(आलेख : बादल सरोज)
हाल के दौर – स्मार्ट हलचल| विशेषकर 2014 के बाद से संवैधानिक शासन प्रणाली में पतझड़ की जो बहार आई है, उसने सत्ता के चारों-आठों अंगों की ऐसी शल्यक्रिया की है कि शीराजा बिखरता ही चला जा रहा है। संघीय ढाँचे को तार-तार किया गया, हर संभव-असंभव तिकड़म से लोकतंत्र का अपहरण किया गया, न्याय पालिका को मातहत बनाने की सारी लज्जा और मान-मर्यादा लांघ कर जी-तोड़ कोशिशें की गयीं, सेना तक को नहीं बख्शा गया, चौथा खम्भा माने जाने वाले मीडिया का खम्भा ही उखाड़ कर उसे अस्तबल में खूंटे से बांध लिया गया।
शुरुआत शुरू से ही, मतलब ठीक ऊपर से हुई। संवैधानिक पदों का तो जैसे मखौल ही बना दिया। उनका जितना बेहिसाब अवमूल्यन और क्षरण किया गया, वह इन पदों पर बैठे किसी भी आत्मसम्मान वाले व्यक्ति के लिए बर्दाश्त के बाहर होता – मगर असाधारण अपमान सहनशक्ति और स्वाभिमान विहीन प्रजाति के व्यक्ति भी तैयार कर लिए गए। इस दौरान सम्प्रभु, लोकतान्त्रिक गणराज्य के ‘हम भारत के लोगों’ ने अत्यंत चौंकाने और काफी हद तक डराने वाले नजारों को देखा ; प्रधानमंत्री के आगे हाथ जोड़े, सर झुकाए देश के सर्वोच्च मुखिया राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति देखे, चारण मुद्रा में प्रशस्ति गान गाते सुप्रीम कोर्ट के जज देखे, कार्यपालिका के आगे लंबलेट होते बोबडे, गुसाईं, दीपक और अडानी मिश्रा और अपने घर में आरती उतारते, घंटरिया बजाते चंद्रचूड़ जैसे चीफ जस्टिस देखे। विपक्ष पर बमकते, गुर्राते और गरजते और हुक्मरानों के सामने मिमियाते, रिरियाते संसद, विधानसभाओं के सभापति और अध्यक्ष देखे । राजभवनों को कुटिल साजिशों के अन्तःपुर और संघीय प्रणाली के मूल्यों की परंपरा के लाक्षागृह बनाते उनमें बैठ फुफकारते राज्यपाल देखे। नालबद्ध से नालीबद्ध में बदलती नौकरशाही देखी। अच्छे दिनों के कौतुक और सुबह उठने से पहले बैंक खाते में 15 लाख रूपये जाने के एक ज़रा से जुमले के लोभ में क्या-क्या नहीं देखना पड़ा इस देश को!!
बहरहाल इस सबके बाद भी जगदीप धनखड़ को इस तरह धकियाये जाते हुए देखने की नौबत आ जायेगी, यह उनके बड़े से बड़े विरोधियो ने भी नहीं सोचा होगा। कोई सोचता भी तो क्यों और कैसे? ऊपर गिनाये महामहिम अगर महाराज के कमरबंध में जड़े हीरे और रतन थे, तो धनखड उन नवरत्नों में भी कोहिनूर थे। ऐसा कोई काम नहीं, जो उन्होंने अपनी सारी संवैधानिक हैसियत को गिराते हुए, किया न हो ; मर्यादाओ से फिसलने की ऐसी कोई नीचाई नहीं थी, जिसे उन्होने छुआ न हो। पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए जिस तरह की हरकतें उन्होने की, वे इसकी एक मिसाल हैं ; जो कुछ उन्होंने राजभवन में बैठकर कहा, उनमें से बहुत कुछ ऐसा भी था, जो जिस पार्टी – भाजपा – के भक्त के रूप में वे कह रहे थे, तब तक उस पार्टी के नेता और प्रवक्ता भी कहने की जुर्रत नहीं कर रहे थे। वे बैठे किसी भी भवन में हों, एजेंडा उनका सत्तापार्टी का निर्लज्ज अनुगमन और अपने संवैधानिक पद की हर सीमा तक उल्लंघन ही रहा। उनकी इसी ‘योग्यता’ के चलते प्रधानमंत्री मोदी की निजी पसंद पर उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया गया, ताकि राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में उनकी इस विलक्षण एजेंडाधारी योग्यता को विपक्ष और संविधान के लिए डंडाधारी के रूप में काम लाया जा सके। वही हुआ भी। जिन्होंने हाल के समय में संसद के दोनों सदनों की कार्यवाहियों को देखा है, वे जानते हैं कि दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने लोकतंत्र के इन दोनों सर्वोच्च मंचों का क्या हाल किया है। जगदीप धनखड़ ऊपरी सदन के मुखिया थे, इसलिए इसमें भी ऊपर रहने, इक्कीस ही रहने की कोशिश में रहे। भले उसके लिए राज्यसभा जैसे सदन की गरिमा धूल में क्यों मिलानी पड़ी हो। सिर्फ इतना ही नहीं, राज्यसभा के सभापति रहते हुए उन्होंने इतना सब किया ही नहीं, सदन के मंच पर आरएसएस की प्रशंसा में वह सब तक कहा, जिसे कहने का साहस अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर अडवानी तक, यहाँ तक कि ‘स्वयंसेवक’ प्रधानमंत्री मोदी भी अब तक नहीं कह पाए थे।
पिछली साल 31 जुलाई को उन्होंने धर्मनिरपेक्ष सविधान की धज्जियां उड़ाते हुए राज्य सभा में यहां तक कह डाला था कि “आरएसएस की आलोचना करना संविधान के खिलाफ है।” समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन द्वारा यूपीएससी और बाकी सरकारी निकायों में आरएसएस के लोगों को भरे जाने की बात कहे जाने पर बिफरते हुए कहा कि उनकी टिप्पणी रिकॉर्ड में नहीं जाएगी, क्योंकि “आरएसएस एक ऐसा संगठन है, जिसकी साख पर कोई सवाल नहीं उठता।” धनखड़ ने कहा, “मैंने इस सदन में जोर देकर कहा है कि आरएसएस की साख बेदाग है।” आरएसएस की स्तुति और चरण वन्दना में वे यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने इसे जो संघी खुद भी नहीं मानते, वह बता दिया और उसे “सर्वोच्च स्तर का वैश्विक थिंक-टैंक” तक करार दिया। अपनी इस प्रशस्ति को सदन के रिकॉर्ड का हिस्सा बनाते हुए बाकी कुछ भी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं किये जाने का आदेश भी सुना दिया। जब उन्हें बताया गया कि सदन अपने नियमों से चलता है, तो पेशे से वकील रहे और इस नाते क़ानून के ज्ञाता माने जाने वाले महामहिम सभापति – सह-उपराष्ट्रपति ने भविष्य में भी कोई संघ पर टिप्पणी न कर सके, इसके लिए नया नियम ही बना डाला। राज्यसभा के रिकॉर्ड के मुताबिक़ सभापति की आसंदी से उन्होने कहा कि ‘मैं यह नियम बनाता हूं कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है, जिसे इस राष्ट्र की विकास यात्रा में भाग लेने का पूरा संवैधानिक अधिकार है। इस संगठन की साख बेदाग है और इसमें ऐसे लोग शामिल हैं, जो निस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस संगठन के किसी सदस्य के राष्ट्र की विकास यात्रा में भाग न लेने पर आपत्ति जताना नियमों के विरुद्ध है। इसलिए मैं सदस्य को यह मुद्दा उठाने की अनुमति नहीं देता।” इससे पहले भी वे एक कार्यक्रम में कह चुके थे कि “वे पिछले 25 वर्षों से आर एस एस के प्रशंसक रहे हैं।” उन्होंने खुद की तुलना एकलव्य से की , जो समर्पण का प्रतीक है और अफ़सोस जताया कि संघ से औपचारिक रूप से नहीं जुड़ पाए। संसदीय लोकतंत्र और पद की गरिमा को दागदार करने वाली इतनी ‘शानदार’ सेवा पुस्तिका के बाद भी इस तरह से धकिया के बाहर खदेड़ दिया जाना – भले धनखड़ के साथ ही क्यों न हुआ हो – सवाल तो पैदा करता है।
एक तो इसलिए कि जितनी शिद्दत से उन्होंने वफादारी दिखाई थी, उतनी इज्जत से उन्हें निकाला नहीं गया। व्यक्ति के हिसाब से भी यह अनुचित है। हालांकि यदि वह देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठा हो, तो व्यक्ति की गरिमा का सवाल गौण हो जाता है, सवाल उस पद की गरिमा और इस तरह देश की गरिमा का हो जाता है। यूँ भी खुल्द से आदम का निकलना काल्पनिक प्रसंग है, बेआबरू करके निकाल जाने का पैमाना तो धनखड़ बन गए। कहते हैं कि न उनका विदाई भाषण होगा, न कोई प्रेस कांफ्रेंस करने की ‘इजाजत’ दी गयी है। न किसी ने हमदर्दी दिखाई, न इतनी सारी सेवा का व्यवहार चुकाते हुए कोई शाब्दिक सुश्रुषा ही की। ख़बरें तो यहाँ तक आयीं कि उस दिल्ली में, जिसमे सेवानिवृत्ति के बाद छह-आठ महीने तक पुराने मकान में रहने की मोहलत सरकारी कर्मचारी तक को मिल जाती है, उस दिल्ली में उपराष्ट्रपति भवन के रूप में मिला घर भी आनन-फानन में खाली कराने की चेतावनी दे दी गयी। वह भी तब, जबकि अभी कोई नया उपराष्ट्रपति भी नहीं बना है, जिसे मकान की दरकार हो, जबकि नए चीफ जस्टिस के पदभार संभाले महीनों गुजर जाने के बाद भी चन्द्रचूड़ हिलने तक को तैयार नहीं है। कुछ खबरों के मुताबिक़ तो देर रात इस्तीफा ‘मंजूर’ होते ही सरकारी रसोई भी बंद कर दी और कुछ घंटों पहले तक जो महामहिम थे, उन्हें सर्वेंट क्वार्टर्स से मंगाए खाने पर गुजारा करना पड़ा। इन सब खबरों में कितना सच है, कितनी गप्प, यह बाद में कभी लिखे जाने वाले संस्मरणों में – अगर वे लिखने और छपने दिए तो – पढ़ने में या कभी धनखड़ बोले, तो सुनने में आये या शायद न भी आये। फिलहाल जितना आया है, वह ही कम नहीं है ; सूत्र बताते हैं कि पहले दिन में राज्यसभा की चलती मीटिंग में सांसद और भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने विपक्षियों की कही एक भी बात रिकॉर्ड में न लेने का एलान किया और धनखड़ टुकुर-टुकुर ताकते रहे। उसके बाद देर रात तक एक-एक करके वे तीन मंत्री, जो दो दिन से स्थगित हो रही राज्यसभा की कार्यमंत्रणा बैठक – बिजनेस एडवाइजरी मीटिंग — में नहीं पहुंच रहे थे, वे उनके घर पहुंचे, उन्हें इस्तीफे के लिए समझाया — कुछ के मुताबिक़ हड़काया – अंत में उनके हाथ में लिखा-लिखाया, उन्ही के पैड पर छपा-छपाया उन्हीं का इस्तीफा थमा दिया गया। बस दस्तखत करने का काम शेष था, सो उन्होंने कर दिए। जो लाया था, वही गाड़ी रिवर्स करके सीधे राष्ट्रपति भवन पहुंचा और रिकॉर्ड फुर्ती के साथ मंजूरी का बयान जारी हो गया।
घटना असाधारण है, भारत के संसदीय इतिहास में पहली है, इसलिए कारणों को लेकर कयास और अनुमान लगाया जाना स्वाभाविक है। बताते हैं कि इस बार उपराष्ट्रपति सभापति के नाते कुछ नियमों पर चलने का मन बना रहे थे। सदन की कार्यवाही चलाने को लेकर विपक्षी सांसदों के साथ उनकी बातचीत, जिसे करना उनका काम भी है, जिम्मेदारी भी है, चल रही थी। इन्हें लेकर दो दिन पहले ही खुद मोदी एक सार्वजनिक आयोजन में धनखड़ के फर्शी सलाम के जवाब में ‘आजकल बहुत मीटिंग-मीटिंग खेल रहे हैं’ का ताना मार चुके थे। पहलगाम और सिन्दूर पर चर्चा टाली भी कैसे जा सकती थी। मगर असल मुद्दा बना इलाहाबाद और दिल्ली हाईकोर्ट के दो जजों के खिलाफ महाभियोग का मामला। भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों को हटाये जाने की एक प्रक्रिया निर्धारित की गयी। इसके मुताबिक़ संसद में महाभियोग लाकर ही उन्हें हटाया जा सकता था। इन दो जजों के खिलाफ महाभियोग आ चुके थे, जिनमें से एक को विचार करने तथा दूसरे को सदन में रखने के लिए सभापति के नाते धनखड़ मंजूर कर चुके थे। मोदी और कुनबे का इरादा उन्हें लोकसभा में रखवाने का था, ताकि लोकसभा अध्यक्ष के जरिये उन्हें तकनीकियत का शिकार बनाया जा सके। धनखड़ की यही बात उन्हें नागवार गुजरी और माननीय जज अभी तक माननीय बने हुए हैं, धनखड़ अमान्य और असम्माननीय हो गए।
याददिहानी के लिए बता दें कि दिल्ली हाई कोर्ट के जज न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा वे हैं, जिनके घर में लगी आग बुझाने जब फायर ब्रिगेड पहुंची, तो उसे एक कमरा सैकड़ों करोड़ रुपयों के नोट से अटा-पटा मिला। उनके घर से भारी मात्रा में नकदी बरामद हुई थी। कई बोरियों में जले और अधजले बड़े नोट्स भी जब्त किये गए थे। इस घटना ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को भी तत्काल कदम उठाने पर मजबूर कर दिया था। विपक्ष इन पर महाभियोग के लिए हस्ताक्षर इकट्ठा करके राज्यसभा के सभापति के पास पहुंचा था। यह पैसा किसका था, इसे लेकर जब तक सच्चाई सामने न आये, तब तक सिर्फ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं।
दूसरे जज इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव थे, जिन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के आयोजन में जाकर खुल्लमखुल्ला कहा था कि उन्हें “ये कहने में बिल्कुल गुरेज नहीं है कि ये हिंदुस्तान है। हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा। यही कानून है। आप यह भी नहीं कह सकते कि हाई कोर्ट के जस्टिस होकर ऐसा बोल रहे हैं। कानून तो भइया बहुसंख्यक से ही चलता है। परिवार में भी देखिए, समाज में भी देखिए। जहां पर अधिक लोग होते हैं, जो कहते हैं, उसी को माना जाता है।” इसी प्रवचन में उन्होंने ये भी कहा कि “कठमुल्ले’ देश के लिए घातक हैं।”
धनखड़ भूल गए कि ‘संघ गली अति सांकरी जा में दो न समाय’ का ज़माना है ; बिना मोदी की मर्जी और अनुमति के जिस सरकार और पार्टी में पत्ता तक नहीं खड़कता, उसमें महाभियोग चलाने की इजाजत देना कैसे स्वीकार किया जा सकता है। सर्वसत्तावाद की अति के इस दौर में अपने विवेक और मति के इस्तेमाल की सख्त मनाही है। यह बात जब बाकी सब को पता है, तो उन्हें तो खासकर मालूम होनी ही चाहिए थी।
यहाँ सवाल सिर्फ व्यक्ति धनखड़ या उनके किये-धरे का नहीं है – यहाँ सवाल संसदीय लोकतंत्र पर मंडरा रहे तानाशाही के घने, गहरे और आशंकाओं से भरे मेघों का है। तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के विदाई भाषण में असभ्य और अभद्र तानाकशी और उनकी मुस्लिम पृष्ठभूमि और विदेश सेवाओं में तैनाती का हवाला देकर स्वयं मोदी द्वारा की गयी कुटिल साम्प्रदायिक टिप्पणी आज भी भारत के संसदीय इतिहास में एक शर्मनाक अध्याय है। राज्यसभा में अंसारी को विदाई देते हुए अपनी विषाक्त टिप्पणी में मोदी ने कहा था कि “हो सकता है कि कार्यकाल के दौरान उनके अंदर कुछ छटपटाहट रही हो, लेकिन यह संकट आज के बाद नहीं रहेगा।“ सीधे-सीधे सांप्रदायिक टिप्पणी करते हुए यह भी कहा था कि “आपके कार्यकाल का बहुत सारा हिस्सा वेस्ट एशिया से जुड़ा रहा है बतौर डिप्लोमैट। उसी दायरे में जिंदगी के बहुत सारे आपके वर्ष गए। उसी माहौल में, उसी सोच में, उसी डिबेट में ऐसे लोगों के बीच रहे। वहां से रिटायर होने के बाद भी ज्यादातर काम वही रहा, चाहे माइनॉरिटी कमीशन हो या अलीगढ़ यूनिवर्सिटी हो। … लेकिन ये 10 साल पूरी तरह एक अलग तरह का जिम्मा आपके पास आया… हो सकता है कुछ छटपटाहट रही होगी आपके अंदर भी, लेकिन आज के बाद शायद आपको वैसा संकट नहीं रहेगा… मुक्ति का आनंद भी रहेगा… और अपने मूलभूत जो सोच रही होगी, उसके अनुसार कार्य करने, सोचने का और बात बताने का अवसर भी मिलेगा।’’ ध्यान रहे कि राज्यसभा के पदेन सभापति होने के नाते खुद हामिद अंसारी इस दौरान सदन का संचालन कर रहे थे। जो उस समय खामोश थे – वे आज इस उपराष्ट्रपति के अपमान के समय सकते में हैं। मगर न ख़ामोशी कारगर होती है, न ही सिर्फ चौंकना भर ही काफी होता है ; इस पूरे काण्ड में सिर्फ एक ही बात सही है और वह यह कि “स्वास्थ्य खराब है”, मगर उन जगदीप धनखड़ का नहीं, जिनका बताया गया है – भारत के लोकतंत्र की सेहत खराब है। बिहार में एसआईआर – सर – के नाम पर जो सुरसुरी दिख रही है, वह इसी का एक लक्षण है, समग्रता में यह बीमारी कहीं ज्यादा सांघातिक है।
संसदीय लोकतंत्र पर झपटते सांड को सींग से पकड़ना होता है। अनेक विपक्षी दलों ने धनखड़ काण्ड को इसी तरह से लिया है। इसमें निहित आशंकाओं को जनता के बीच भी उसी तरह ले जाना होगा। इसलिए कि लोकतंत्र किसी से मिला नहीं है, उसे लड़कर हासिल किया गया है। इसे और समावेशी बनाना है, तो पहले इसे बचाना होगा और यह काम भी लड़कर ही किया जा सकता है।