1952 में बंगाल में कदम रख चुकी जनसंघ आज भी भाजपा के रूप में वहां पस्त क्यों है ?
स्मार्ट हलचल/अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना २१ अक्टूबर १९५१ को दिल्ली में की गयी थी। देश के पहले आम चुनाव यानी 1952 में जनसंघ को देश भर में सिर्फ तीन सीटों पर जीत मिली थी। इनमें से दो सीटें पश्चिम बंगाल की थीं। कलकत्ता दक्षिण-पूर्व और मिदनापुर-झाड़ग्राम। तब शायद जनसंघ को लगा था कि इस राज्य में पार्टी अपना सबसे बड़ा आधार बना सकती है। पार्टी को यहां बहुत संभावना दिख रही थी क्योंकि जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी यहीं से थे। बाद में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल (१९७५-१९७६) के बाद जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों का विलय कर के एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया।बाद में दूसरे दलों से विचार न मिलने के कारण सन १९८० में जनता पार्टी टूट गयी। भारतीय जनसंघ के एक गुट ने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में जनसंघ से अलग होकर समाजवादी और गांधीवादी विचारधारा के नेताओं के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।भारतीय जनता पार्टी की विचार धारा लगभग वही थी जो भारतीय जनसंघ के संसापक डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की थी उसके बावजूद भाजपा वहां आज भी सरकार नहीं बना पाई है और संघर्षरत है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाद में भाजपा के विस्तार के बावजूद ये सपना आज भी अधूरा है। दूसरे दलों के वोट बैंक में भाजपा ने सेंधमारी जरूर की। लेकिन अब उसे पार्टी के भीतर ही आंतरिक कलह का सामना करना पड़ रहा है।
गौरतलब है कि 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा पश्चिम बंगाल को लेकर बहुत कॉन्फिडेंट नजर आ रही थी। बंगाल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने एक इंटरव्यू में कह दिया था कि भाजपा ने राज्य में 35 सीट जीतने का लक्ष्य रखा है। यहां तक कहा था कि अगर भाजपा टीएमसी से एक सीट भी ज्यादा जीत गई तो ममता बनर्जी 2026 तक सरकार नहीं चला पाएंगी। लेकिन पार्टी सिर्फ 12 सीटों पर सिमट गई। वोट परसेंट भी करीब 2 फीसदी घट गया। इस हार के बाद पानी का बुलबुला फूट गया और पार्टी के भीतर नाराज नेताओं की बयानबाजी शुरू हो गई। अब चुनाव में हार और इन नाराजगियों पर भाजपा डैमेज कंट्रोल भी शुरू कर चुकी है। मैराथन बैठकें चलने के बावजूद मामला कुछ जमता हुआ नज़र नहीं आता है ।
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट बताती है कि पार्टी नेताओं ने माना है कि जिलाध्यक्षों के बीच तालमेल नहीं होना भी लोकसभा चुनाव में हार का एक बड़ा कारण रहा। 17 जून को कोलकाता में पार्टी की मीटिंग हुई थी, जिसमें सांसद समेत कई नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया था। कुछ नेताओं ने दिलीप घोष को मेदिनीपुर के बजाय बर्द्धमान-दुर्गापुर से लोकसभा चुनाव लड़वाने की भी आलोचना की। घोष इस सीट से चुनाव हार गए।
हार के बाद घोष पार्टी के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं। 8 जून को दिलीप घोष ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था- ‘ओल्ड इज गोल्ड’। इससे पहले 6 जून को एक और पोस्ट में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी का बयान लिखा था।
“एक चीज हमेशा ध्यान रखिए कि पार्टी के पुराने से पुराने कार्यकर्ता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो 10 नए कार्यकर्ताओं को अलग कर दीजिए क्योंकि पुराने कार्यकर्ता हमारी जीत की गारंटी हैं। नए कार्यकर्ताओं पर बहुत जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए।”
मेदिनीपुर से चुनाव नहीं लड़ने को भी उन्होंने मुद्दा बनाया है। 7 जून को घोष ने कहा कि पिछले एक साल से वे अपना पूरा समय और पैसे मेदिनीपुर में लगा रहे थे। लेकिन उन्हें वहां से लड़ने नहीं दिया गया है। उन्होंने कहा कि लोग अब दोनों सीट (मेदिनीपुर और बर्द्धमान-दुर्गापुर) के रिजल्ट को देख सकते हैं।
राज्य की राजनीति पर लंबे समय से लिखने वाले एक सीनियर पत्रकार बताते हैं कि भाजपा में ये गुटबाजी पहले से थी। नया बनाम पुराने का विवाद चल रहा है।”नए में वे लोग हैं जो दूसरे दलों से आए हैं और पुराने वे जो भाजपा के पुराने नेता हैं। पुराने नेताओं में असंतोष पहले से ही था क्योंकि कुछ दिन पहले टीएमसी से आए लोगों को टिकट मिले। ये उनकी नाराजगी की बड़ी वजह रही। पुराने नेताओं ने ऐसे नेताओं के लिए ज्यादा मेहनत भी नहीं की। ये गुटबाजी भी हार की एक बड़ी वजह रही है।”
राज्य की राजनीति को समझने वाले बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में भाजपा के तीन खेमे बने हुए हैं। पहला मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष सुंकाता मजुमदार। दूसरा, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष। और तीसरा नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी का। शुभेंदु फिलहाल केंद्रीय नेतृत्व के सबसे नजदीक माने जाते हैं।खेमे भले तीन हों, लेकिन जानकार कहते हैं कि बंगाल भाजपा में केंद्रीय नेतृत्व का दबदबा है। सरकार और संगठन के बड़े मंत्री लगातार बंगाल के दौरे पर रहते हैं। कहा जाता है कि लगभग सारे फैसले दिल्ली से ही होते हैं। बंगाल अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई भी हो, फैसला दिल्ली में होता है, प्रदेश अध्यक्ष-मंत्री का काम सिर्फ फैसले का पालन कराना होता है।इसलिए सुकांत मजूमदार को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के पीछे कोई ठोस वजह भी नहीं मानी गई थी। वे स्कूल के दिनों से RSS से जुड़े हैं। आलाकमान अध्यक्ष पद के लिए एक मृदुभाषी, लो प्रोफाइल नेता को खोज रहा था। और संघ से जुड़े होने की वजह से सुकांत इस कैलकुलेशन में एकदम फिट बैठ गए थे।
इंडिया टुडे के सीनियर पत्रकार ऋतिक मंडल कहते हैं कि चुनाव के दौरान भी कई बार ऐसा हुआ कि दिल्ली के नेता आए और झगड़ा निपटाने में हस्तक्षेप किया। चुनाव की बागडोर शुभेंदु अधिकारी के पास थी।ऋतिक मंडल आगे बताते हैं, “कम से कम 30 उम्मीदवारों के नाम का प्रस्ताव शुभेंदु अधिकारी ने दिया था। इसलिए कई पुराने नेता इस बार बैठ गए। ना प्रचार में नजर आए और ना ज्यादा एक्टिव दिखे। अगर भाजपा अच्छा करती तो क्रेडिट शुभेंदु को ही जाता। लेकिन हार के बाद पार्टी के पुराने लोग इसी समय का इंतजार कर रहे थे। रायगंज से पिछली बार सांसद रहीं देबश्री चौधरी ने भी पार्टी को चिट्ठी लिखी है। इसके अलावा अग्निमित्रा पॉल ने भी सवाल उठाए हैं।”
शुभेंदु पिछले विधानसभा चुनावों से कुछ महीने पहले दिसंबर 2020 में तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। उन्होंने नंदीग्राम से ममता के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा। और ममता को हरा दिया। ममता को हराने के बाद शुभेंदु की राजनीतिक हैसियत बढ़ गई। आलाकमान के फेवरेट बन गए। उनको भाजपा ने विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से नवाज दिया।हार के बाद नाराज खेमों से लगातार बयानबाजी जारी है। शुभेंदु हार के लिए हुई समीक्षा बैठक तक में नहीं पहुंचे। प्रभाकर मणि तिवारी बताते हैं कि बैठक के दिन शुभेंदु कूचविहार चले गए थे। उनसे जब इस पर पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि केंद्रीय नेताओं ने उन्हें हिंसा पीड़ितों से मिलने को कहा है।
बंगाल भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं का कहना है कि भाजपा के आज के कर्णधारों को यह घमंड नहीं करना चाहिए कि पार्टी उन्होंने बनाई है । पार्टी उन्हे विरासत में मिली है । उन्होंने केवल विस्तार किया है इसका यह मतलब नहीं कि पुराने कार्यकर्ताओं को ताक पर रख दो । यही हालात रहे तो भाजपा को विधानसभा चुनाओं में भी मुहं की खानी पड़ सकती है ।
अशोक भाटिया
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, एवं टिप्पणीकार