Homeराष्ट्रीय"शिक्षा का बाज़ार और कोचिंग की बढ़ती निर्भरता"

“शिक्षा का बाज़ार और कोचिंग की बढ़ती निर्भरता”

जब विद्यालय शिक्षण का केंद्र नहीं रहते, तो शिक्षा व्यापार बन जाती है।

डॉ. प्रियंका सौरभ

स्मार्ट हलचल|हर तीसरा स्कूली छात्र प्राइवेट कोचिंग ले रहा है। शहरी परिवार औसतन 3988 रुपये सालाना कोचिंग पर खर्च कर रहे हैं। ग्रामीण परिवार औसतन 1793 रुपये सालाना खर्च करते हैं। विद्यालयों की शिक्षण गुणवत्ता कमजोर होने से अभिभावक मजबूर हैं। कोचिंग से शिक्षा असमानता और रटंत संस्कृति बढ़ रही है।आज शिक्षा का स्वरूप केवल कक्षा-कक्ष तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि वह एक विशाल बाज़ार का रूप ले चुका है। हाल ही में आए सर्वेक्षण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हर तीसरा स्कूली छात्र प्राइवेट कोचिंग की ओर बढ़ रहा है। यह स्थिति केवल शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि गाँवों और कस्बों तक फैल चुकी है। शिक्षा, जो कभी घर-परिवार और समाज की साझा जिम्मेदारी मानी जाती थी, अब पूरी तरह बाज़ारीकरण और व्यवसायीकरण की चपेट में आ चुकी है।

कोचिंग संस्थानों का इतना व्यापक चलन इस बात की ओर इशारा करता है कि हमारे विद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था कितनी कमजोर हो चुकी है। शिक्षक-छात्र अनुपात असंतुलित है, स्थायी शिक्षकों की भारी कमी है और सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई का अभाव है। यही कारण है कि अभिभावक अतिरिक्त खर्च उठाकर भी अपने बच्चों को कोचिंग क्लासेज़ भेजने के लिए मजबूर हैं। शिक्षा पर खर्च किसी परिवार के लिए केवल आर्थिक दबाव ही नहीं, बल्कि मानसिक बोझ भी है।

कोचिंग पर खर्च बढ़ने के पीछे कई सामाजिक कारण भी हैं। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में बढ़ती होड़, नौकरी की असुरक्षा और उच्च शिक्षा में प्रवेश की कठिनाइयाँ बच्चों को प्रारंभिक स्तर से ही अतिरिक्त पढ़ाई की ओर धकेल देती हैं। शहरों में यह प्रवृत्ति और अधिक है क्योंकि वहाँ प्रतियोगिता तीव्र है, वहीं गाँवों में भी धीरे-धीरे यह चलन गहराता जा रहा है।

यह प्रश्न केवल निजी खर्च का नहीं, बल्कि शिक्षा की दिशा और दशा का है। जब बच्चे स्कूल जाकर भी पर्याप्त ज्ञान अर्जित नहीं कर पाते और उन्हें वही विषय दोबारा कोचिंग में पढ़ना पड़ता है, तो इसका सीधा अर्थ है कि विद्यालयों की शिक्षण पद्धति में गंभीर खामियाँ हैं। शिक्षक यदि प्रेरक हों, पाठ्यपुस्तकें उपयोगी हों और वातावरण सकारात्मक हो तो बच्चों को स्कूल से बाहर कोचिंग की आवश्यकता ही न पड़े।

सर्वेक्षण यह भी दर्शाता है कि ग्रामीण परिवार औसतन 1793 रुपये सालाना कोचिंग पर खर्च कर रहे हैं, जबकि शहरी परिवारों का यह खर्च लगभग 3988 रुपये सालाना है। यह अंतर केवल आय स्तर का ही नहीं, बल्कि शिक्षा तक पहुँच की असमानता का भी द्योतक है। शहरों में कोचिंग उद्योग संगठित रूप में कार्य कर रहा है, जबकि गाँवों में यह अधिकतर व्यक्तिगत ट्यूशन तक ही सीमित है।

एक और गंभीर पहलू यह है कि शिक्षा पर यह अतिरिक्त बोझ गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को गहरे संकट में डाल देता है। उच्च वर्ग के बच्चे महंगी कोचिंग और ट्यूशन से अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ा लेते हैं, लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे इसी कारण पीछे छूट जाते हैं। यह शिक्षा के लोकतांत्रिक स्वरूप पर आघात है, क्योंकि शिक्षा समान अवसर प्रदान करने का माध्यम होनी चाहिए, न कि असमानता को और बढ़ाने का कारण।

सरकार ने कई बार दावा किया है कि विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बेहतर किया जा रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कक्षा-कक्षों में शिक्षण की गुणवत्ता उस स्तर तक नहीं पहुँच पा रही है कि छात्र आत्मनिर्भर हो सकें। विद्यालयों को केवल परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराने वाली संस्थाओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें विद्यार्थियों में जिज्ञासा, आलोचनात्मक सोच और आत्मविश्वास विकसित करने वाली प्रयोगशालाओं के रूप में विकसित करना चाहिए।

कोचिंग पर निर्भरता एक और संकट खड़ा कर रही है – यह विद्यार्थियों को रटंत संस्कृति की ओर धकेल रही है। कोचिंग संस्थान सामान्यतः परीक्षा परिणाम पर केंद्रित रहते हैं, वहाँ सृजनात्मकता या जीवन मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जाती। इस प्रकार विद्यार्थी केवल अंक प्राप्त करने की मशीन बनते जा रहे हैं, न कि संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण कर रहे हैं।

समाधान के रूप में सबसे पहले विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है। शिक्षक पदों की रिक्तियाँ तत्काल भरी जानी चाहिएँ, विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता होनी चाहिए और शिक्षण पद्धति को अधिक व्यावहारिक तथा छात्र-केंद्रित बनाया जाना चाहिए। जब तक विद्यालयों में विश्वास नहीं बनेगा, तब तक कोचिंग का यह बाजार यूँ ही बढ़ता जाएगा।

यह भी आवश्यक है कि शिक्षा नीतियों में इस प्रवृत्ति को ध्यान में रखा जाए। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य विद्यार्थियों को समग्र शिक्षा प्रदान करना है, लेकिन यदि कोचिंग का दबाव लगातार बढ़ता गया तो यह नीति भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाएगी। शिक्षा को व्यावसायिक बनाने के बजाय सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में देखा जाना चाहिए।

आज समय की मांग है कि शिक्षा का बोझ बच्चों से कम किया जाए। उन्हें कोचिंग संस्थानों की दीवारों के बीच कैद करने के बजाय खुले वातावरण में सीखने का अवसर दिया जाए। प्रतिस्पर्धा की भावना अच्छी है, लेकिन जब यह केवल आर्थिक सामर्थ्य पर आधारित हो जाए तो यह समाज में गहरी खाई पैदा करती है।

शिक्षा का बाज़ार लगातार फैल रहा है और यह हमारी शिक्षा प्रणाली पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है। यदि विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधारा गया, शिक्षकों की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की गई, और अभिभावकों का विश्वास वापस लाया गया, तभी हम कोचिंग पर निर्भरता कम कर पाएँगे। अन्यथा, हर तीसरा नहीं बल्कि हर दूसरा बच्चा भी कोचिंग की ओर भागता नज़र आएगा।

स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर 31 जनवरी 2025, Smart Halchal News Paper 31 January 2025
स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर 31 जनवरी 2025, Smart Halchal News Paper 31 January 2025
स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर  01 अगस्त  2024, Smart Halchal News Paper 01 August 
स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर  01 अगस्त  2024, Smart Halchal News Paper 01 August 
news paper logo
logo
RELATED ARTICLES