अल्लारक्खा भी दंग रह गए। नन्हे जाकिर को घरेलू सामानों पर त्रुटिहीन ताल बजाते देखकर, उनके पिता ने सोचा नहीं होगा कि एक दिन यह बालक तबले को एक संगत वाद्य की बजाय दुनिया भर में प्रसिद्ध एकल वाद्य के रूप में ऐसी प्रसिद्धि दिलाएगा कि दुनिया भर के लोग टिकट खरीदकर सिर्फ तबला सुनने के लिए आएंगे। सात साल की उम्र में, वह अपने पिता, उस्ताद अल्लारक्खा, जो अपने आप में एक किंवदंती थे, के साथ मंच पर अपना पहला प्रदर्शन कर रहे थे। और 12 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला विदेशी दौरा सम्पन्न किया था जहां उन्होंने तबले की जटिल लय से वैश्विक दर्शकों को मंत्रमुग्ध करना शुरू कर दिया था।

तबला बजाते हुए, उनकी आत्मा संगीत की लय में खो जाती थी और उनका शरीर धुन के साथ नृत्य करता प्रतीत होता था। उनको तबला बजाते हुए न सिर्फ सुनना बल्कि देखना भी एक अलौकिक और दिव्य अनुभव था। अविश्वसनीय गति से उनकी उंगलियाँ तबले पर नृत्य करती थीं, और उनकी धुनें सुनने वालों को एक नए आयाम में ले जाती थीं। निपुणता और रचनात्मकता से लबरेज उनकी संगीत यात्रा एक पवित्र नदी की तरह थी, जो अपने साथ संगीत का अमृत लेकर बहती थी। उनका संगीत एक जादू की तरह था, जो सुनने वालों को अपनी गहराई में डूबने के लिए मजबूर कर देता था।, जाकिर हुसैन का मानना था कि संगीत सीमाओं के पार लोगों को एकजुट कर सकता है। उनके अनुसार संगीत मानवता की धड़कन है – यह हमें हमारे अतीत और एक-दूसरे से जोड़ता है। वैश्विक संगीत संस्कृति पर उनका प्रभाव और भारतीय संगीत विरासत के राजदूत के रूप में उनकी भूमिका बेमिसाल रही है।

9 मार्च 1951 को एक प्रतिष्ठित संगीत परिवार में माता बावी बेगम जी कोख से जन्मे ज़ाकिर की प्रारम्भिक शिक्षा मुंबई के सेंट माइकल हाई स्कूल से बुई और सेंट जेवियर्स कॉलेज से उन्होंने स्नातक की उपाधि हासिल की। 2005-2006 शैक्षणिक वर्ष के दौरान, ज़ाकिर हुसैन प्रिंसटन विश्वविद्यालय में संगीत विभाग में पूर्णकालिक प्रोफेसर और ओल्ड डोमिनियन फेलो थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया था।

भारत सरकार ने इस विलक्षण संगीत प्रतिभा को 1988 में पद्म श्री, 2002 में पद्म भूषण और 2023 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त, उन्हें 1990 में रत्ना सदस्य, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। हुसैन चार बार ग्रैमी पुरस्कार विजेता भी रहे। ज़ाकिर हुसैन की वैश्विक ख्याति द ग्रेटफुल डेड के मिकी हार्ट जैसे कलाकारों के साथ सहयोग के माध्यम से पुख्ता हुई। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उनको पारंपरिक कलाकारों के लिए सर्वोच्च सम्मानों में से एक “नेशनल हेरिटेज फ़ेलोशिप” से सम्मानित किया था।

भारतीय शास्त्रीय संगीत के अलावा, जाकिर हुसैन ने कई तरह की शैलियों में दूसरे देशों के जाने-माने संगीतकारों के साथ काम किया है। जिनमें हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित रविशंकर, जॉर्ज हैरिसन, यो-यो मा, बेला फ्लेक, जॉन मैकलॉघलिन और मिकी हार्ट जैसे महान कलाकार शामिल हैं। उनकी साझेदारियों से बना संगीत सांस्कृतिक और भाषाई सीमाओं से परे था। उनका कहना था कि जब हम साथ में बजाते थे, तो ऐसा लगता था कि हम एक वैश्विक भाषा में संवाद कर रहे हैं। जॉन मैकलॉघलिन के साथ फ्यूजन बैंड “शक्ति” के संस्थापक सदस्य के रूप में, उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को जैज़ और रॉक के साथ मिलाकर एक बिल्कुल नई शैली बनाई। उनका ग्रैमी विजेता एल्बम “प्लैनेट ड्रम” विश्व संगीत में मील का पत्थर बन गया। हुसैन ने इस अनुभव का वर्णन करते हुए कहा था कि “यह केवल संगीत नहीं था – यह संस्कृतियों के बीच वार्तालाप था, हर थाप एक कहानी बयां कर रही थी।” वो अक्सर कहा करते थे कि संगीत असीम है; जितना आप सीखते हैं, उतना ही आपको एहसास होता है कि अभी कितना कुछ और बूझना बाकी है।

इन-कस्टडी और वानप्रस्थम सहित अन्य फ़िल्मों के लिए उनकी संगीत रचनाओं ने भावनाओं को लय में बदलने की उनकी क्षमता को दर्शाया। वो कहते थे कि किसी फ़िल्म के संगीत की रचना करना ध्वनि से पेंटिंग बनाने जैसा है। हालांकि जाकिर हुसैन को उनके संगीत के लिए ज़्यादा जाना जाता है, लेकिन उन्होंने अभिनय में भी हाथ आजमाया। उन्होंने हीट एंड डस्ट (1983) और द परफेक्ट मर्डर (1988) हीट एंड डस्ट (1983) जैसी कुछ फ़िल्मों में काम किया। उन्होंने साज़ में भी अभिनय किया, जो कथित तौर पर आशा भोंसले और लता मंगेशकर के जीवन पर आधारित थी। एक अभिनेता के रूप में उनकी अंतिम भूमिका मंकी मैन में थी।

अपनी वैश्विक ख्याति के बावजूद अपने पैदाइशी संस्कारों की जड़ों से जुड़े ज़ाकिर हुसैन की निजी ज़िंदगी की भी अपनी अलग कहानी है। उनकी लयबद्ध जीवन यात्रा उतनी ही विविधतापूर्ण थी जितनी कि उनके तबले की थाप। माहिम में एक साधारण चाल में बिताए गए उनके शुरुआती वर्षों ने उनके संस्कारों को गहराई दी। एक वो दौर भी था जब पूरा परिवार एक कमरे में रहता था और सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करता था।

इतालवी-अमेरिकी कथक नृत्यांगना एंटोनिया मिनेकोला से अपनी माँ की मंज़ूरी के बिना शादी के बारे में, एक साक्षात्कार में जाकिर ने कहा, एंटोनिया कलात्मक यात्रा में मेरी भागीदार थीं। उन्होंने मेरे अस्त-व्यस्त, भ्रमणशील जीवन में स्थायित्व लाया। उस बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने बताया था कि हमारे खानदान में, यह पहली मिश्रित शादी थी। इसलिए मेरे पिता से ज़्यादा, मेरी माँ परेशान थी, उनके लिए एक विदेशी महिला को अपनी बहु के रूप में अपनाना बहुत मुश्किल था। अंततः परंपरा के बजाय व्यक्ति के महत्व को पहचानते हुए उनकी माँ ने एंटोनिया को अपना लिया। उनकी बेटियाँ, अनीसा और इसाबेला, एक ऐसे घर में पली-बढ़ीं जहाँ कला और परंपरा का अतुलनीय संगम हर पल सांस लेता है। अनीसा ने यूसीएलए से स्नातक किया है और वह एक फिल्म निर्माता हैं। इसाबेला मैनहट्टन में नृत्य की पढ़ाई कर रही हैं।

संगीत की दुनिया में बड़ी सफलता हासिल करने और एक बड़ी हस्ती बनने के बावजूद, वे विनम्र और जमीन से जुड़े रहे। उन्होंने कभी भी अपनी प्रसिद्धि या स्थिति को अपने आचरण पर हावी नहीं होने दिया; वह हमेशा अपने विनम्र स्वभाव के लिए जाने जाते थे। लोकप्रिय चाय ब्रांड “ताज महल” के विज्ञापन ने उन्हें व्यापक प्रसिद्धी दिलाई थी लेकिन जाकिर हुसैन कभी भी नखरे या अहंकार में लिप्त नहीं रहे। वो अपनी कला और काम को सबसे ऊपर रखते थे। हरिदास वटकर 18 साल से भी ज़्यादा समय से हुसैन के तबले बना रहे हैं। हरिदास ने बताया कि उन्होंने तबला बनाना इसलिए सीखा ताकि वे हुसैन के लिए ख़ास तौर पर तबले बना सकें। मंच से परे जीवन में हुसैन को कविता, क्रिकेट और टेनिस पसंद था, और रोजर फेडरर उनके पसंदीदा व्यक्तित्व में से एक थे। लोगों को सबसे ज़्यादा था उनका शांत, मौज-मस्ती करने वाला और मिलनसार व्यक्तित्व। उनमें हर किसी से जुड़ने की अद्भुत क्षमता थी, चाहे वे साथी संगीतकार हों, प्रशंसक हों या आम व्यक्ति।

16 दिसंबर सोमवार की सुबह, 73 वर्ष की आयु में उस्ताद का सैन फ्रांसिस्को के एक अस्पताल में निधन हो गया। इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस, एक पुरानी फेफड़ों की बीमारी उनकी मृत्यु का कारण बनी। उनकी मृत्यु ने कभी नया भरने वाला एक बड़ा शून्य छोड़ दिया है, लेकिन उनका संगीत उन्हें सदैव जीवित रखेगा। एक तबला वादक और भारतीय शास्त्रीय संगीत के अग्रदूत के रूप में जाकिर हुसैन की विरासत आने वाली पीढ़ियों को हमेशा प्रेरित करेगी। सर्वकालीक महान कलाकार के निधन पर उनके प्रशंसकों के साथ तबला भी जार-जार रो रहा है।

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