Homeअध्यात्मनागेश्वर ज्योतिर्लिंग: जब भक्त की रक्षा के लिए स्वयं प्रकट हुए भगवान

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग: जब भक्त की रक्षा के लिए स्वयं प्रकट हुए भगवान

अंजनी सक्सेना

स्मार्ट हलचल|भगवान शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग दसवां है। यहां भगवान शंकर नागेश्वर स्वरूप में अपने परम भक्त सुप्रिय की रक्षा करने के लिए प्रकट हुए थे और भक्तों के अनुरोध पर ज्योतिर्लिंग स्वरुप में यहीं प्रतिष्ठित हो गए।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का वर्णन श्रीशिवमहापुराण एवं स्कंद पुराण के अलावा वामन पुराण सहित अन्य अनेक ग्रंथों में भी मिलता है। श्रीशिवमहापुराण के अनुसार प्राचीन समय में दारूक नामक एक भयानक राक्षस हुआ करता था। उसकी पत्नी दारुका माता पार्वती की कृपापात्र थी। जिससे वह अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति दारुक बलशाली राक्षस था। वह दूसरे अन्य राक्षसों के साथ मिलकर यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था। वे पश्चिमी समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार वाले दारुक वन में निवास करते थे। माता पार्वती के वरदान से दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्व दारूका को ही सौंपा था इस कारण यह वन सदैव उसके पास रहता था। दारुक,दारुका एवं उनके सहायक राक्षस वहां के निवासियों को तरह तरह से प्रताड़ित करते थे। उनके अत्याचारों से पीड़ित रहवासियों ने महर्षि और्व को अपना कष्ट सुनाया।
शरणागतों की रक्षा के धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा।
महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मारते हैं, तो शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं, तो पराजित होकर स्वयं मर जाएँगे। उस समय दारूका ने माता पार्वती के वरदान का प्रयोग किया और वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। अब ये राक्षस समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार धर्मात्मा और सदाचारी सुप्रिय नामक शिव भक्त वैश्य नौका पर सवार होकर समुद्र में जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय दारूक राक्षस ने नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने सुप्रिय सहित सभी लोगों का अपहरण कर उन्हें बन्दी बना लिया। सुप्रिय शिव जी के अनन्य भक्त थे, इसलिए वह हमेशा शिवजी की आराधना में लगे रहते थे। कारागार में भी उनकी आराधना बन्द नहीं हुई और उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी शिवजी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। कारागार में सभी बंदी शिवभक्ति में लीन हो गए।
जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उबल उठा। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे डाँटते हुए बोला- वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौनसा षड्यन्त्र रच रहा है?
राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि इस शिवभक्त को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरे नहीं और संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगे रहे।
सुप्रिय की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ। उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यमान थे। वैश्य सुप्रिय ने शिव परिवार सहित उस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन किया।

इतिसं प्रार्थित: शम्भुर्विवरान्निर्गतस्तदा।
भवनेनोत्तमेनाथ चतुर्द्वारयुतेन च॥
मध्ये ज्योति:स्वरूपं च शिवरूपं तदद्भुतम्।
परिवारसमायुक्तं दृष्टवा चापूजयत्स वै॥
पूजितश्च तदा शम्भु: प्रसन्नौ ह्यभवत्स्वयम्।
अस्त्रं पाशुपतं नाम दत्त्वा राक्षसपुंगवान्॥
जघान सोपकरणांस्तान्सर्वान्सगणान्द्रुतम्।
अरक्षच्च स्वभक्तं वै दुष्टहा स हि शंकर:॥(श्री शिवमहापुराण)
तब सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों,उनके अनुचरों को तथा उनके सारे संसाधनों, अस्त्रों-शस्त्रों को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि, आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।
राक्षसों पर आये इस भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दीन भाव से देवी पार्वती की स्तुति की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा- बताओ, मैं तेरा कौन सा प्रिय कार्य करूँ? दारूका ने कहा- माँ! आप मेरे कुल की रक्षा करें।
पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा- नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है। माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि, मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप प्रमाणित करें। यह राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुल कर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।
माता पार्वती के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा- प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्ति पूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा।
कलियुग के अन्त में तथा सत युग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा। तब से यहां विराजित ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव नागेश्वर कहलाये और पार्वती देवी भी नागेश्वरी के नाम से विख्यात हुईं। जो तीनों लोकों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं।

ति दत्तवर: सोऽपि शिवेन परमात्मना।
शक्त: सर्वं तदा कर्त्तु सम्बभूव न संशय:॥
एवं नागेश्वरो देव उत्पन्नो ज्योतिषां पति:।
लिंगस्पस्त्रिलोकस्य सर्वकामप्रद: सदा॥
एतद्य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्।
सर्वान्कामानियाद्धिमान्ममहापातक नाशनान्॥

अर्थात् जो मनुष्य प्रतिदिन नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है।
श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात राज्य के दारुका वन में स्थित है। वैसे यह ज्योतिर्लिंग प्रामाणिक रूप से कहाँ स्थित है, इस बारे में अलग अलग मान्यताएं हैं, फिर भी गुजरात राज्य में गोमती द्वारका के बीच दारूकावन क्षेत्र में इसके प्रामाणिक स्थान होने की मान्यता अधिक है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग होने के दावे जिन अन्य दो स्थानों पर किए जाते हैं, उनमें से एक आंध्रप्रदेश में अवढा गांव में माना जाता है। यह अवढा गांव महाराष्ट्र राज्य के परभनी क्षेत्र से होकर हिंगोली जाते हुए पड़ता है। दूसरा स्थान उत्तराखंड राज्य में अल्मोड़ा से सत्रह मील दूर जोगेश्वर नामक तीर्थ बताया जाता है। यहाँ उत्तर वृंदावन आश्रम के पास जोगेश्वर नाम का एक पुराना मंदिर है। इससे डेढ़ मील की उतराई पर देवदार के सघन वृक्षों के मध्य नदी के तट पर नागेश्वर ज्योतिर्लिंग बताया जाता है। स्कंद पुराण में इन्हीं नागेश लिंग का वर्णन एवं महात्म्य वर्णित है जबकि श्री शिव महापुराण में गुजरात राज्य के भीतर ही दारूकावन क्षेत्र में स्थित ज्योतिर्लिंग को ही नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। श्रीशिवमहापुराण की द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तुति में भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग को दारूकावन क्षेत्र में ही वर्णित किया गया है।
वैसे मान्यता यह भी है कि देवाधिदेव महादेव अपने नागेश्वर स्वरूप में कहीं भी विराजमान हों पर आदरपूर्वक जो भी व्यक्ति इस शिवलिंग की उत्पत्ति एवं महात्म्य को सुनेगा और इसके दर्शन करेगा, वह सभी पापों से मुक्त होकर समस्त सुखों को भोगता हुआ अंततः परमपद को प्राप्त होगा।

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