– डॉ सत्यवान सौरभ
(सुविधाओं की उपलब्धता ने जीवन आसान बनाया, पर सामुदायिक विश्वास, आत्मीयता और सामाजिक बंधन टूटने लगे हैं।)
स्मार्ट हलचल| सबसे बड़ी चुनौती है सामुदायिक बंधनों का क्षरण। गाँवों में जहाँ पड़ोसियों और रिश्तेदारों के बीच गहरे संबंध होते हैं, वहीं शहरों में रहने वाले लोग अक्सर अनजानेपन और दूरी का अनुभव करते हैं। गेटेड सोसाइटी और उच्च-आय वर्गीय कॉलोनियों ने सामाजिक जीवन को खंडित कर दिया है। लोग अपने छोटे-से घेरे में सिमट जाते हैं और “अन्य” के प्रति अविश्वास पनपने लगता है। यह प्रवृत्ति समाज में सामूहिक विश्वास और सहयोग की भावना को कमजोर करती है। शहरी जीवन का दूसरा बड़ा संकट है अकेलापन। भीड़भाड़ और व्यस्तता के बावजूद लोग व्यक्तिगत रूप से अलग-थलग पड़ जाते हैं।
महानगरों में लाखों लोग रहते हैं, परंतु अधिकांश अपने पड़ोसियों को भी नहीं पहचानते। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत शहरी भारतीयों ने स्वीकार किया कि वे खुद को अकेला महसूस करते हैं। यह आँकड़ा दिखाता है कि आधुनिक शहरी जीवन ने भले ही हमें भौतिक सुविधाएँ दी हों, परंतु भावनात्मक और सामाजिक रूप से हमें कमजोर किया है। तकनीक ने भी इस अकेलेपन को बढ़ाया है। स्मार्टफोन और सोशल मीडिया पर निर्भरता ने वास्तविक मानवीय बातचीत को सीमित कर दिया है। मेट्रो या बस में सफर करते हुए अक्सर लोग एक-दूसरे से संवाद नहीं करते, बल्कि मोबाइल स्क्रीन में डूबे रहते हैं।
शहरीकरण ने भारत के सामाजिक जीवन और मानवीय संबंधों को गहराई से प्रभावित किया है। यह केवल आर्थिक प्रगति का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा सामाजिक परिवर्तन भी है जिसने हमारे पारंपरिक रिश्तों, विश्वास और आपसी सहयोग की प्रकृति को बदल दिया है। शहरी जीवन की रफ्तार, अवसरों की विविधता और सेवाओं तक आसान पहुँच ने निश्चित ही नागरिकों को नए विकल्प दिए हैं, परंतु इसके साथ ही यह प्रक्रिया मानवीय संवेदनाओं और सामुदायिक रिश्तों को भी चुनौती देती रही है।
शहरों के विस्तार ने लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे अवसरों के करीब लाया। पहले जहाँ ग्रामीण भारत में इन सुविधाओं तक पहुँच कठिन थी, वहीं शहरी क्षेत्रों ने इन्हें आसान बनाया। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और कोलकाता जैसे महानगरों में विश्वस्तरीय अस्पताल, विश्वविद्यालय और सांस्कृतिक केंद्र मौजूद हैं। यह स्थान केवल सेवाएँ ही उपलब्ध नहीं कराते, बल्कि ज्ञान और विचारों के आदान-प्रदान के मंच भी बनते हैं। इसी वजह से शहरी जीवन को आधुनिक भारत का इंजन कहा जाता है। यहाँ के निवासी विभिन्न भाषाई, धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जिससे विविधता का अनुभव होता है और सहिष्णुता की भावना विकसित होती है।
साथ ही, शहरी जीवन में सांस्कृतिक समृद्धि और नागरिक चेतना भी प्रबल होती है। कला दीर्घाएँ, पुस्तकालय, रंगमंच, साहित्यिक सभाएँ और जनआंदोलन जैसी गतिविधियाँ शहरों की पहचान रही हैं। चाहे वह कोलकाता की अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स हो या दिल्ली का इंडिया हैबिटेट सेंटर—ये स्थान सामूहिक संवाद और रचनात्मकता को बढ़ावा देते हैं। इसके अतिरिक्त, बेंगलुरु जैसे शहरों में आईटी उद्योग और स्टार्टअप संस्कृति ने पेशेवर सहयोग और नेटवर्किंग की नई संभावनाएँ खोली हैं। नागरिक स्वयं भी संगठित होकर अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए आवाज़ उठाते हैं। गुरुग्राम की आवासीय कल्याण समितियों द्वारा कचरा प्रबंधन और जलभराव के खिलाफ अभियान इसका उदाहरण हैं।
लेकिन इन सब सकारात्मक पहलुओं के बीच शहरीकरण का एक दूसरा चेहरा भी है, जो कहीं अधिक गहन सामाजिक संकट की ओर इशारा करता है। सबसे बड़ी चुनौती है सामुदायिक बंधनों का क्षरण। गाँवों में जहाँ पड़ोसियों और रिश्तेदारों के बीच गहरे संबंध होते हैं, वहीं शहरों में रहने वाले लोग अक्सर अनजानेपन और दूरी का अनुभव करते हैं। गेटेड सोसाइटी और उच्च-आय वर्गीय कॉलोनियों ने सामाजिक जीवन को खंडित कर दिया है। लोग अपने छोटे-से घेरे में सिमट जाते हैं और “अन्य” के प्रति अविश्वास पनपने लगता है। यह प्रवृत्ति समाज में सामूहिक विश्वास और सहयोग की भावना को कमजोर करती है।
शहरी जीवन का दूसरा बड़ा संकट है अकेलापन। भीड़भाड़ और व्यस्तता के बावजूद लोग व्यक्तिगत रूप से अलग-थलग पड़ जाते हैं। महानगरों में लाखों लोग रहते हैं, परंतु अधिकांश अपने पड़ोसियों को भी नहीं पहचानते। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत शहरी भारतीयों ने स्वीकार किया कि वे खुद को अकेला महसूस करते हैं। यह आँकड़ा दिखाता है कि आधुनिक शहरी जीवन ने भले ही हमें भौतिक सुविधाएँ दी हों, परंतु भावनात्मक और सामाजिक रूप से हमें कमजोर किया है।
तकनीक ने भी इस अकेलेपन को बढ़ाया है। स्मार्टफोन और सोशल मीडिया पर निर्भरता ने वास्तविक मानवीय बातचीत को सीमित कर दिया है। मेट्रो या बस में सफर करते हुए अक्सर लोग एक-दूसरे से संवाद नहीं करते, बल्कि मोबाइल स्क्रीन में डूबे रहते हैं। यह प्रवृत्ति समाजशास्त्री जॉर्ज सिमेल की उस धारणा को सही साबित करती है जिसमें उन्होंने आधुनिक शहरों को “भीड़ में अकेलेपन” का प्रतीक कहा था।
साथ ही, शहरी जीवन की भीड़-भाड़ और संसाधनों की कमी ने तनाव और संघर्ष को भी जन्म दिया है। पानी, बिजली, यातायात और पार्किंग जैसे मुद्दों पर झगड़े आम हो गए हैं। दिल्ली जैसे शहरों में पार्किंग विवाद कई बार हिंसा तक पहुँच जाते हैं। वाहन प्रदूषण और सड़क दुर्घटनाएँ भी नागरिक जीवन की असुरक्षा को बढ़ाती हैं। पैदल चलने वालों के लिए सुरक्षित स्थान कम होते जा रहे हैं, जिससे साझा सार्वजनिक जीवन घटता जा रहा है। यह कमी सामाजिक पूँजी पर सीधा आघात करती है, क्योंकि खुले और सुरक्षित सार्वजनिक स्थल ही लोगों के बीच संवाद और सहयोग को जन्म देते हैं।
इस प्रकार, शहरीकरण ने भारत के सामाजिक पूँजी पर दोतरफा असर डाला है। एक ओर इसने शिक्षा, स्वास्थ्य, विविधता और सांस्कृतिक उन्नति के अवसर दिए, तो दूसरी ओर इसने रिश्तों को सतही, अस्थिर और अविश्वासी बना दिया। आर्थिक विकास की गति में हमने भावनात्मक और सामुदायिक जीवन को पीछे छोड़ दिया।
आवश्यक है कि शहरी नियोजन केवल भौतिक ढाँचे तक सीमित न रहे, बल्कि उसमें मानवीय संबंधों की गरिमा और सामुदायिक जीवन की बहाली को भी स्थान मिले। हमें ऐसे सार्वजनिक स्थल चाहिए जहाँ लोग सहजता से मिल सकें और संवाद कर सकें। आवासीय कल्याण समितियों को केवल प्रशासनिक इकाई न मानकर सामाजिक मेलजोल और सामुदायिक उत्सवों का मंच बनाया जाए। शहरों में त्योहारों, मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए, ताकि लोग एक-दूसरे के करीब आ सकें। साथ ही, सस्ते और समावेशी आवास की नीतियाँ तैयार हों, जिससे वर्ग आधारित विभाजन कम हो सके।
भारत का भविष्य निस्संदेह शहरी होगा, परंतु यह भविष्य तभी स्थायी और समृद्ध हो सकता है जब शहरीकरण केवल आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक पूँजी का भी संवाहक बने। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास की दौड़ में रिश्तों का ताना-बाना न टूटे। शहर तभी सच्चे अर्थों में प्रगतिशील बनेंगे जब वे न केवल समृद्धि और अवसर देंगे, बल्कि विश्वास, सहयोग और सामूहिक कल्याण की भावना को भी जीवित रखेंगे