प्रियंका सौरभ
स्मार्ट हलचल| भारत के शिक्षा तंत्र में दशकों से एक अदृश्य रेखा बनी रही है — आगे की बेंच और पीछे की बेंच। जहाँ आगे की बेंच पर बैठने वाले छात्र अक्सर “मेधावी” माने जाते हैं, वहीं पीछे की बेंच को उपेक्षा और उपहास का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन केरल के सरकारी स्कूलों में हाल ही में जो बदलाव लाया गया है, वह इस मानसिकता को जँड से चुनौती देता है। अब वहां “बैक बेंचर्स” नाम की कोई चीज़ नहीं है।
केरल के स्कूलों में अब छात्रों को गोल घेरे में या यू-शेप में बैठाया जा रहा है, जिससे हर बच्चा शिक्षक के सामने होता है, न कोई आगे, न कोई पीछे। यह केवल एक बैठने की शैली नहीं, बल्कि एक वैचारिक क्रांति है — यह इस सोच को तोज़ता है कि सीखने का अधिकार कुछ बच्चों तक सीमित है।
इस बदलाव का उद्देश्य स्पष्ट है: बराबरी, भागीदारी और समावेशिता। हर बच्चा अब शिक्षक से आँख मिलाकर संवाद कर सकता है, अपने सवाल पूछ सकता है और खुद को महत्वपूर्ण महसूस कर सकता है।
बताया जाता है कि यह नई व्यवस्था एक फिल्म में दिखाई गई कल्पना से प्रेरित है। कभी-कभी सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि बदलाव की प्रेरणा भी बन जाता है। जिस तरह “तारे ज़मीन पर” ने विशेष बच्चों को लेकर दृष्टिकोण बदला, वैसे ही इस फिल्म ने शिक्षा व्यवस्था पर सोचने को मजबूर किया। केरल ने उस कल्पना को ज़मीन पर उतारा — और यही वह दृष्टिकोण है जो भारत के शिक्षा क्षेत्र में एक नयी रोशनी बन सकता है।
शिक्षा केवल किताबी ज्ञान नहीं, वह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। एक बच्चा जो हमेशा पीछे बैठाया जाता है, उसके आत्मविश्वास पर इसका असर पड़ता है। उसे लगता है कि वह “कमतर” है, “गैर ज़रूरी” है। लेकिन जब वही बच्चा शिक्षक के सामने बैठता है, चर्चा का हिस्सा बनता है, तो उसके भीतर एक नयी ऊर्जा जन्म लेती है।
नई बैठने की व्यवस्था केवल छात्रों के लिए नहीं, शिक्षकों के लिए भी एक चुनौती और अवसर दोनों है। अब शिक्षक को केवल सामने खड़े होकर भाषण देने वाला नहीं, बल्कि बातचीत और सहभागिता में विश्वास रखने वाला मार्गदर्शक बनना होगा। यह “एक तरफा शिक्षा” को “दो तरफा संवाद” में बदलता है।
यह नई व्यवस्था शिक्षा में लोकतंत्र लाने की शुरुआत है। जहाँ सभी बच्चों को समान दृष्टि से देखा जाता है। यह भारत के संविधान की उस मूल भावना के अनुरूप है, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात करता है।
भारत में शिक्षा को लेकर अक्सर यह शिकायत रहती है कि कक्षा का वातावरण असमानता को बढ़ावा देता है। कुछ बच्चों को ही शिक्षक का ध्यान मिलता है, जबकि अन्य बच्चे पीछे छूट जाते हैं। केरल की यह पहल इस असंतुलन को खत्म करने का प्रयास है। जब हर बच्चा एक जैसे स्थान पर बैठेगा, तो शिक्षक की दृष्टि और संवाद में भी समता आएगी।
शिक्षा के समाजशास्त्र के नजरिए से देखें तो यह व्यवस्था वर्ग, जाति और आर्थिक स्थिति से जुड़ी भेदभावपूर्ण मानसिकता को भी चुनौती देती है। पिछली पंक्तियों में अक्सर वे बच्चे बैठते थे जो या तो सामाजिक रूप से दबे हुए होते थे या जिनका आत्मविश्वास कम होता था। अब जब वे केंद्र में होंगे, तो उनके आत्म-सम्मान में वृद्धि होगी।
केरल का यह प्रयोग इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह केवल नीति-निर्माताओं द्वारा ऊपर से थोपा गया बदलाव नहीं है, बल्कि शिक्षकों, छात्रों और स्कूल प्रशासन की सामूहिक सोच और सहमति से उपजा विचार है। यह समावेशी शिक्षा के वैश्विक सिद्धांतों के अनुकूल है, जिसमें हर बच्चे को समान अवसर देना प्राथमिकता है।
नई व्यवस्था बच्चों को पारंपरिक अनुशासन की जज़गह से निकालती है और उन्हें संवाद, सहयोग और सहभागिता की दुनिया में लाती है। यह शिक्षण पद्धति को अधिक संवादात्मक, जीवंत और व्यावहारिक बनाती है।
इस मॉडल का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है: जब बच्चा खुद को महत्वपूर्ण महसूस करता है, तो उसकी सीखने की क्षमता बढ़ जाती है। आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास और कक्षा में सक्रियता आपस में जुड़े हुए हैं। इसलिए यह व्यवस्था केवल बैठने की शैली नहीं, बल्कि सीखने की संस्कृति में बदलाव है।
व्यवहारिक दृष्टि से यह व्यवस्था आसान नहीं है। देश के अधिकांश स्कूलों में कक्षाएं छोटी हैं, छात्र संख्या अधिक है और फर्नीचर सीमित। लेकिन यह असंभव भी नहीं है। यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो और शिक्षक समुदाय इस दिशा में तैयार हो, तो यह मॉडल अन्य राज्यों में भी अपनाया जा सकता है।
देशभर में शिक्षा बजट का एक हिस्सा कक्षा के पुनर्गठन में लगाया जाए तो यह केवल भौतिक परिवर्तन नहीं, मानसिक और शैक्षणिक बदलाव भी लेकर आएगा। इसके लिए शिक्षक प्रशिक्षण, स्कूलों की संरचना और पाठ्यचर्या में भी सुधार जरूरी है।
निजी स्कूलों को भी इस पहल से सीख लेनी चाहिए। अक्सर निजी स्कूल केवल रैंकिंग और परीक्षा परिणामों पर ध्यान देते हैं, लेकिन समावेशी, संवेदनशील और संवाद आधारित शिक्षा की ज़रूरत उन्हें भी है। अगर वे वास्तव में छात्रों का सम्पूर्ण विकास चाहते हैं, तो इस मॉडल को अपनाना न केवल उचित होगा बल्कि ज़रूरी भी।
माता-पिता, अभिभावकों और समाज को भी इस पहल का स्वागत करना चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल अंक लाने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक सामाजिक, मानसिक और नैतिक विकास की प्रक्रिया है। जब बच्चा बराबरी में बैठेगा, सुनेगा और सुनेगा जाएगा, तभी वह एक जिम्मेदार नागरिक बनेगा।
यह व्यवस्था उस सोच को भी चुनौती देती है कि शिक्षक सर्वोपरि है और छात्र केवल एक श्रोता। अब शिक्षक और छात्र दोनों संवाद के भागीदार हैं। यह आधुनिक शिक्षा की मूल भावना है, जहाँ शिक्षा ‘सत्ता’ नहीं बल्कि ‘साझेदारी’ है।
केरल का यह प्रयोग भारत की शिक्षा नीति 2020 के विजन के भी अनुरूप है, जो रटंत विद्या से हटकर सोचने, संवाद करने और रचनात्मक बनने पर बल देती है। जब छात्र संवाद के केंद्र में होंगे, तो उनकी सोचने की क्षमता और आत्म-अभिव्यक्ति का स्तर भी बढ़ेगा।
इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। एक ऐसा बच्चा जो आज अपने शिक्षक से बिना डरे बात कर पा रहा है, कल समाज में भी अपनी बात कहने का साहस रखेगा। वह सिर्फ नौकरी खोजने वाला नहीं, बल्कि समाज को दिशा देने वाला बन सकता है।
शिक्षा को लेकर हमारे समाज में अक्सर एक डर का माहौल बना रहता है — परीक्षा का डर, अंक का डर, असफलता का डर। लेकिन जब कक्षा का वातावरण सहभागी और संवादात्मक होता है, तो ये डर धीरे-धीरे खत्म होते हैं। यही डर-मुक्त शिक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम है।
संक्षेप में कहें तो केरल के स्कूलों में बैठने की इस नई व्यवस्था ने केवल कुर्सी-मेज़ें नहीं बदली हैं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के सोचने, सीखने और समाज से जुड़ने के तरीके को बदला है। यह परिवर्तन छोटे स्तर पर शुरू हुआ है, लेकिन इसके परिणाम बहुत बड़े हो सकते हैं।
आशा है कि भारत के अन्य राज्य भी इस प्रयोग से प्रेरणा लेकर शिक्षा को ‘प्रतियोगिता’ से निकालकर ‘समावेशिता’ की ओर ले जाएंगे। जब हर बच्चा केंद्र में होगा, तभी समाज का केंद्र भी न्याय, समानता और सहभागिता पर टिकेगा।