मुकेश खटीक
मंगरोप।यह औरत के अस्तित्व की बात है—वही अस्तित्व,जिसकी रक्षा के लिए दशकों से संघर्ष जारी है। एक समय था जब बेटियां कोख में ही कुचल दी जाती थीं।समाज ने विरोध किया,आवाज़ें उठीं,आंदोलन हुए,और बेटी बचाओ जैसे अनेक कानून बने।धीरे-धीरे हालात बदले और वही बेटियां पढ़-लिखकर अपने माता-पिता का मान-सम्मान बढ़ाने लगीं।बेटियां घर की“लक्ष्मी”कही जाने लगीं—पिता का गुरूर और मां की ममता का सार बन गईं।लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सामाजिक परिवेश में एक नई और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है।शिक्षा और आधुनिकता के दौर में जहां बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश हो रही है,वहीं कुछ जगहों पर बेटियां अपने परिवार के विरोध में जाकर प्रेम विवाह या भागकर शादी करने जैसे कदम उठा रही हैं। इससे समाज में एक नया असमंजस और असहजता का माहौल बन गया है।
समाज का बदलता चेहरा
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि“समाज में आजादी का मतलब अनुशासन से अलग होकर देखा जाने लगा है।”आज की पीढ़ी सोशल मीडिया और इंटरनेट के युग में तेजी से सोच बदल रही है।वहीं ग्रामीण इलाकों में परंपरागत विचारधाराएं अब भी मजबूत हैं।ऐसे में पीढ़ियों के बीच सोच का टकराव बढ़ता जा रहा है।
मंगरोप क्षेत्र सहित आसपास के कस्बों में पिछले कुछ समय में ऐसे कई मामले सामने आए हैं,जहां युवतियों ने घरवालों की मर्जी के खिलाफ जाकर विवाह किए।इन घटनाओं ने न केवल परिवारों को मानसिक रूप से तोड़ा,बल्कि समाज में यह सवाल खड़ा कर दिया कि आखिर“आधुनिकता”की दिशा में बढ़ते कदम, पारिवारिक संस्कारों को कहां ले जा रहे हैं।
माता-पिता की चिंता
कस्बे के एक वरिष्ठ शिक्षक ने कहा—“हम बेटियों को आगे बढ़ाना चाहते हैं पर आजकल कई बार स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच की रेखा धुंधली हो गई है।”कई अभिभावक कहते हैं कि अब बेटियों पर उतना नियंत्रण या विश्वास जताना कठिन होता जा रहा है,जितना पहले था। यह स्थिति परिवारों को भीतर से तोड़ रही है।
विशेषज्ञों की राय
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार,इस परिवर्तन के पीछे भावनात्मक परिपक्वता की कमी और समाज में संवाद की कमी मुख्य कारण हैं।जब घरों में खुला संवाद नहीं होता,तो युवा वर्ग बाहरी प्रभावों से जल्दी प्रभावित हो जाता है।साथ ही विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि “हर बेटी के निर्णय को विद्रोह की नजर से नहीं देखना चाहिए।”कई मामलों में परिवारों की जड़ सोच और बेटियों की स्वतंत्र सोच के बीच संतुलन की कमी भी ऐसी स्थितियां पैदा करती है।
कानून और समाज दोनों की भूमिका जरूरी
कानून ने बेटियों को अधिकार तो दिए हैं,पर समाज को जिम्मेदारी निभानी होगी।“बेटी बचाओ”से आगे बढ़कर अब“बेटी समझाओ”और“बेटी को सही दिशा दो”जैसे प्रयासों की जरूरत है।परिवारों को संवाद की दीवारें गिरानी होंगी और बेटियों को यह एहसास दिलाना होगा कि स्वतंत्रता का अर्थ अनुशासन के साथ चलना भी है।
निष्कर्ष
समाज को फिर से सोचने की जरूरत है—कि हमने बेटियों को जो आजादी दी है,वह उन्हें सशक्त बना रही है या उलझा रही है?यह समय है जब परिवार,समाज और बेटियां—तीनों मिलकर एक नए संतुलन की ओर कदम बढ़ाएं,ताकि “बेटी” फिर से अस्तित्व की गरिमा का प्रतीक बन सके,न कि असमंजस का प्रतीक।
अगर इस लेख से प्रेरित होकर एक भी बेटी ने अपने आधुनिकता की कुसंस्कृति में रंगने वाले विचारों को बदला तो हमारा घंटों तक एकांत में बैठकर मनन और चिंतन करके लिखा हुआ लेख साकार हो जाएगा।


