शिव शंकर सिंह पारिजात
स्मार्ट हलचल|पुरातन काल में सोलह महाजनपदों में शुमार अंगभूमि भागलपुर की ऐसी कई धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं हैं जो इसे विशिष्ट तथा खास बनाती हैं। यहां प्रति वर्ष जगत के नियंता भगवान शिव के साथ उनकी मानस-पुत्री, सर्पों की देवी मनसा विषहरी की धूमधाम से अनुष्ठानपूर्वक पूजा होती है। खास बात यह है कि यहां हर साल जहां सुलतानगंज के उत्तरवाहिनी पवित्र गंगा के पावन तट पर पूरे देश में शिव-पूजन का सबसे बड़ा मेला ‘श्रावणी मेला’ लगता है, वहीं देवी मनसा विषहरी की आराधना का सबसे बड़ा अनुष्ठान ‘मनसा विषहरी पूजन’ आयोजित करने का गौरव भी इसी भूमि को प्राप्त है। यहां जहां श्रावण मास में शिव-पूजन की धूम मची रहती है, वहीं भाद्र मास में उनकी मानस-पुत्री मनसा विषहरी के अनुष्ठान की चहल-पहल रहती है। देवी मनसा विषहरी की पूजा भागलपुर जनपद का सबसे बड़ा लोक-पर्व माना जाता है जहां के 150 से अधिक मनसा मंदिरों व पूजा स्थलों में वृहत स्तर पर पूजन आयोजित किये जाते हैं और मेले लगते हैं। यहां यह पूजा बिहुला विषहरी पूजा के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें सर्पों की देवी मनसा के साथ सती बिहुला की पूजा होती है।
श्रावण के पावन मास में प्राचीन काल में अंगभूमि के नाम से विख्यात रहे भागलपुर की भूमि शिवमय हो उठती है जब देश के कोने-कोने से प्रतिदिन यहां के सुलतानगंज के पवित्र उत्तरवाहिनी गंगा तट पर जुटनेवाले हजारों-लाखों केसरिया वस्त्रधारी शिवभक्त अपने कांवरों में गंगाजल लेकर 105 किमी की साधना युक्त यात्रा कर इसे देवघर के वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करते हैं। श्रावण मास में पूरा अंगदेश शिव-आराधना में बोल बम के जयकारों से गूंजायमान हो उठता है। वहीं यह भोले शंकर की लीला है इस अंगभूमि पर पूरे श्रावण मास भगवान शिव के साथ श्रावण-भाद्र मास में उनकी मानस पुत्री मनसा विषहरी की भी पूजा पूरे भक्तिभाव से होती है और सम्पूर्ण वातावरण बोल बम के उद्घोष के साथ बिहुला-विषहरी के गीतों से गूंजायमान हो उठता है। यहां देवी मनसा का पूजन-अनुष्ठान श्रावण मास शुरू होने के करीब तीन दिनों के बाद कर्क की संक्रांति से प्रारंभ हो जाता है जो एक माह तक चलता है।
प्रत्येक वर्ष कर्क की संक्रांति के एक दिन पूर्व भागलपुर के चंपानगर स्थित मुख्य विषहरी मंदिर में देवी मनसा का पूजन-अनुष्ठान सर्प आकृतियों से युक्त एक विशिष्ट प्रकार के कलश स्थापना, जिसे ‘वारी घट’ (सर्प आकृतियों से युक्त घट) कहते हैं, के साथ प्रारंभ होता है। इस दिन देवी की पिंडी पर बेंत रखकर देवी को धूप, दीप, गंध-पुष्प, नैवेद्य आदि अर्पित किये जाते हैं।
अंगभूमि भागलपुर के मनसा विषहरी पूजा की खासियत यह है कि इसमें समाज के हर वर्ग की भागीदारी रहती है। विषहरी पूजा की खास जानकारी रखने वाले हेमंत कश्यप बताते हैं कि चंपानगर मुख्य मनसा मंदिर के पंडा सर्वप्रथम वारी कलश की पूजा के लिए कुम्हार के घर जाते हैं जहां वे देवी के पांचों स्वरूपों का पूजन करते हैं। वहां से आने के बाद पिंडी पर भगवती मनसा के पांचों स्वरूप के साथ देवी नेतुला धोबिन की भी पूजा की जाती है। इस दिन पिंडी पर छः सिंगारी सिंदूर की खड़ी रेखा अंकित की जाती है और छहों भाग में भोग अर्पित किया जाते हैं। पांच विषहरी के पांच स्वरूप के लिये और छठा नेतुला धोबिन के लिए अर्पित किये जाते हैं। फिर कर्क की संक्रांति में देवी की विशेष पूजा, भोग, हवन इत्यादि सम्पन्न कर पंडा कुम्हार के घर से गोधूलि बेला में वारी कलश को अपने मस्तक पर उठा कर सेमापुर घाट तक जाते हैं जहां जल छींट कर उनका सत्कार किया जाता है। इस अवसर पर बड़ी संख्या में महिलाएं एवं पुरुष मनसा वारी व्रत रखते हुए वारी घट के साथ घाट तक जाते हैं। और, इस तरह वारी कलश पूजा के सम्पन्न होने के उपरांत चम्पानगर के मुख्य मनसा मंदिर के साथ भागलपुर के मनसा विषहरी मंदिरों में मनसा माहात्म्य पर आधारित बिहुला-विषहरी गाथा का सामूहिक पाठ शुरू हो जाता है जिसका समापन एक माह पूरा होने पर बिहुला-विषहरी की मूर्तियों के स्थापन के साथ होता है जब जगह-जगह पर मेले लगते हैं।
रामायण की कथा के अनुसार जिस स्थान पर शिव के त्रिनेत्र की ज्वाला से भस्मीभूत होकर कामदेव ने अपने शरीर का त्याग किया, वह भूमि ‘अंग’ कहलाई। यहां शिवभक्ति का आलम यह कि यहां उनकी पुत्री मनसा के साथ उनके गले में शोभित होने वाले सर्प के पूजन की भी प्राचीन व विशिष्ट परम्परा है। भागलपुर के चम्पानगर में स्थित मुख्य विषहरी स्थान में नागपंचमी के अवसर पर बासुकी नाग सहित तक्षक, शेषनाग, कार्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल सहित कुलिक नागों को विशिष्ट पूजा अर्पण किये जाते हैं। चम्पानगर मुख्य मनसा विषहरी मंदिर में साल भर पीतल एवं अन्य धातुओं की बनी नाग आकृतियों की विधान-पूर्वक पूजा होती है। चम्पानगर के महाशय ड्योढ़ी में एक लोहा बांस-घर है जो अंगभूमि में सर्प पूजन की पुरातन परम्परा का साक्षी है। यह ‘लोहा-बांस घर’ एक ऐसा स्मृति स्थल जो है बिहुला-विषहरी की लोकगाथा का मुख्य केंद्रबिंदु है जिसे चंपानगर के परम शिव भक्त चांदो सौदागर ने अपने पुत्र बाला लखंदर को देवी मनसा के कोप से रक्षा के लिये देव-शिल्पी विश्वकर्मा से बनवाया था।
अंगभूमि भागलपुर में बिहुला-विषहरी की पूजा सदियों से चली आ रही एक लोकगाथा पर आधारित है जिसका गायन पूजा के दिनों में भक्तिभाव से किया जाता है। गाथा के अनुसार के अनुसार जब शिवपुत्री मनसा अन्य देवी-देवताओं की तरह शिव के समक्ष पृथ्वी लोक में पूजित होने की इच्छा जाहिर करती है, तो भगवान शिव कहते हैं कि जबतक पृथ्वी लोक का सबसे बड़ा शिवभक्त चंपानगर निवासी चांदो सौदागर उसकी पूजा नहीं करता, तबतक ऐसा नहीं हो सकता। किंतु जब चांदो सौदागर भगवान शिव के अलावा किसी अन्य देवी-देवता की पूजा करने से इन्कार कर देता है, तो इससे रूष्ट होकर देवी चंद्रधर सौदागर अर्थात चांदो सौदागर की समस्त व्यापारिक नौकाएं और धन-सम्पदा विनष्ट कर देती हैं। देवी के कोप से चांदो सौदागर के सभी पुत्रों की मृत्यु हो जाती है। किंतु इन सभी आपदाओं के बावजूद जब चांदो सौदागर देवी मनसा की पूजा करने को तैयार नहीं होता है, तो वह चांदो से कहती हैं कि उसके छोटे पुत्र बाला लखंदर की मृत्यु सुहागरात के दिन सर्पदंश से हो जायेगी पर परम शिव भक्त इससे भी विचलित नहीं होता है। वह अपने छोटे पुत्र बाला लखंदर की शादी एक परम तेजस्वी कन्या बिहुला से पूरी धूमधाम से करवाता है। और, सुहागरात के दिन अपने पुत्र बाला लखंदर की सर्पदंश से रक्षा हेतु देव-शिल्पी विश्वकर्मा से एक लोहा-बांस का घर बनवाता है जिसमें रत्ती भर भी छिद्र नहीं हो। लोकगाथा के अनुसार देवी मनसा विश्वकर्मा को धमकाकर उस लोहे के घर में केश के बराबर एक छिद्र छुड़वा देती है। अपने श्राप को पूरा करने के मद्देनजर हठी देवी मनसा बाला लखंदर की सुहागरात को नाना प्रकार के विघ्न रचती हैं और कई तरह के विषैले सर्प उस लोहा-बांस के घर में भेजती हैं। पर परम तेजस्वी कन्या बिहुला के सतीत्व के तेज के सामने देवी के सारे प्रयास असफल हो जाते हैं। किंतु देवी मनसा की माया से अंततः मनियार नाम का एक विषैला नाग उस घर में प्रवेश करता और छल से बाला लखंदर को डस लेता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। बिहुला विषहरी लोकगाथा गायन के दौरान जब बाला लखंदर के सर्पदंश और सुहागरात के दिन विधवा हुई ‘छहाछत सुहागिन’ बिहुला के विलाप का प्रसंग आता है, तो हर अंगवासी की आंखों से आंसूओं की धार बहने लगती है।
कथा का उत्कर्ष यह है कि सुहागरात को विधवा हुई परम तेजस्वी, दृढ़ निश्चयी कन्या बिहुला इस घोर आपदा से विचलित नहीं होती और अपनी सतीत्व के बल पर अपने मृत पति बाला का जीवन पुनः प्राप्त करने का निश्चय करती है। अपने मृत पति बाला लखंदर का शव एक मंजूषा नुमां नौका पर लेकर बिहुला चम्पा से गंगा नदी मार्ग से होकर नाना प्रकार के विपदाओं का सामना करते हुए सदेह स्वर्ग-लोक को जाती है और अपने तप के बल पर मृत पति के प्राण व श्वसुर चांदो की खोई हुई धन-सम्पदा भगवान इंद्र से प्राप्त कर वापस चम्पानगरी आती है। अंततः बिहुला के अनुरोध पर शिवभक्त चांदो सौदागर देवी मनसा विषहरी की पूजा को तैयार हो जाता है और तभी से भूलोक पर देवी मनसा का पूजन प्रारंभ होता जाता है। यह परंपरा आज तक विद्यमान है।
अंगभूमि के जनमानस में सती बिहुला की छवि एक दृढ़ निश्चयी, कर्मनिष्ठ और उदात्त चरित्र वाली नारी की है जिनका संघर्ष अनुकरणीय है। सावित्री-सत्यवान की कथा की तरह महत्वपूर्ण है जिसमें वट सावित्री व्रत-कथा की ही तरह बिहुला अपने सतीत्व के बल से सदेह स्वर्ग जाकर सर्पदंश से मृत अपने पति बाला लखंदर के प्राण इंद्रदेव को प्रसन्न कर वापस प्राप्त करती है। साथ ही, अपने मृत परिजनों के भी प्राण व अपने श्वसुर की विलुप्त धन-सम्पदा को भी प्राप्त करती हैं व रूष्ट देवी मनसा को प्रसन्न कर जगत का कल्याण करती हैं। यही कारण है कि अंग जनपद की महिलाएं अपने परिवार की सुख-समृद्धि तथा संतान की रक्षा हेतु विषहरी पूजा के अवसर पर पान-प्रसाद युक्त डलिया व मंजूषा की प्रतिकृति देवी को चढ़ाकर मंगल-कामना करती हैं। अंगभूमि की मनसा विषहरी पूजा का न सिर्फ धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व है, वरन् इसके ऐतिहासिक-पुरातात्विक संदर्भ भी हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) द्वारा भागलपुर के कहलगांव स्थित प्राचीन विक्रमशिला महाविहार स्थल तथा पटना विश्वविद्यालय के पीजी पुरातत्व विभाग द्वारा चंपानगर में किये गये उत्खनन में देवी मनसा विषहरी सर्प आकृतियों व अन्य मातृ देवियों सहित सर्प पूजन से संबंधित कई प्राचीन मूर्तियां मिली हैं।
अंगभूमि भागलपुर की बिहुला-विषहरी की ‘गाथा‘ एक ‘जीवंत लोक-गाथा’ जिसके सम्पूर्ण विधान सदियों से विषहरी पूजा के दौरान पूरी लोक-भागीदारी के साथ दुहराये जाते हैं। यदि इसे भागलपुर और बिहार ही नहीं, पूरे देश की एक विशिष्ट ‘अमूर्त धरोहर’ कहा जाय, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।