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प्रदूषित हवा, बढ़ती आबादी और घटती हरियाली के बीच भारत के प्रमुख शहरों के लिए पर्यावरण अनुकूल हो शहरी नीति
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स्मार्ट हलचल|भारत आज उस दौर में है, जहां शहरी विकास की तेज़ रफ्तार और बिगड़ता पर्यावरण एक दूसरे के समक्ष चुनौती के रूप में हमारे सामने हैं। वर्तमान समय में देश की लगभग 35% आबादी, यानि करोड़ों लोग, शहरों में रह रहे हैं और अगले कुछ वर्षों में यह संख्या और बढ़ने की संभावना है। अंतराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान मुंबई विश्विद्यालय के एलुमनाई डॉ नयन प्रकाश गांधी का कहना है कि
मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, पुणे, जयपुर, सूरत जैसे महानगर न केवल जनसंख्या के स्तर पर बल्कि चौतरफा विस्तार में भी अपने रिकॉर्ड बना रहे हैं। लगातार फैलती आबादी, अनियंत्रित भवन निर्माण और बुनियादी ढांचे की दौड़ ने शहरी पर्यावरण को खतरे में डाल दिया है।शहरों की हवा की गुणवत्ता लगातार गिर रही है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, सूरत, लखनऊ, इंदौर समेत अधिकांश प्रमुख शहरों की वायु गुणवत्ता तय मानकों से कहीं ज्यादा खराब हो चुकी है। वहां सांस से जुड़ी बीमारियां और समयपूर्व मृत्यु के मामले बढ़ रहे हैं। सिर्फ हवा ही नहीं, बल्कि जल निकाय, हरियाली और जैवविविधता भी शहरीकरण की भेंट चढ़ गए हैं। नतीजतन हीट आइलैंड, शहरी बाढ़, जल संकट और कूड़े-कचरे का पहाड़ अब आम समस्याएं हैं।प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ रहे दबाव के बावजूद शहरी योजनाएं पारंपरिक निर्माण और विकास तक ही सीमित रह गई हैं। शहरी नियोजन की नीति में भूमि का विवेकपूर्ण इस्तेमाल, हरियाली का संरक्षण, जल-निकासी तंत्र, ठोस कचरा प्रबंधन, ऊर्जा-कुशल इमारतें और सार्वजनिक परिवहन को पहली प्राथमिकता मिलनी चाहिए। स्वच्छता, ग्रीन कंस्ट्रक्शन, जलभराव प्रबंधन की कुछ योजनाएं बड़े शहरों में आरंभ की गई हैं, मगर मौजूदा हालात को देखकर यह स्पष्ट है कि ये प्रयास काफी नहीं हैं।शहरी नियोजन में नागरिकों की व्यापक भागीदारी, निजी क्षेत्र का सहयोग और नवाचार का समावेश बेहद महत्वपूर्ण है। मियावाकी जंगल, रूफटॉप गार्डन, सौर ऊर्जा और वर्षा जल संग्रह जैसी योजनाएं अब अनिवार्य बननी चाहिए। हर नई परियोजना में पर्यावरणीय मानकों का पालन सुनिश्चित करना, कंक्रीट की बजाय हरियाली को बढ़ावा देना और टिकाऊ जीवनशैली को अपनाना समय की मांग है। सरकार, नगर निकायों और नागरिकों की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि शहरीकरण को हरित और टिकाऊ बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाएं। शहरीकरण को सिर्फ विकास का पर्याय न समझा जाए, बल्कि उसमें पर्यावरण-संवेदनशीलता, स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता का समावेश किया जाए। अगर आज नीतिगत और व्यवहारिक स्तर पर बदलाव शुरू नहीं हुए, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए शहरों को स्वस्थ और रहने लायक बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा।अंततः,कह सकते है शहरी नियोजन की नीति को पर्यावरण की रक्षा के साथ जोड़कर ही भविष्य के भारत के शहरों को सुरक्षित, स्वच्छ और जीवनदायिनी बनाया जा सकता है। हरित विकास ही आज असल में समय की मांग है,वरना विकास की इस दौड़ में हमारी सांसें और आने वाली नस्लों का भविष्य दांव पर है,जिसमें कोई संशय नहीं है।