चुनौती-अमेरिका के ‘टैरिफ वार’ के दबाव में आकर यदि भारत अमेरिकी डेयरी उत्पादों के लिए भारतीय बाज़ार खोल देता है तो समूचा सहकारिता और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का ढांचा चरमरा जाएगा।
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भारत के सहकारिता आंदोलन पर घातक प्रहार होगा अमेरिका का ‘ब्लड मील’
-हरीश शिवनानी
स्मार्ट हलचल|किसी शक्तिशाली, साधन-सम्पन्न और प्रभुत्ववादी देश का अहंकारी,सनकी राष्ट्राध्यक्ष यदि अपनी निजी खुन्नस में अतार्किक, अव्यावहारिक और अनर्थकारी निर्णय दूसरे देशों पर थोपने पर आमादा हो जाए तो स्थिति गंभीर और सतर्क, सजग रहने जैसी हो जाती है। अमेरिका ने भारत के लिए यही स्थिति उत्पन्न कर दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत द्वारा उसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ सीज़फायर का (झूठा) श्रेय न देने और नोबल पुरस्कार की संस्तुति न करने और अमेरिकी डेयरी उत्पादों के लिए बाज़ार न खोलने से खिन्न होकर भारत पर अत्यधिक टैरिफ थोप दिए हैं। यह भारत में बरसों से बनाए गए सहकारिता आंदोलन और किसानों के लिए चुनौतीपूर्ण समय है।
भारत का डेयरी उद्योग ग्रामीण विकास और किसानों की आजीविका का प्रमुख स्रोत भी है। सहकारी आंदोलन के माध्यम से विकसित यह उद्योग, विशेष रूप से अमूल, मदर डेयरी और अन्य कई ब्रांडों के जरिए, दुनिया में अपनी पहचान बना चुका है; लेकिन पिछले कुछ समय में अमेरिका द्वारा अपने डेयरी उत्पाद भारत पर आयात करने के लिए दबाव डाल रहा है। भारत ने विश्व व्यापार संगठन में इसे ‘ट्रेड बैरियर’ बताते हुए सख़्त विरोध किया है और इसके आयात की मंजूरी देने से स्पष्ट इनकार कर दिया है। एक मुख्य कारण यह है कि यदि अमेरिकी ‘ब्लड मील’ वाले डेयरी उत्पादों के लिए भारतीय बाज़ार खोल दिए तो सस्ते अमेरिकी उत्पाद भारतीय बाजार पर कब्जा कर लेंगे, जो भारतीय सहकारी उद्योग और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ढांचे पर घातक प्रहार करेंगे।
अमेरिकी डेयरी उद्योग उत्पादकता बढ़ाने के लिए गायों को खिलाए जाने वाले चारे में ‘ब्लड मील’, ‘बोन मील’ और अन्य पशु उप-उत्पादों का इस्तेमाल करता है। ‘ब्लड मील’ पशु रक्त, मृत पशुओं की हड्डियों और मांस से बनाया जाता है, जो प्रोटीन का सस्ता स्रोत है और गायों के दूध उत्पादन को बढ़ाता है। इन उत्पादों में ‘ब्लड मील’ इस्तेमाल होने के कारण इन्हें मांसाहारी माना जाता है, जो भारतीय संस्कृति और शाकाहारी परंपराओं के विपरीत है। यदि ये आयात बढ़े, तो भारत के सहकारी डेयरी उद्योग पर गंभीर खतरा मंडरा सकता है, जिससे करोड़ों किसान और दुग्धपालक प्रभावित होंगे और जिसका सीधा असर भारत के सहकारिता आंदोलन पर पड़ेगा।
भारत में सहकारी डेयरी आंदोलन की शुरुआत 1946 में गुजरात के आनंद जिले से हुई, जब किसानों ने मिलकर कायरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (अमूल) की स्थापना की। अमूल मॉडल ने किसानों को सीधे बाजार से जोड़ा, बिचौलियों को हटाया और उचित मूल्य सुनिश्चित किया। आगे चलकर1970 में शुरू हुए ऑपरेशन फ्लड (श्वेत क्रांति) ने इस आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाया। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) के तहत चलाए गए इस कार्यक्रम को तीन चरणों में व्यवस्थित रूप से नए सहकारी संघ जोड़े गए, जिससे कुल संख्या 73,000 हो गई। ऑपरेशन फ्लड ने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बनाया, जहां आज करीब आठ करोड़ किसान और पशुपालक जुड़े हैं।
यह आंदोलन न केवल आर्थिक रूप से सफल रहा, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम भी बना। सहकारी मॉडल ने जाति और लिंग भेदभाव को कम किया, महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता दी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया। आज भारत का डेयरी सेक्टर जीडीपी में लगभग चार प्रतिशत योगदान देता है; अब अमेरिका इस आंदोलन को चुनौती दे रहा है। भारत में ‘नॉन-वेज मिल्क’ भारतीय उपभोक्ताओं के लिए अस्वीकार्य है। ‘ब्लड मील’ न केवल सांस्कृतिक रूप से विवादास्पद है, बल्कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है। इसमें बैक्टीरिया या रोगाणु हो सकते हैं, जो दूध के माध्यम से मानव स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। ‘ब्लड मील’ युक्त अमेरिकी डेयरी आयात के खतरे बहुआयामी हैं। सबसे प्रमुख है आर्थिक खतरा। अमेरिकी उत्पाद सब्सिडी प्राप्त होते हैं, इसलिए वे सस्ते हैं। इनके आयात से भारत में दूध की कीमतें 15 फीसदी तक गिर सकती हैं, जिससे भारतीय किसानों और दुग्ध उत्पादकों को सालाना 1.03 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है। अनेक सहकारी संघ,जो छोटे किसानों पर निर्भर हैं, प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे। इससे लाखों सीमांत किसान विस्थापित हो सकते हैं।
दूसरा है सांस्कृतिक खतरा। भारत में लगभग 80 फीसदी आबादी शाकाहारी है और यहाँ दूध को पवित्र माना जाता है। ‘ब्लड मील’ युक्त दूध का आयात धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाएगा। यह ‘सांस्कृतिक ब्लासफेमी’ जैसा होगा। भारत का सहकारी मॉडल स्थानीय और टिकाऊ है, जो छोटे फार्म्स पर आधारित है। आयात से यह संतुलन बिगड़ जाएगा और सहकारी आंदोलन पर प्रभाव गहरा होगा। ऑपरेशन फ्लड ने जो किसानों को संगठित किया, आयात से वह सहकारी संघ कमजोर हो जाएंगे। निजी कंपनियां बढ़ेंगी, जो किसानों का शोषण कर सकती हैं। ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ेगी, और महिलाओं की भागीदारी कम होगी। भारत के लिए यह संतोष की बात है कि अमेरिका के दबाव से भारत सतर्क है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक रूप से घोषणा कर चुके हैं कि वे अमेरिकी दबाव के आगे भारत के किसानों के हितों से कोई समझौता नहीं करेंगे क्योंकि सहकारी मॉडल की रक्षा करना जरूरी है, ताकि किसान और दुग्ध उत्पादक सशक्त रहें। यदि भारत सरकार दबाव में आकर अमेरिका से डेयरी उत्पादों के आयात को मंजूरी दे देती है तो श्वेत क्रांति का सपना अधूरा रह जाएगा और सहकारिता आंदोलन पर घातक आघात होगा।