स्मार्ट हलचल/आदरणीय महानुभावों आज मैं एक बहुत ही संवेदनशील विषय पर बात कर रही हुँ यह विषय अत्यंत ज्वलंत होने के साथ-साथ घर घर की कहानी है ……..शादियों का दौर आ चुका है और कहीं जीमते हुए तो कहीं राह चलते हुए एक गाना सुनाई दे जाता है…..बाबुल की दुवाएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले….यहाँ एक पिता अपनी बेटी को अपने घर से विदा कर पति को सौंप रहा हैं और उसे खुशी, आशीर्वाद के साथ विदा करते हुए वह परमपिता परमात्म ईश्वर से अरदास कर रहे है कि उसकी बेटी का नव दांपत्य जीवन खुशहाल बना रहें। जिस प्रकार उसने हंसते खिलखिलाते हुए पिता के आंगन में अपना अब तक जीवन बिताया है उसी प्रकार आगे का जीवन भी खुशहाल बना रहे। यहाँ संसार मतलब शादी-शुदा जीवन। पर यहाँ प्रश्न यह है कि क्या बेटी जब ससुराल के लिए विदा होती है तो क्या केवल दुआयें ही साथ ले जाती है तो जवाब होगा नहीं। उसे साथ ले जाना होता है कीमती वस्त्र, आभूषण, पैसा, गृहस्थी का सामान, गाड़ी और बंगला। वह खुद एक परिवार को छोड़कर दुसरे परिवार मे जाती है। उसे सभी अपरिचित लोगों को अपना परिवार मानना है। अपनी पहचान को समाप्त कर वह अपने पति की पहचान से जानी जायेगी। विवाह के साथ उसका पूरा जीवन बदलता है। इतना सब करते हुए भी क्या ससुराल में वह खुश रह पाती है…???
क्या लोगों की लालसाएँ नहीं बढ़ती ….पैसा मिला है तो पीछे कितने जीरो लगे है… आभूषण मिले है तो कितनी मात्रा में है…. गृहस्थी का सामान मिला है तब कुछ छूट तो नहीं गया….बढ़िया ब्राण्ड का है या नहीं…गाड़ी मिली है तो कितने की है… बंगला या ज़मीन मिली है तो कहाँ कहाँ है….???
भारतीय संस्कृति में विवाह और जीवन में आने वाली खुशियों को नसीब माना जाता है। अगर नसीब अच्छा तो बेटी ससुराल में खुश रहेगी और खराब रहा तो दुखी रहेगी । बस यही मनगढ़ंत छोटी सी परिभाषा लोगों ने जीवन की गढ़ ली। इस सोच की वजह से शादी एक जुआ बन गई है।अपनी गलतियो को हम नसीब या भाग्य का नाम देकर ढकेल देते है।
भारतीय सौलह संस्कारों में विवाह एक पवित्र संस्कार है। माता-पिता कन्यादान करते है। प्राचीन काल में विवाहोपरांत नव दम्पति अपना एक नया घर बसाते थे जिसे गृहस्थी कहते थे। विवाह संस्कार के दौरान नव दंपतियों के नव गृहस्थ जीवन की शुरुआत हेतु दान किया जाता है। जीवन गुजर-बसर हेतु सभी व्यक्ति जिनमें परिचित, रिश्तेदार, परिवारजन अपने श्रद्धा अनुसार थोड़ा-थोड़ा वस्तु या धन-दान करते थे। जिनसे उनकी गृहस्थी शुरुआती दौर में अच्छे से चल सकें। धीरे-धीरे यही परंपरा दहेज बन गई। दहेज अर्थात वधु पक्ष द्वारा वर पक्ष को धन या वस्तु भेंट करते हैं ।
दहेज के लोभी पद पैसा और ज़मीन के बल पर दहेज की मांग करते है।
सामाजिक रूतबा रखने के लिए अपने आप को अमीर दिखाते है वरना उन्हें भीख माँगनी पड़ती है और इस सामाजिक भीख को वह प्रतिष्ठा का नाम देते है। लेकिन वास्तविक तौर पर देखा जाए तो ये अंदरूनी गरीब ही होते है ।
कुछ लोग दहेज लेने के चक्कर में इतने शरीफ बनते हैं की समाज परिवार में अपने आप को ऐसे पेश करते हैं की जैसे वह दहेज के खिलाफ है। दहेज का ₹1 भी लेना पसंद नहीं करते। लेकिन अंदरुनी हकीकत यह होती है की उनकी लालसा अधिक से अधिक दहेज प्राप्त करने की रहती है। वह वधु पक्ष से धन लाने या सामान पर ऐसी क्रिया- प्रतिक्रिया करते हैं ताकि उन्हें दहेज ज्यादा से ज्यादा मिल सके। इस दहेज के लालच में एक बेटी या उसके परिवार को कई प्रकार के ताने देकर या उलहाने देकर आत्महत्या करने तक मजबूर कर देते हैं। बेटी आत्मनिर्भर न होने पर विकराल स्थितिया हो जाती है और आत्मनिर्भर हो तब भी ये दहेज लोभियों की लालसा और बढ़ जाती है। यह कुप्रथा एक कलंक है।
एक माता पिता अपने जिगर के टुकड़े को अपने से अलग एक अनजान व्यक्ति को सौंपते है….क्या ये त्याग तुम्हें कम लगता है???
जो तुच्छ वस्तुओं और धन के लालच में भूल जाते हो ?
क्या एक व्यक्ति का जीवनयापन बोझ लगता है ?
एक व्यक्ति तुम्हारे लिए अपना वजूद,अपना अस्तित्व समाप्त कर तुम्हारी जीवनरूपी नैया को खेने हेतु जीवनसाथी या हमसफ़र बनने के लिए खुशी खुशी तैयार होता है …कैसे तुम सब इस त्याग को अनदेखा कर सकते हो…???
जीवन यापन के लिए पैसा पद प्रतिष्ठा आवश्यक है लेकिन इन सब से ज्यादा जरूरी है खुशहाल ज़िन्दगी। अगर दुल्हन तुम्हारे साथ से खिलखिला उठे और हँसते हुए जीवन बीत जाये तो समझना तुमने इस धरती पर जन्म लेकर माँ वसुंधरा को निहाल कर दिया।
विवाह एक पवित्र संस्कार है दो आत्माओं का मिलन है, दो परिवारों का संगम है इसे दहेज की बलि मत चढ़ाइए। एक इंसान आपके लिए पूरा परिवार छोड़कर आता है और अपने आप को भूलकर तुम्हारे परिवार को अपना मान लेता है, पूरा जीवन समर्पित करता है तो इतनी तो लज्जा बनाए रखिये की उनसे दहेज की डिमांड न करें। श्रद्धावश जो दिया गया है उसे नतमस्तक होकर स्वीकार करे और जो इंसान तुम्हें मिला है उसका ख्याल रखे। सच मानिए जहाँ भूख न होकर सम्मान के साथ रिश्ते बनते है और निभाये जाते है वहाँ ईश्वर भी मेहरबान रहता है।
डाॅ.अरुणा गुर्जर