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♦हिंदी काव्य जगत के कवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखने वाले कवि सूरदास जी की रचनाएं,Biography of Surdas

भगवान श्री कृष्ण में गहरी आस्था और विश्वास♦♦

सूरदास जी हिन्दी साहित्य के सर्वोत्तम और उच्च कोटी के महाकवि थे। जिनका भगवान श्री कृष्ण में गहरी आस्था और विश्वास था। वे हमेशा श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे, उन्होंने अपनी भक्ति भाव को अपने कृतियों में शानदार तरीके से दर्शाया है।सूरदास जी भक्ति काल के सगुण धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। सूरदास जी की रचनाओं को जो भी पढ़ता है, श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे बिना नहीं रह पाता है।सूरदास जी ने अपनी कृतियों में श्री नाथ जी के अद्भुत एवं सुंदर स्वरुपों का वात्सल्य, श्रंगार और शांत रस में अतिसुंदर वर्णन किया है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी कृतियों श्री कृष्ण की लीलाओं और उनकी महिमा का दिल को छू जाने वाला मार्मिक वर्णन किया है।

सूरदास का जीवन परिचय

सूरदास जी का जन्म सन् 1478 ई. (संवत् 1535 वि.) में आगरा से मथुरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित रुनकता नामक गाँव में हुआ था। डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार इनका जन्म दिल्ली के निकट ’सीही’ नामक ग्राम में एक ’सारस्वत ब्राह्मण’ परिवार में हुआ था।

सूरदास जी के गुरु का नाम वल्लाभाचार्य था। वल्लाभाचार्य जी से सूरदास ने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण (1509-10 ई.) में पारसोली नामक गाँव में ली थी।

भक्ति पद्धति प्रारम्भ में ’दास्य’ एवं ’विनय’ भाव पद्धति से लेखन कार्य करते थे, परन्तु बाद में गुरु वल्लभाचार्य की आज्ञा पर इन्होंने ’सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य’ भाव पद्धति को अपनाया।

पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु बल्लभाचार्य जी इनकी प्रतिभा से बहुत ही प्रभावित थे अतः आपकी नियुक्ति श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तनिया के रूप में कर दी।

महाप्रभु बल्लभाचार्य के पुत्र विठ्ठलनथ द्वारा ‘अष्टछाप’ की स्थापना की और अष्टछाप के कवियों में ‘सूरदास’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया।

इस प्रकार आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर प्रभु श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की सर्जना करते थे और उनका गायन अत्यन्त मधुर स्वर में करते थे।

महात्मा सूरदास जन्मान्ध थे, यह अभी तक विवादास्पद है, सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध द्वारा इतना सजीव और उत्तम कोटि का वर्णन नहीं किया जा सकता।

एक किंवदन्ती के अनुसार, वे किसी स्त्री से प्रेम करते थे, परन्तु प्रेम की सम्पूर्ति में बाधा आने पर उन्होंने अपने दोनों नेत्रों को स्वयं फोड़ लिया। परन्तु जो भी कुछ तथ्य रहा हो, हमारे मतानुसार तो सूरदाब में ही अन्धे हुए हैं। वे जन्मान्ध नहीं थे।

सूरदास जी की मृत्यु सन् 1583 ई. (1640 वि.) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुई थी।

कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानेपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

सूरदास की रचनाएँ

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है।

इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त सूरसागर सार, प्राणप्यारी, गोवर्धन लीला, दशमस्कंध टीका, भागवत्, सूरपचीसी, नागलीला, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। वैसे तो इनकी केवल तीन रचनाओं के प्रमाण है, बाकि किसी का प्रमाण नहीं है।

  1. सूरसागर
  2. सूरसारावली
  3. साहित्य लहरी

1. सूरसागर

श्रीमद्-भागवत के आधार पर ‘सूरसागर‘ में सवा लाख पद थे। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग सात हज़ार पद ही उपलब्ध बताये जाते हैं, ‘सूरसागर’ में श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, उद्धव-गोपी संवाद और गोपी-विरह का बड़ा सरस वर्णन है।

सूरसागर के दो प्रसंग “कृष्ण की बाल-लीला’और” भ्रमर-गीतसार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सूरसागर की सराहना डॉक्टर हजारी प्रसाद ने भी अपनी कई रचनाओ में की है। सम्पूर्ण ‘सूरसागर’ एक गीतिकाव्य है, इसके पद तन्मयता से गए जाते हैं, यही ग्रन्थ इनकी कृति का स्तम्भ है।

2. सूर-सारावली

सूर-सारावली में 1107 छन्द हैं, इसे ‘सूरसागर’ का सारभाग कहा जाता है, यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली” गीत के रूप में रचित है। इसकी टेक है।

खेलत यह विधि हरि होरी हो,
हरि होरी हो वेद विदित यह बात।

इसका रचना-काल संवत् 1602 वि0 निश्चित किया गया है। सूरसारावली में कवि ने क्रिष्ण विषयक जिन कथात्मक और सेवा परक पदो का गान किया उन्ही के सार रूप मैं उन्होने सारावली की रचना की।

3. साहित्य लहरी

साहित्यलहरी 118 पदों की एक लघु रचना है। इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार इनका नाम ‘सूरजदास’ है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है।

इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह 1607 विक्रमी संवत् में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रन्थ विशुद्ध शृंगार की कोटि में आता है।

Q.1 क्या सूरदास जन्म से अंधे थे?

सूरदास के जन्मांध होने के विषय में अभी मतभेद है। सूरदास ने तो आपने आप को जन्मांध बताया है। लेकिन जिस तरह से उन्होंने श्री कृष्ण की बाल लीला और शृंगार रूपी राधा और गोपियों का सजीव वर्णन किया है।

आँखों से साक्षात देखे बगैर नहीं हो सकता, विद्वानों का मानना है कि वह जन्मांध नहीं थे, हो सकता है कि उन्होंने आत्मग्लानीवश, लाक्षणिक रूप से अथवा किसी और कारण अपने आप को जन्मांध बताया हो।

Q.2 सूरदास के अंधे होने की कहानी क्या हैं?

सूरदास (मदन मोहन) एक बहुत ही सुन्दर और तेज बुद्धि के नवयुवक थे वह हर दिन नदी के किनारे जा कर बैठा करते थे और गीत लिखा करते थे। एक दिन एक ऐसा वाक्या हुआ जिसने उसका मन को मोह लिया।

एक सुन्दर नवयुवती नदी किनारे कपड़े धो रही थी, मदन मोहन का ध्यान उसकी तरफ़ चला गया। उस युवती ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया की वह कविता लिखना भूल गए और पुरा ध्यान लगा कर उस युवती को देखने लगे। उनको ऐसा लगा मानो यमुना किनारे राधिका स्नान कर के बैठी हो।

उस नवयुवती ने भी मदन मोहन की तरफ़ देखा और उनके पास आकर बोली आप मदन मोहन जी हो ना? तो वह बोले, हाँ मैं मदन मोहन हूँ। कविताएँ लिखता हूँ और गाता हूँ आपको देखा तो रुक गया। नवयुवती ने पूछा क्यों? तो वह बोले आप हो ही इतनी सुन्दर। यह सिलसिला कई दिनों तक चला।

उस सुन्दर युवती का चेहरा सूरदास के सामने से नहीं जा रहा था। एक दिन वह मंदिर में बैठे थे तभी वहाँ एक शादीशुदा स्त्री आई और कुछ समय बाद जाने लगी तो मदन मोहन उनके पीछे-पीछे चल दिए।

जब वह उसके घर पहुँचे तो उसके पति ने दरवाज़ा खोला तथा पूरे आदर सम्मान के साथ उन्हें अंदर बिठाया।
फिर मदन मोहन ने दो जलती हुए सिलाया मांगी तथा उसे अपनी आँख में डाल दी। इस तरह मदन मोहन बने महान कवि सूरदास।

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