भीलवाड़ा । होली से जुड़ी एक अनूठी परंपरा का रंग शीतला सप्तमी के मौके पर शुक्रवार को भीलवाड़ा में देखने को मिलेगा । यहां परंपरागत तौर पर प्रतिवर्ष होली शीतला सप्तमी पर ही खेली जाती है । इस मौके पर मुर्दे की सवारी भी निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए आसपास के कई जिलों के लोग भी यहां पहुंचते हैं । यह परंपरा 425 सालों से निभाई जा रही है । मुर्दे की सवारी होली के 7 दिन बाद निकाली जाती है और अनूठे अंदाज में यहां यह पर्व मुर्दा महोत्सव के रूप में मनाया जाता है ।
ऊंट-घोड़े पर सवार होकर उड़ाते हैं अबीर गुलाल
शव यात्रा चितौड़ वालों की हवेली से शुरू होती है, और पुराने शहर में बाजारों से होती हुई बहाले में जाकर पूरी होती है । इस यात्रा से एक दिन पहले भैंरूजी की इलाजी की प्रतिमाओं की पूजा की जाती है । भीलवाड़ा की गलियों में ढोल-नगाड़ों के साथ ऊंट और घोड़े पर सवार होकर अबीर-गुलाल उड़ाते हुए चलते हैं ।

महिलाओं का प्रवेश रहता है निषेध
इस यात्रा में महिलाओं का प्रवेश निषेध रहता है । रास्ते में कई बार वह जिंदा आदमी अर्थी से उठने का प्रयास भी करेगा, लेकिन लोग उसे जलाने के लिए पहुंच जाते हैं । इसके बाद भी वह अर्थी से भाग जाता है । चित्तौड़ वालो की हवेली से मुर्दे की सवारी को निकाला जाएगा । शहर के लोगों ने बताया कि मुर्दे की सवारी निकालने की परम्परा मेवाड़ रियासत समय से चली आ रही है । इस मुर्दे को लोक देवता ईलोजी के रूप में बताया जाता है और इसकी सवारी शहर में निकाली जाती है ।
बुराइयों का अंतिम संस्कार कर देने की संदेश
यहां के स्थानीय बुजुर्ग लोग बताते हैं कि भीलवाड़ा में दशकों से इलाजी की डोल निकाली जाती है । कुछ लोग ऐसा भी बताते हैं-शहर में रहने वाली गेंदार नाम की एक वैश्या ने इस परंपरा की शुरूआत की थी । गेंदार की मौत के बाद स्थानीय लोग अपने स्तर पर मनोरंजन के लिए यह यात्रा निकालने लगे, संदेश था कि अपने अंदर की बुराइयों को निकालकर उनका अंतिम संस्कार कर देना ।वही कुछ लोग बताते है की मेवाड़ के तत्कालीन राजा के किसी परिजन की होली त्योहार पर मौत होने के बाद होली नहीं मनाई गई । उसके बाद से मेवाड़ में होली का त्योहार चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि यानी रंग सप्तमी के दिन होली खेली जाती है । यह यात्रा हंसी ठिठोली के बीच निकाली जाती है ।