(जन्मदिन 3 दिसम्बर पर विशेष )
निमिषा सिंह
स्मार्ट हलचल/सन् 1962 का मई माह ,भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, राष्ट्रपति भवन छोड़कर बिहार राज्य के पटना स्थित सदाकत आश्रम जा रहे थे। उस समय उन्होंने जो उद्गार व्यक्त किए, वह काफी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा था मुझे राष्ट्रपति भवन में रहते हुए न तो विशेष प्रसन्नता का अनुभव होता था न ही छोड़ने का दुख अथवा विषाद ही हो रहा है।’ देश के प्रथम राष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद की योग्यता के कायल महात्मा गांधी भी थे जिन्हें राजेंद्र प्रसाद के व्यवहार बेहद प्रभावित करते थे।
विदेहराज जनक, गौतम और महावीर की धरती के लाल राजेन्द्र बाबू के लिए यह बात कितनी उपयुक्त थी, इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जीवन पर महात्मा गांधी और उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के विचारों का गहरा प्रभाव रहा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि गोपाल कृष्ण गोखले से मिलने के बाद ही उन्होंने आजादी के आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया। हालांकि उन पर परिवार की जिम्मेदारी थी, इसके बावजूद वे अपने घर वालों की अनुमति लेकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वह महात्मा गांधी के विचारों से जितने प्रभावित थे, महात्मा गांधी भी डॉ. राजेंद्र प्रसाद की योग्यता और सौम्य व्यवहार के उतने ही कायल थे।
15 जनवरी 1934 को जब भूकंप आया और अपार जन, धन की हानि हुई,उस समय वे अत्यंत दुर्बल और जर्जर स्वास्थ्य वाले थे, लेकिन लोगों ने उन्हें भूकंप पीड़ितों के बीच काम करते देखा। जब बिहार में भूकंप आया और उससे अपार धन,जन की हानि हुई,उस समय राजेन्द्र बाबू राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले में जेल में थे। तत्कालीन शासकों ने देखा कि पीड़ितों की सहायता का काम डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बिना नहीं हो सकता है, तब उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। 17 जनवरी 1934 को राजेन्द्र बाबू की अध्यक्षता में बिहार सेन्ट्रल रिलीफ कमिटी की स्थापना की गयी। पटना के एक्जीविशन रोड पर इसका कार्यालय बना और जयप्रकाश नारायण इसके प्रभारी बनाए गए। बिहार में दरभंगा,मुजफ्फरपुर और मुंगेर में काफी तबाही हुई। उस दौर में वे कब सोते और जागते यह कोई जान ही नहीं पाता था। 11 मार्च 1934 को महात्मा गांधी बिहार के दानापुर आए और फिर वहां से छपरा,
मुजफ्फरपुर,दरभंगा,मधुवनी,सीतामढ़ी,कटिहार, अररिया,फारविसगंज, भागलपुर और मुंगेर का दौरा किया। राजेन्द्र बाबू की सेवापरायणता,कर्मठता,संगठनशक्ति और ईमानदारी का जनमानस इतना प्रभाव पड़ा कि उनकी गिनती देश के चोटी के नेताओं में होने लगी।उनके कार्य से उपकृत देशवासियों ने उन्हें देशरत्न नाम से अलंकृत कर उनके प्रति आभार व्यक्त किया।
कांग्रेस में उनका खास स्थान था। संकट की स्थिति में वे ही काम आते थे।1936 में जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया, तो वातवरण में बड़ी गर्माहट थी। ऐसा लगता था कि कांग्रेस नरम दल और गरमदल में बंट जाएगी। तब सवाल उठा कि ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो दल को इस संकट से बचा सके। तब राजेन्द्र बाबू का नाम नेताओं के सामने आया। इसी तरह आचार्य कृपलानी ने जब त्याग पत्र दिया तो राजेन्द्र बाबू ने फिर उस उत्तरदायित्व वहन किया। इस प्रकार वे सिर्फ कांग्रेस के खेमे में ही नहीं, देशभर में अजातशत्रु के नाम से विख्यात थे।1946 में,जब वे अंतरिम सरकार में खाद्य मंत्री बने तो उनमें वहीं आत्मीयता और सादगी दिखी जिसे लोगों ने 1934 में देखा था।
संविधान परिषद के अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने जो दायित्व निभाया, वह सर्वविदित है। तीन साल के सतत प्रयत्नों के बाद जब भारतीय संविधान का निर्माण हुआ और भारत 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित हुआ, तो राजेन्द्र बाबू ही प्रथम राष्ट्रपति के पद पर सम्मानित हुए और बारह साल तक निरंतर उस पद की शोभा बढ़ाते रहे।
आम तौर पर सादगी पसंद, सौम्य और संतुलित व्यवहार रखने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ किसी की तकरार हो, यह बात हैरान करती है, पर बताया जाता है कि आजादी के ठीक बाद सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण और उसके उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल होने के मसले पर उनका नेहरू से वैचारिक मतभेद था। सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का फैसला 1947 में लिया गया था, जिसका कार्य 1951 में पूरा हुआ था। तब उद्घाटन समारोह के लिए डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भी आमंत्रित किया गया था।
नेहरू नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति इस कार्यक्रम में शामिल हों। पंडित नेहरू ने बंटवारे के बाद पैदा हुए हालात का हवाला देते हुए कहा था कि राष्ट्रपति को इस कार्यक्रम में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसके कई गलत अर्थ निकाले जाएंगे। लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सलाह नहीं मानी और वे सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल हुए।
उन्होंने वहां जो कुछ भी कहा, वह गौर करने वाला है। इसका जिक्र करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखा है, राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ में कहा था, ‘मैं एक हिंदू हूं, लेकिन मैं सभी धर्मों का आदर करता हूं। कई मौकों पर चर्च, मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारे भी जाता रहता हूं।’ उनकी इस बात में बहुत बड़ा संदेश छिपा था, जो देश में समरसता व भाईचारे के संदर्भ में बहुत बड़ा पैगाम थी और मौजूदा दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है।
सभी धर्मों और पंथों के प्रति उनके हृदय में सम्मान था। वे सच्चे अर्थो में पंथ-निरपेक्ष थे, लेकिन सनातन धर्म में उनकी अगाध श्रद्धा थी। वे कहते थे कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राज्य है। इसका अर्थ यह नहीं कि यह अनिवार्यत: नास्तिक राज्य या सदाचारविहीन राज्य है। राष्ट्रपति भवन में भी उन्होंने एक स्थान पर पूजा-मंडप बनवाया था। वहीं प्रतिदिन संध्या-वंदना, पूजा-अर्चना करते थे। समय-समय पर पंडित भी उसी स्थान पर जप-पाठ करते थे। राष्ट्रपति भवन को भारतीय स्वरूप देने के लिए भी वे सचेत थे। एक बार श्री हरेकृष्ण महताब ने उन्हें पत्र लिखकर कहा कि राष्ट्रपति भवन में भारत के महापुरुषों के चित्र होने चाहिए। 23 अक्टूबर, 1952 को राजेंद्र बाबू ने तत्परता से जवाब दिया और बताया कि ‘कई चित्रों के लिए आर्डर दे दिए गए हैं और कई आ भी गए हैं। अब आप जब यहां आएंगे तो कुछ को यहां की दीवारों पर पाएंगे।’
दूसरे कार्यकाल को पूरा करने के बाद 13 मई, 1962 को वे राष्ट्रपति पद छोड़ने वाले थे। इस अवसर पर 10 मई, 1962 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल विदाई समारोह आयोजित किया गया। सभा मंच पर राष्ट्रपति जी के साथ उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. जाकिर हुसैन, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ तथा सेठ गोविंद दास आदि उपस्थित थे। हजारों लोग इस सभा में मौजूद थे। अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद की ओर से जैन दर्शन और वांड्मय की कुछ पुस्तकें राजेन्द्र बाबू को भेंट करने के लिए उस दिन वहां सुबह पहुंचे थे। पुस्तक समर्पण के बाद राजेन्द्र बाबू ने कहा कि इतनी सारी अच्छी-अच्छी किताबें हमें दी गयी हैं। सभी को पढ़ने का लोभ होता है, पर अब समय कहां मिलेगा? जीवन की संध्या धुंधली पड़ रही थी। रामलीला मैदान में उनके आगमन पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनका स्वागत किया था। पद और सुविधाओं से राजेंद्र बाबू की अनासक्ति का एक और प्रमाण उनके उस विदाई समारोह में प्राप्त हुआ। आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि- ‘जेल का जीवन और राष्ट्रपति भवन का जीवन दोनो में एक ही प्रकार की समानता है। हां, अंतर केवल यह था कि जेल में हम बहुत से लोग साथ थे और हमारी देखभाल करनेवाला एक ही वार्डन था,किंतु राष्ट्रपति भवन में मैं अकेला था और मेेरी देखभाल करनेवाले बहुत से लोग थे। यहां तक कि मैं अपनी रूचि के अनुसार भोजन भी नहीं कर पाता था। मेरी पत्नी तो अक्सर कह बैठती थीं कि कहां आ गए,मैं चौका भी गाय के गोबर से नहीं लीप पाती। जिस प्रकार स्कूल से छुट्टी होने पर बालक की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं होता है,उसी प्रकार मैं यहां से जाने से प्रसन्न हूं।’ सदाकत आश्रम से आया था और आज वहीं जा रहा हूं। वहां मैं अपनी सुविधानुसार सब लोगों से मिल सकूंगा,कोई दिक्कत नहीं होगी।
राष्ट्रपति भवन में अपने सार्वजनिक जीवन की पाठशाला की अंतिम कक्षा को उत्तीर्ण करके उनके जैसा स्थितिप्रज्ञ व्यक्ति ही सदाकत आश्रम के साधारण आवास में रहने जा सकता है। उनका पूरा जीवन विरक्त का सा जीवन रहा।
दुर्भाग्य से वे अधिक दिन तक जीवित न रहे। 28 फरवरी, 1963 को उन्होंने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं। सचमुच सादगी और गरिमा का अद्भुत समन्वय थे देशरत्न डॉ.राजेंद्र प्रसाद। तभी तो आज भी उनका जीवन और उनके आदर्श हमारे पथ-प्रदर्शक बने हुए हैं।