(सुनील कुमार महला)
स्मार्ट हलचल/मानसून के इस सीजन में कहीं कहीं बहुत अधिक बारिश हो रही है , इससे जहां एक ओर हमारे देश में अनेक स्थानों पर बाढ़ आ गई है तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ों में भूस्खलन की घटनाएं घटित हो रही हैं। दरअसल आज हम प्रकृति के संरक्षण की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहे हैं और यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन से बारिश भी बहुत अधिक होने लगी है तो कहीं पर सूखा भी पड़ने लगा है। बारिश शहरों व बड़े महानगरों से लेकर गांव गलियों तक के ड्रेनेज सिस्टम की पोल खोल रहा है। आज बढ़ती जनसंख्या के बीच हमारे शहर भी नियोजित ढंग से नहीं बसाये जा रहे हैं ,मनमाने ढ़ंग से निर्माण हो रहे हैं और उसका खामियाजा हमें निचले इलाकों में पानी भरने, बाढ़ आने के रूप में देखने को मिल रहा है। हमारे देश में भूस्खलन की घटनाएं तो जैसे आम होने लगीं हैं, विशेषकर बारिश के सीजन में। कहना ग़लत नहीं होगा कि भूस्खलन का कारण कहीं न कहीं अधिक बारिश भी है। बारिश ही नहीं बल्कि बर्फ पिघलने, जल स्तर में परिवर्तन, धारा कटाव, भूजल में परिवर्तन, भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधियों, मानवीय गतिविधियों द्वारा गड़बड़ी और इन कारकों के किसी भी संयोजन से ढ़लानों में भूस्खलन शुरू हो सकता है।स्मार्ट हलचल/भूकंप के झटके और अन्य कारक भी पानी के भीतर अनेक बार भूस्खलन को प्रेरित कर सकते हैं। हमारे देश भारत में भूस्खलन एक बहुत ही गंभीर प्राकृतिक आपदा है जिसके भयानक परिणाम होते हैं। भूस्खलन की घटनाएं खड़ी ढ़लान वाली भूमि, चट्टानों में जोड़ व दरारें होने, ढ़ीली मिट्टी (वृक्ष कटाई के कारण), चरागाहों के कम होने के कारण होती हैं। वनों में आग लगने(दावानल) से मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और वहां भूस्खलन की घटनाएं घटित होने लगतीं हैं। मानवीय गतिविधियों जैसे वनों की अंधाधुंध कटाई, कंक्रीट के जंगलों में बढ़ोतरी (निर्माण कार्य) से भी भूस्खलन होता है। वास्तव में देखा जाए तो भूस्खलन के प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारण हैं। एक ओर जहां भारी बारिश, भूकंप, मिट्टी का प्राकृतिक रूप से क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट भूस्खलन के प्राकृतिक कारण हैं तो वहीं दूसरी ओर खनन, जलवायु परिवर्तन, अतिक्रमण, वनों की कटाई मानवजनित कारणों में से हैं। इन दिनों हमारे देश में दक्षिण-पश्चिमी मानसून आसमानी आफत का रूप ले चुका है। बीते कुछ दिनों से दक्षिण से उत्तर भारत तक जहां देखो वहीं पर पानी का रौद्र रूप देखने को मिला। हाल में ही केरल के वायनाड में तीव्र भू-स्खलन ने मुंडक्कई, चूरलमाला कस्बों का अस्तित्व तक ही मिटा दिया। भीषण त्रासदी में सैकड़ों लोग मारे गए। पशुधन, जान माल को काफी नुकसान पहुंचा है। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया ।सच तो यह है कि विनाशकारी लैंडस्लाइड अब राष्ट्रीय आपदा बन चुकी है। केरल जैव विविधता की दृष्टि से भारत के संपन्न राज्यों में से एक है, ऐसे में केरल जैसे राज्य में लगातार भूस्खलन चिंता का विषय हैं। अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन और वन क्षेत्र की हानि केरल के वायनाड में विनाशकारी भूस्खलन के दो महत्त्वपूर्ण कारण हैं। इसरो की सैटेलाइट तस्वीरें वायनाड भूस्खलन में व्यापक तबाही दिखाती हैं। सैटेलाइट द्वारा प्राप्त तस्वीर से पता चलता है कि लगभग 86,000 वर्ग मीटर भूमि खिसक गई, जिससे राष्ट्रपति भवन के आकार से लगभग पांच गुना बड़ा भूस्खलन हुआ। पता चला है कि मलबा इरुवैफुझा नदी के किनारे लगभग 8 किलोमीटर तक बह गया, यह बहुत ही चिंताजनक है। इसरो द्वारा तैयार किए गए 2023 ‘लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया’ ने वायनाड क्षेत्र को भूस्खलन के प्रति संवेदनशील क्षेत्र के रूप में रखा था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इसरो के बीते वर्ष जारी भूस्खलन मानचित्र के मुताबिक, भारत के 30 सर्वाधिक भूस्खलन-संभावित जिलों में से 10 केरल में ही थे, और वायनाड इनमें 13वें स्थान पर था। इसी में यह भी कहा गया था कि पश्चिमी घाट का 90 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है। आज भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में जलवायु परिवर्तन तेजी से हो रहा है। गर्मियों में गर्मी अधिक और सर्दियों में सर्दी अधिक कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन का ही प्रभाव है, ऐसे में हम सभी को चेतने की जरूरत है।
पिछले कुछ वर्षों में बारिश के असमान वितरण अर्थात अचानक भारी वर्षा में बढ़ोतरी होने से मानसूनी त्रासदियां बढ़ती जा रही हैं। अब समय आ गया है हम सभी मिल जुल कर जलवायु में हो रहे बदलाव पर कार्य करें अन्यथा हम कहीं के भी नहीं रहेंगे। भारत में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश भी भूस्खलन की दृष्टि से बहुत संवेदनशील क्षेत्रों में से एक हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि इन दिनों उत्तराखंड में तेज बारिश कहर बनकर टूट रही है। वहीं महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कई जिलों में भी तेज बारिश से संकट बना हुआ है। दिल्ली जैसे महानगर में भी बारिश एक बड़ी समस्या बनी हुई है। उत्तराखंड भूस्खलन न्यूनीकरण और प्रबंधन केंद्र ने अभी तक राज्य की सड़कों पर ऐसे 132 भूस्खलन हॉटस्पॉट क्षेत्र चिह्नित किए हैं जिनमें वर्षाकाल के दौरान विशेष निगरानी की आवश्यकता है। पूर्व में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अध्ययन में उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले को भारत का सर्वाधिक भूस्खलन संवेदनशील जिला बताया गया था। यहां भूस्खलन घनत्व भी सबसे अधिक बताया गया था। किसे याद नहीं है कि वर्ष 2013 की आकस्मिक बाढ़ ने केदारनाथ धाम मंदिर वाले शहर को मलबे में बदल दिया था। एक दशक से भी ज्यादा समय बाद भी उस विभीषिका निशान साफ दिखते हैं। बहरहाल, हमें इस बात का पता है कि पर्यावरण विदों ने पश्चिमी घाट को पर्यावरण के प्रति अतिसंवेदनशील बताया हुआ है और इस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों पर रोक की सिफारिश भी की गई है। बावजूद इसके इन चेतावनियों को हम सभी नजरंदाज करते हैं। हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील होना होगा और प्रकृति के संकेतों को समय रहते समझना होगा। वास्तव में, हमें यह चाहिए कि हम पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता लायें और स्वयं भी पर्यावरण संरक्षण करें। आज संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों में अध्ययन और शोध को बढ़ावा देने की जरूरत है। इतना ही नहीं, हमें यह चाहिए कि हम हमारे
मौसम विज्ञान तंत्र को दुरुस्त करें और सटीक पूर्वानुमान लगाने की तकनीक विकसित करने की दिशा में काम करें ताकि आपदाओं के जोखिमों से निपटा सकें। सरकारों को भी यह चाहिए कि वे संवेदनशील क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों को प्रतिबंधित कर वनारोपण को बढ़ावा देकर जैव-विविधता संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने की दिशा में काम करें। भूस्खलन रोकने के लिए भूस्खलन वाले स्थानों पर आवास निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा भूमि को खिसकने से बचाने के लिए प्रतिधारी दीवार का निर्माण करना, भूस्खलन वाले क्षेत्रों में वनस्पति आवरण में सतत वृद्धि करना, सतही अपवाह तथा झरना प्रवाहों के साथ-साथ भूस्खलन की गतिशीलता को नियन्त्रित करने के लिए पृष्ठीय अपवाह नियन्त्रण उपाय कार्यान्वित करना कुछ अन्य कारगर उपाय साबित हो सकते हैं। चरागाहों को भी बचाया जाना चाहिए और सबसे बड़ी बात है कि प्रकृति का हर हाल में संरक्षण किया जाए, अन्यथा मानवजाति को गंभीर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।