जाने – गुरु गोविन्द सिंह जी का जन्म कब,कहाँ हुआ, कैसे हुई मृत्यु, कितनी की थी शादी, क्या था पत्नियों का नाम ?
गुरु गोविन्द सिंह जी के जन्मदिन को प्रकाश पर्व के रूप में क्यों, कब और कैसे मनाते है ?
जाने- उनके जीवन संघर्ष और इतिहास के बारे में
वाहे गुरु की खालसा, वाहेगुरु की फतेह
जो मनुष्य अपने जीवन में दूसरों के प्रति सहानुभूति और करुणा रखता है, वही वास्तव में जीवन का उद्देश्य पूरा करता है। – गुरु गोविंद सिंह जी
मदन मोहन भास्कर
हिण्डौन सिटी
गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन सत्य,साहस और सेवा का मार्ग दिखाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख धर्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया और अपने जीवन के हर पल को मानवता के कल्याण में समर्पित किया। गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षाएँ और आदर्श आज भी समाज को प्रेरित करते हैं और सिख धर्म का आधार बने हुए हैं। उनका जीवन सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। गुरु गोविंद सिंह जी ने लोगों को संगठित और सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन और उनकी शिक्षाएं साहस, निष्ठा और धर्म की रक्षा का प्रतीक है।मुगल शासक औरंगजेब ने गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता गुरु तेग बहादुर की निर्मम हत्था की थी। जिसके बाद सन् 1675 में महज 9 वर्ष की आयु में गुरु गोविंद सिंह जी को सिखों के दसवें गुरु के रूप में अपनाया और उनके आक्रमणकारियों के साथ संघर्ष का एक लंबा सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने बच्चे, परिवार सहित अपना सर्वस्व राष्ट्र, धर्म और लोगों की रक्षा में कुर्बान कर दिया। ऐसे में वह हर भारतीय के लिए एक ज्वलंत प्रेरणा हैं। उनका परिवार धार्मिक और समाज सुधारक विचारों से भरपूर था। गुरु गोविंद सिंह का बचपन अत्यधिक कठिनाइयों से भरा था। जब वे केवल 9 साल के थे, तब उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी को धर्म की रक्षा के लिए शहीद कर दिया गया। इस दुखद घटना ने गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन को गहरे तरीके से प्रभावित किया। इतनी छोटी उम्र में ही उन्होंने अपने पिता के बलिदान को स्वीकार किया और धर्म के लिए संघर्ष करने का संकल्प लिया। उनका जीवन हमेशा संघर्ष और साहस से भरा रहा। वे धर्म की रक्षा के लिए एक महान योद्धा बन गए और सिख समाज को एक नई दिशा दी।गुरु गोबिंद सिंह जी न केवल एक महान धार्मिक नेता थे, बल्कि वे एक योद्धा, काव्यकार और समाज सुधारक भी थे। उनका जीवन संघर्ष, साहस और बलिदान की मिसाल है। उन्होंने अपनी शिक्षा और काव्य रचनाओं से धर्म, न्याय, और मानवता का संदेश दिया। सिख धर्म के अनुयायी गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती को बड़ी धूम धाम से मनाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी बाल्यकाल से बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आध्यात्म में गुरु गोविंद सिंह जी की गहरी रुचि थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई ग्रंथों की रचना की। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी के विचार जीवन जीने की नई राह दिखाते है एवं सामान्य व्यक्ति भी इनके विचारों को आत्मसात कर अपने जीवन में सफल हो सकता है।
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म
गुरु गोबिंद सिंह जी सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु थे। गुरु गोबिंद सिंह जी जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना साहिब, बिहार में हुआ था। नानकशाही कैलेंडर के अनुसार हर साल पौष माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को गुरु गोविंद सिंह की जयंती मनाई जाती है।
क्या था गुरु गोबिंद सिंह जी का मूल नाम एवं माता – पिता का नाम
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी जी के यहां पटना साहिब में हुआ था। इनका मूल नाम गोबिंद राय था। इन्होंने मात्र 10 वर्ष की आयु से ही उन्हें सिखों के दसवें गुरु के रूप में जाना जाने लगा था। गुरु गोबिंद सिंह जी अपने पिता गुरु तेग बहादुर जी के निधन के बाद कश्मीरी हिंदुओं की रक्षा के लिए गद्दी पर बैठे थे। गुरु गोबिंद सिंह जी को कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नामों से जाना जाता है।
गुरु गोबिंद सिंह जी की कितनी हुई शादियाँ
गुरु गोबिंद सिंह जी की तीन शादियां हुई थी। उनका पहला विवाह आनंदपुर के पास स्थित बसंतगढ़ में जीतो नाम की कन्या के साथ हुआ था। इस विवाह के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी को जोरावर सिंह, फतेह सिंह और जुझार सिंह नाम की तीन संतान पैदा हुई थी। इसके बाद माता सुंदरी से उनका दूसरा विवाह हुआ था।इस शादी के बाद उन्हें अजीत सिंह नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई । फिर गुरु गोबिंद सिंह जी ने तीसरा विवाह माता साहिब देवन से 15 अप्रैल, 1700 को किया था। उस समय उनकी उम्र 33 साल थी। इस शादी से उन्हें कोई संतान नहीं थी। लेकिन गुरु गोबिंद सिंह ने इन्हें खालसा की महतारी घोषित किया था।
गुरु गोविन्द सिंह जी कब और कैसे बने 10वें गुरु
11 नवम्बर सन् 1675 को 9वें गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद वे 10 वें गुरु बने थे। गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि और आध्यात्मिक नेता थे। जिन्होंने सन् 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी।
गुरु ग्रंथ साहिब को दिया गुरु का दर्जा बने सरबंसदानी
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ही सिखों के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को पूरा किया और उन्हें गुरु का दर्जा दिया। उन्होने अन्याय को खत्म करने और धर्म की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े थे। धर्म की रक्षा करते करते उन्होंने अपने समस्त परिवार का बलिदान दे दिया था। यही कारण है कि उन्हें ‘सरबंसदानी’ भी कहा जाता है। जिसका अर्थ होता है पूरे परिवार का दानी।
खालसा पंथ की स्थापना
गुर गोबिंद सिंह जी ने 1699 में आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा पंथ का उद्देश्य समाज में समानता, भाईचारे और धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना करना था। गुरु जी ने यह कदम एक धार्मिक और सामाजिक आंदोलन के रूप में उठाया, जिसमें उन्होंने अपने अनुयायियों को पवित्र अमृत पिलाकर उन्हें खालसा के रूप में पुनः स्थापित किया। गुरु जी ने खालसा पंथ के पांच प्यारों को विशेष सम्मान दिया और सभी सिखों को ‘सिंह’ और ‘कौर’ की उपाधि दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही खालसा वाणी, ‘वाहे गुरु की खालसा, वाहेगुरु की फतेह’ दिया था। खालसा पंथ की स्थापना के पीछे इनका उद्देश्य धर्म की रक्षा करना और मुगलों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाना था। उनका ‘चिड़िया नाल मैं बाज लड़ावां, ता गोविंग सिंह नाम कहावा’ वाक्य भी काफी चर्चित है।
गुरु गोबिंद सिंह जी के पांच ककार
सिखों के लिए 5 चीजें- बाल, कड़ा, कच्छा, कृपाण और कंघा को धारण करने का आदेश गुरु गोबिंद सिंह जी की ओर से ही दिया गया था। इन चीजों को ही ‘पांच ककार’ कहा जाता है। जिन्हें धारण करना सभी सिखों का कर्तव्य होता है।
संगीत के पारखी
गुरु गोबिंद सिंह जी काव्य रचनाकार होने के साथ साथ संगीत के भी पारखी थे। कई वाद्य यंत्रों में उनकी इतनी अधिक रुचि थी कि उन्होंने अपने लिए खासतौर पर कुछ नए और अनोखे वाद्य यंत्रों का अविष्कार कर डाला था। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा इजाद किए गए ‘टॉस’ और ‘दिलरुबा’ वाद्य यंत्र आज भी संगीत के क्षेत्र में जाने जाते हैं।
भौतिक सुख से दूर रहने का दिया संदेश
गुरु गोबिंद सिंह जी ने हमेशा ही अपने अनुयायियों को इस बात का संदेश दिया कि भौतिक सुख सुविधाओं में मत उलझो,बल्कि वाहे गुरु के लिए पीड़ित जनों की सेवा और रक्षा करो। बचपन में एक बार उनके चाचा ने गुरु गोबिंद सिंह को सोने के दो कड़े भेंट किए थे, लेकिन खेलकूद के दौरान एक कड़ा नदी में गिर गया। जब उनकी मां गुजरी जी ने उनसे पूछा कि वो कड़ा कहां फेंक दिया, तो उन्होंने दूसरा कड़ा उतारकर नदी में फेंक दिया और बोला कि यहां गिरा दिया। मतलब बचपन से ही उन्हें भौतिक सुखों से कोई लगाव नहीं था।
गुरु गोबिंद सिंह जी महान योद्धा और विद्वान
गुरु गोबिंद सिंह जी को पंजाबी, फारसी, अरबी, संस्कृत और उर्दू समेत कई भाषाओं की अच्छी जानकारी थी। वह एक महान योद्धा होने के साथ कई भाषाओं के जानकार और विद्वान महापुरुष भी थे।
सेवा और संघर्ष में गुजरा पूरा जीवन
गुरु गोबिंद सिंह जी ने छोटी सी उम्र में ही धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला को सीख लिया था और फिर अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा में गुजार दिया।
गुर गोबिंद सिंह जी और महिला सशक्तिकरण
गुरु गोबिंद सिंह जी महिलाओं को समाज में बराबरी और सम्मान देने के पक्ष में थे। उन्होंने सिख धर्म में महिलाओं को खालसा पंथ में शामिल कर उन्हें “कौर” की उपाधि दी, जिसका मतलब है “राजकुमारी।” इससे उन्होंने यह संदेश दिया कि महिलाएँ भी पुरुषों के समान हैं और उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। गुरु गोविंद सिंह जी ने हमेशा महिलाओं को साहसी, आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी बनने की प्रेरणा दी। उनके प्रयासों ने सिख समाज में महिलाओं को एक नई पहचान और समानता का अधिकार दिलाया। उनका यह कदम महिलाओं को और मजबूत बनाने और समाज में उनकी स्थिति बेहतर करने की दिशा में एक बड़ा योगदान था।
गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षाएँ
गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षाएँ मानवता और धर्म के लिए एक मार्गदर्शक हैं। साहस और निडरता हर व्यक्ति को अन्याय और अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। सभी मनुष्यों को समान समझना और किसी प्रकार के भेदभाव से दूर रहना चाहिए।
समाज और जरूरतमंदों की सेवा करना सबसे बड़ा धर्म है। सच्चाई, ईमानदारी और नैतिकता का पालन करना जीवन का आधार होना चाहिए।
काव्य और साहित्य में योगदान
गुरु गोबिंद सिंह जी महान कवि और साहित्यकार भी थे। उनकी काव्य रचनाएँ सिख धर्म की गहराई और सुंदरता को प्रकट करती हैं। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में ‘जाप साहिब’, ‘गोविंद सिंह जी की बाणी’ और ‘दस्म ग्रंथ’ शामिल हैं। उनकी कविताओं ने सिख समाज को नई ऊर्जा और उत्साह प्रदान किया।
गुर गोबिंद सिंह जी की वीरता और नेतृत्व
गुर गोबिंद सिंह जी केवल एक आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, बल्कि एक महान योद्धा और नेता भी थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को साहस, निडरता, और धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित किया। उनके नेतृत्व में सिख समाज ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया। गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में सिखों ने धर्म और न्याय की रक्षा के लिए कई बलिदान दिए। उनके चारों पुत्रों ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। इन बलिदानों ने सिख धर्म को और भी मजबूत और प्रेरणादायक बनाया। उनकी वीरता और नेतृत्व ने सिख समाज को नई ऊर्जा और साहस प्रदान किया।
शहादत और विरासत
गुरु गोबिंद सिंह जी के निधन के बाद उनका जीवन बलिदान, संघर्ष और समर्पण का प्रतीक था। गुरु जी ने अपनी शहादत से यह दिखाया कि धर्म की रक्षा के लिए किसी भी प्रकार का बलिदान आवश्यक है। उन्होंने न केवल सिख धर्म के सिद्धांतों को स्थापित किया, बल्कि उनका प्रभाव भारत और दुनिया भर में फैलाया।
गुरु गोबिंद सिँह जी की मृत्यु कब, कैसे और कहाँ हुई ?
गुरगोबिंद सिंह जी की मृत्यु 42 वर्ष की उम्र में 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी और बादशाह बहादुरशाह के संबंध काफी मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खां घबराने लगा था। उसने दो पठान गुरु गोविन्द सिंह जी के पीछे लगा दिए। जिसके बाद जमशेद खान और वासिल बेग गुरु जी की सेना में चुपके से शामिल हो गए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से वार किये । ये वार उन्होंने तब किये जब गुरु गोबिंद सिंह जी अपने कक्ष में आराम कर रहे थे। तभी एक पठान ने गुरू के दिल के नीचे छुरा घोंप दिया। जिसके बाद गुरु गोबिंद सिंह ने उस पर कृपाण से वार कर उसे मार गिराया। लेकिन इस हमले में गुरु साहिब को गहरी चोट लगी थी। जिससे 7 अक्टूबर 1708 में वे दिव्य ज्योति में लीन हो गए।
गुरु गोबिंद सिंह जी की मृत्यु दिवस को शहीदी दिवस के रूप में क्यों मनाया जाता है?
गुरु गोबिंद सिंह जी के अंतिम संस्कार के बारे में बहुत सी अनोखी बातें कही जाती हैं। उनमें से एक यह है कि उनकी अंत्येष्टि चिता का निर्माण एक झोंपड़ी के रूप में किया गया था और गुरुजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर अंतिम संस्कार की चिता पर आए थे। इसी दिन से मृत्यु दिन को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।