महिला कारसेवक बिंदु की दास्तान!
मेरी आंखों के सामने ही ढहा था ढांचा
स्मार्ट हलचल-शीतल निर्भीक
अयोध्या।महिला कारसेवक बिंदु दीदी ने बताया कि मैं 20 दिन के बेटे को दाई को पकड़ाकर दौड़ पड़ी थी। मेरी आंखों के सामने ही विवादित ढांचा ढहा था। छह दिसंबर को दिनभर पानी नहीं पीया। लौटे तो विवादित ढांचे के टुकड़े साथ ले आए, मानो वो ट्रॉफी-मेडल हों।
पिछले फरवरी 1989 में जब मैं सुल्तानपुर से अयोध्या आई, तो शिला पूजन चल रहा था। 90 में कारसेवकों पर गोलियां बरसाई गईं। जन्मभूमि सील थी और हम महिला कारसेवक अयोध्या की गलियों से छिपते-छुपाते बाहर से आए कारसेवकों को एक से दूसरी जगह ले जाते थे। हम पुराने मानस भवन में रहते थे।
ठीक उस जगह जहां आज मंदिर बन रहा है। छह दिसंबर की बात है। पूरा मानस भवन कारसेवकों और मीडियावालों से पटा हुआ था। हुजूम रोकना मुश्किल था। सभी ढांचे की तरफ बढ़ रहे थे। 20 दिन पहले ही मेरा बेटा पैदा हुआ था। मैंने बेटे को मानस भवन में मौजूद एक दाई को पकड़ा दिया और कहा, थोड़ी देर में आती हूं।
मैं अपनी छोटी बहन के साथ बाबरी की ओर दौड़ पड़ी। मेरे चाचा महेश नारायण सिंह विश्व हिंदू परिषद के रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के केंद्रीय मंत्री थे। कारसेवकपुरम की जमीन उन्होंने विहिप के लिए खरीदी थी। वो सुबह कह कर गए थे, काम हो रहा है। उस दिन का हम सभी को इंतजार था।
यह कहानी कहते बिंदु दीदी ठंडी पड़ चुकी हथेलियों से मेरी मुट्ठी भींच लेती हैं। उनकी आंखें सरयू सी डबडबाने को होती हैं। फिर वो मेरा और अपना ध्यान भटकाने कारसेवकपुरम में लगी स्क्रीन पर बज रहे रामभजन को गुनगुनाने लगती हैं। तभी गेट से कुछ संत, कुछ युवा भीतर आते हैं। युवा लगभग चीखते हैं जयश्रीराम, पीछे चल रहे संत धीमे से दोहराते हैं…जयसियाराम।
माहौल उत्सव सा है। रामध्वज है। रामधुन भी। और पकवान परोसती सीता रसोई भी। बिंदु दीदी कहती हैं, चाचा ने हम बेटियों को वहां आने से मना किया था। पर, मन कहां मानने वाला था। हम वहां पहुंच गए। मेरी बहन तो ढांचे पर चढ़ भी गई। आपाधापी-छीनाझपटी में उसके कपड़े फट गए, लेकिन वह रुकी नहीं। बाद में कई वर्षों तक इंटेलिजेंस की टीम उस फटे कपड़े वाली लड़की को ढूंढती रही।
बेटे को जन्म देने के बाद बिंदु दीदी के शरीर में इतनी ताकत नहीं बाकी थी, कि वह ढांचे पर चढ़ जातीं। उन्होंने कोशिश बहुत की थी। थोड़ी देर बाद चाचा ने उन्हें देख लिया। किसी से कहलवाया, बेटा छोटा है, लौट जाओ। हमने मुड़कर वहां पड़े मलबे के कुछ टुकड़े उठा लिए, मानो वो कोई मेडल-ट्रॉफी हों। फिर जैसे ही पलटे, हमारी आंखों के सामने ढांचा ढह गया। तब पूरे दिन पानी नहीं पीया था।
हम मानस भवन लौट आए!
कारसेवकों को ढूंढ-ढूंढकर पीटा जा रहा था। जिसके हाथ जो आया, वो लेकर बस भाग रहा था। कोई जोर-जोर से मेरा भी दरवाजा पीट रहा था। बाहर पुलिस जवान खड़ा था। उसने सख्त आवाज में पूछा-कौन हो, कहां से आई हो। मैंने कहा, मैं यहीं अयोध्या की हूं। वो चिल्लाया-भाग जाओ। मैंने बेटे की तरफ इशारा कर कहा, इतने छोटे बच्चे को लेकर कहां जाऊंगी।
जब उस जवान ने मुझ पर किया रहम
उस दौरान बोला अब कोई भी दरवाजा पीटे, मत खोलना, चुपचाप पड़ी रहो। पूरी रात लोगों के भागने की आवाजें आती रहीं। सुबह मानस भवन खाली हो चुका था। अगली सुबह मैं वहां से निकल गई। पूरे भवन पर फोर्स का कब्जा था। पर, हमारा मिशन पूरा हो चुका था।
बिंदु दीदी अयोध्या की गलियों में आज भी मशहूर
लोग उन्हें लक्ष्मीबाई कहते हैं। मंदिर की बात कर बीती-बिसरी यादों में चली जाती हैं। चेहरे की रौनक 22 तारीख का इंतजार कर रही है। मिठाई का आधा टुकड़ा उठाकर खाने लगती हैं, तो उनकी भाभी कहती हैं, अब तो लड्डुआ पूरा खाय ल्यो, अब तो रामलला अपने महल में विराजे जाय रहें है न।