शाहपुरा । उनकी सजीव उपस्थिति भले ही आज हमारे साथ नहीं है, पर इस पावन अवसर पर मैं उनके चरणों में कोटि-कोटि श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए स्वयं को धन्य अनुभव कर रहा हूँ। मेरे जैसा एक सामान्य और अकिंचन प्राणी उनके स्नेह, संस्कारों और मार्गदर्शन की छत्रछाया में इतना बड़ा हो पाया। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है। उन्होंने केवल मुझे जन्म नहीं दिया, बल्कि मेरे व्यक्तित्व को तराशकर मुझे मानवता, कर्तव्य और कर्म का पाठ पढ़ाया।
8 दिसम्बर 1943 को अखंड भारत की पावन भूमि पर जन्मे पूज्य पिताजी श्रीमान ताराचन्द जी पेसवानी 29 जुलाई 1998 को हमें छोड़कर दिव्य लोक की ओर प्रस्थान कर गए। परंतु आज भी उनकी अनुपस्थिति का वह आत्मिक और सांसारिक रिक्तापन मन को उद्वेलित कर जाता है। क्योंकि वे केवल हमारे पेसवानी परिवार के मुखिया ही नहीं थे। वे हमारी सुरक्षा-कवच, प्रेरणाशक्ति और जीवन-पथ के सबसे विश्वसनीय मार्गदर्शक थे।
आज यदि पत्रकारिता और सार्वजनिक जीवन में मैंने कोई भी छोटी-बड़ी उपलब्धि पाई है तो वह केवल उनके आशीर्वाद और विश्वास के कारण। कलम को पहली बार मेरे हाथों में थमाने वाले मेरे पिताश्री ही थे। मेरे प्रथम गुरु, मेरे प्रथम आदर्श, और मेरे जीवन के पहले शिक्षक।
’पिताजी, आपकी कठिन तपस्या, मेहनत और अनुकरणीय जीवन-पद्धति ने ही मुझे आज इस स्थिति तक पहुँचाया है।’ मैं निरंतर आपके उन सपनों को पूरा करने का प्रयास कर रहा हूँ, जिन्हें आपने मेरे मन में बोया था। पिताजी, यदि कभी मैं जीवन-पथ पर भटक जाऊँ तो वहीं से मुझे रोककर सही दिशा दिखाने की कृपा करते रहना, क्योंकि आपका साया ही मेरी सबसे बड़ी पूँजी है।
आप मेरे जीवन के प्रथम हीरो थे, और हैं। आपकी स्मृति आज भी मुझे उतनी ही शक्ति देती है, जितनी आपकी उपस्थिति में मिलती थी। आपने परिवार को एकसूत्र में जोड़कर रखने की जो अद्भुत कला दिखाई, वह आज भी हमारे लिए सनातन प्रेरणा है। चार भाई-बहनों के बीच जो प्रेम और सामंजस्य आपने स्थापित किया था, वह आज भी एक अलौकिक रहस्य जैसा प्रतीत होता है।
जीवन और मृत्यु के गूढ़ सिद्धांतों पर विचार करते हुए यही लगता है कि मुक्ति और पुनर्जन्म का निर्णय हमारे कर्मों के हाथ में है। इस संसार में कोई भी व्यक्ति सदा रहने के लिए नहीं आया। श्रीमद्भागवत में भी लिखा है कि यह संसार उस प्याऊ की भांति है, जहाँ पथिक कुछ समय साथ बैठते हैं, प्यास बुझाते हैं और फिर अपनी-अपनी राह निकल पड़ते हैं। पिताजी भी अपनी यात्रा पूरी कर आगे की दिव्य यापन-यात्रा पर जा चुके हैं। हमें उनके जीवन से यही सीख मिलती है। कर्म, सेवा और सत्य ही मनुष्य को अमर बनाते हैं।
पत्ता टूटा डारि से, ले गयी पवन उड़ाय,
अबके बिछुड़े कबहूँ मिले, दूर पड़ेंगे जाय
पिताजी ने कर्म को पूजा माना, परिश्रम को सेवा, दीन-हीन की सहायता को सर्वोपरी, और ईमानदारी को जीवन-साधना। इन मूल्यों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। यही उनके उपदेश आज मेरे लिए ब्रह्मवाक्य हैं, और इन्हीं पर चलना मेरी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि है।
आज उनके 82वें जन्मोत्सव पर मैं प्रभु से यही प्रार्थना करता हूँ कि उनके पावन आशीर्वाद हम पर सदा बने रहें। हमारे परिवार को एकसूत्र में बाँधे रखने की उनकी शक्ति हमें भी प्राप्त हो। चार भाइयों में से दो आज दिव्य लोक में उनके साथ ही हैं। उनकी स्मृतियाँ भी आज हृदय में उतनी ही जीवंत हैं।
पिताजी, आपके जन्मोत्सव पर परिवार द्वारा किए गए प्रत्येक सामाजिक और मानवता-सम्बंधी कार्य को आप स्वीकार कर हमें आशीर्वाद दें। पूरा पेसवानी परिवार आज भी आपके स्नेहिल आशीर्वाद का आकांक्षी है।
अंत में
आपके चरणों में शत-शत नमन।
प्रार्थना है कि हमें वह शक्ति दें, जिससे हम आपके बताए मार्ग पर दृढ़ता और निष्ठा के साथ चल सकें और अपने जीवन को आपके आदर्शों के अनुरूप बना सकें।
सादर,
’मूलचन्द पेसवानी, बबलू’
पत्रकार, शाहपुरा (भीलवाड़ा)


