Homeसोचने वाली बात/ब्लॉग‘अजातशत्रु’ अटल: राजनीति के मरुस्थल में संवेदना की शीतल छांव

‘अजातशत्रु’ अटल: राजनीति के मरुस्थल में संवेदना की शीतल छांव

राजकुमार जैन

स्मार्ट हलचल|भारतीय राजनीति के फलक पर कुछ नाम कालजयी हस्ताक्षरों की तरह अंकित हो जाते हैं, जिन्हें न समय की धूल धुंधला सकती है और न ही विचारधाराओं की संकीर्ण दीवारें बांध सकती हैं। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसा ही विरल नाम है। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर की साधारण गलियों से शुरू हुआ उनका सफर, रायसीना हिल्स के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचा, लेकिन इस लंबी यात्रा में उनके भीतर का ‘फक्कड़ कवि’ कभी राजनीति के दांव-पेंचों में गुम नहीं हुआ। आज उनकी 100वीं जयंती पर देश उस महानायक को स्मरण कर रहा है, जिसने सिखाया कि सत्ता केवल संख्या बल का खेल नहीं, बल्कि मर्यादा और संवाद का अनुष्ठान है।
शब्द जिनके सारथी थे : अटल जी का व्यक्तित्व विरोधाभासों का एक सुंदर समन्वय था। वे एक तरफ वज्र के समान कठोर निर्णय लेने वाले राष्ट्रनायक थे, तो दूसरी तरफ कुसुम के समान कोमल हृदय कवि। उनके भाषणों में जो जादुई ठहराव था, वह केवल वक्तृत्व कला का हिस्सा नहीं था, बल्कि वह शब्दों को तौलने और सत्य को संप्रेषित करने की साधना थी। 1957 में जब युवा अटल पहली बार संसद पहुँचे, तो उनके ओजस्वी तर्कों ने प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी, “यह लड़का एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा।” शेष इतिहास गवाह है।
मर्यादा और मूल्यों की राजनीति : आज के दौर में जब राजनीतिक विमर्श में कटुता और व्यक्तिगत आक्षेपों की भरमार है, अटल जी का स्मरण एक शीतल बयार की तरह महसूस होता है। वे सदन में प्रखर विरोधी थे, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में उनके मन में विरोधियों के प्रति भी अगाध सम्मान था। 1971 के युद्ध में भारत की विजय पर उन्होंने वैचारिक मतभेदों को किनारे रखकर इंदिरा गांधी की खुले मन से प्रशंसा की थी। उनका स्पष्ट मानना था कि मतभेद लोकतंत्र की शक्ति हैं, लेकिन ‘मनभेद’ राष्ट्र की कमजोरी।
सत्ता के प्रति उनकी विरक्ति और राष्ट्र के प्रति उनकी आसक्ति का सबसे जीवंत उदाहरण वह क्षण था, जब केवल एक मत से उनकी सरकार गिर गई थी। उस समय उन्होंने विचलित हुए बिना मुस्कुराते हुए कहा था, “सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, मगर ये देश रहना चाहिए।” यह वाक्य मात्र एक बयान नहीं, बल्कि उनके जीवन का वह मूल दर्शन था जिसे उन्होंने अंतिम सांस तक जिया।
कूटनीति: मखमली दस्ताने में फौलादी हाथ : अटल जी की छवि एक ‘उदारवादी’ नेता की थी, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न पर वे रत्ती भर भी झुकने को तैयार नहीं थे। 1998 का पोखरण परमाणु परीक्षण उनकी उसी लौह-इच्छाशक्ति का परिचायक था। दुनिया के ताकतवर देशों के प्रतिबंधों और अमेरिकी दबाव की परवाह किए बिना उन्होंने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बनाया। वैश्विक मीडिया, विशेषकर ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ ने तब लिखा था कि वाजपेयी ने भारत की वैश्विक स्थिति को सदा के लिए बदल दिया है।
अटल जी केवल शक्ति के उपासक नहीं, बल्कि शांति के अग्रदूत भी थे। उन्होंने ‘सदा-ए-सरहद’ बस सेवा के जरिए पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। लाहौर की गलियों में जब वे उतरे, तो पाकिस्तानी अवाम उनके मुरीद हो गई। वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने यहां तक कह दिया था कि “वाजपेयी जी आप अगर पाकिस्तान में चुनाव लड़ें, तो वहां भी जीत जाएंगे।” हालांकि, जब इसी शांति के बदले कारगिल में विश्वासघात मिला, तो उन्होंने सैन्य शक्ति का वह प्रलयंकारी स्वरूप भी दिखाया जिसने घुसपैठियों के छक्के छुड़ा दिए।
संगठन का वटवृक्ष और फक्कड़पन : आज भारतीय जनता पार्टी जिस सुदृढ़ वटवृक्ष के रूप में खड़ी है, उसकी जड़ों को अटल जी ने अपने पसीने से सींचा था। जनसंघ के दौर में जब संसाधन सीमित थे, तब वे साइकिलों, बैलगाड़ियों और रेल की जनरल बोगियों में सफर करते हुए संगठन को खड़ा कर रहे थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनका ‘ग्वालियर वाला फक्कड़पन’ बरकरार रहा। दोस्तों के साथ चाट-पकौड़ी का आनंद लेना हो या पराजय के बाद “हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा” का संकल्प लेना, उन्होंने पद को कभी अपने सहज व्यक्तित्व पर हावी नहीं होने दिया।
एक जीवंत विरासत : अटल बिहारी वाजपेयी केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि भारत की साझी संस्कृति और लोकतांत्रिक शुचिता के प्रतीक थे। उन्होंने ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ का जो मंत्र दिया, वह आज भी कश्मीर समस्या के समाधान का सबसे मानवीय मार्ग है। उनके लिए राजनीति ‘सत्ता का गलियारा’ नहीं, बल्कि ‘सेवा का मार्ग’ थी।
उनकी जन्म जयंती पर यह विचार करना आवश्यक है कि क्या हम उस मर्यादा और संवाद की परंपरा को सहेज पा रहे हैं जो अटल जी की विरासत थी? वे अक्सर कहते थे, “मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं।” सत्य तो यह है कि अटल जी कहीं गए ही नहीं हैं। वे अपने कविता के छन्दों में, संसद की मर्यादाओं में और ‘राष्ट्र प्रथम’ के उस विचार में सदैव जीवित रहेंगे जो भारत की चेतना का आधार है।

स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर 31 जनवरी 2025, Smart Halchal News Paper 31 January 2025
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