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देश भर में निजीकरण की जो आँधी में क्या बह जाएगा पोस्ट ऑफिस भी !

 अशोक भाटिया , मुंबई
स्मार्ट हलचल/वित्त वर्ष 2021-22 के लिए पेश बजट में केंद्रीय सार्वजनिक कंपनियों (सीपीएसयू) के विनिवेश और उनके निजीकरण को लेकर रोडमैप पेश किया गया था, जिसके तहत रणनीतिक सेक्टर को छोड़ अन्य सभी सेक्टर के पीएसयू के निजीकरण की घोषणा की गई थी। वित्त मंत्रालय ने तब आइडीबीआई बैंक के अलावा दो अन्य सरकारी बैंक और एक सरकारी बीमा कंपनी के निजीकरण का प्रस्ताव रखा था। इनमें बीपीसीएल (BPCL) के अलावा बीईएमएल (BEML), शिपिंग कॉर्प (Shipping Corp), पवन हंस (Pawan Hans), सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक (Central Electronic) और नीलांचल इस्पात (Neelanchal Ispat) शामिल हैं। बीपीसीएल के निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है। अब देखा जाय तो धीरे – धीरे सरकारी निजीकरण की जो आँधी में बहने के लिए तैयार है भारतीय डाक तार विभाग का पोस्ट ऑफिस भी ! वैसे अभी जो हालात बताते है कि इसकी शुरुवात हो चुकी है ।
आज देखा जाय तो चाहे बड़े शहर हों, छोटे शहर हों, गांव हों या गांव। हर जगह का पोस्ट ऑफिस आम आदमी के लिए स्नेह का स्थान बन जाता है। क्यों? इसलिए यह विभाग जनता को कई अंतरंग सेवाएं प्रदान करता है। आम जनता के बीच डाक विभाग के साथ अंतरंगता विकसित करने का पहला कारण विश्वसनीयता है, चाहे वह पत्र हो या पैसा; वे किसी भी क्षेत्र, यहां तक कि दूरदराज के क्षेत्रों तक पहुंच जाएंगे।
दूसरा कारण है कुछ सेवाओं की मामूली या बहुत सस्ती दरें। इसके थोड़ा भावुक होने का तीसरा कारण है पोस्ट ऑफिस की सरलता। पोस्ट ऑफिस को ध्यान में लाइए। कर्मचारियों की समग्र बुनियादी संरचना सादगी में देखी जाएगी। आम आदमी के मानसिक, भावनात्मक और व्यावहारिक जीवन के साथ पोस्ट ऑफिस के रिश्ते का एक सांस्कृतिक पहलू रहा : ‘बुक पोस्ट’!
सरकार द्वारा 18 दिसंबर, 2024 को डाकघर अधिनियम, 2023 के तहत दशकों पुरानी सेवा बंद कर दी गई थी, जिसने निमंत्रण, शादी के कार्ड, ग्रीटिंग कार्ड, पैम्फलेट, बुकलेट और सबसे महत्वपूर्ण, सभी प्रकार की पुस्तकों को रियायती दर पर भेजने की अनुमति दी थी। मुद्रित पाठ के साथ कोई लिखित पाठ नहीं होना चाहिए, और मुद्रित आइटम को एक लिफाफे में बंद नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन खुला होना चाहिए।
किताबें समाज की उन्नति में बड़ी भूमिका निभाती हैं। किताब पढ़ने के परिणाम तत्काल नहीं होते हैं। लेकिन किताबें एक परिपक्व समाज के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। किताब पढ़ने के लाभ व्यापक, दूरगामी हैं। विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर पुस्तकें सूचना, विचारों के ज्ञान और मनोरंजन के माध्यम से समाज को प्रबुद्ध करती हैं। हालांकि, कुछ लोग आश्चर्यचकित हो सकते हैं कि पुस्तकों का महत्व सर्वविदित है। बुक पोस्ट सेवा बंद होने से किताबों के प्रसार पर क्या बड़ा फर्क पड़ेगा?
ये सच है कि कूरियर सेवा ने बहुत सारे पैर फैलाए हैं। बहुत से लोग इस सेवा का उपयोग करते हैं। फिर भी पद के महत्व का एक कारण वित्तीय है और दूसरा देश के हर कोने में फैले डाक खातों का नेटवर्क है। पत्र, पैसा, किताबें देश के किसी भी कोने से आ और पहुंच सकती हैं। डाक विभाग दूरस्थ क्षेत्रों के रूप में सेवाएं प्रदान करने से इनकार नहीं कर सकता है। कूरियर सेवा दूरस्थ क्षेत्रों की सेवा के लिए बाध्य नहीं है।
दूसरा प्रश्न यह है कि जब पुस्तकें भेजने के लिए डाक की पार्सल सेवा है तो पुस्तक डाक सेवा बंद करने से पुस्तक प्रसार पर क्या विपत्ति आएगी? – वास्तविक प्रश्न लागत का है। 250 ग्राम की एक पुस्तक की कीमत 250 ग्राम की पुस्तक के लिए बीस रुपये और 1 किग्रा वजन की पुस्तक के लिए 40 रुपये होती थी। तो यह एक किलो के लिए 92 रुपये होगा, जो अंतर के दोगुने के करीब है और हमारे पास एक पाठक वर्ग है जो इस बढ़ी हुई लागत के कारण किताबों से दूर जाना अपरिहार्य बना देगा।
पुस्तक डाक सेवा दशकों पहले शैक्षिक, सूचनात्मक, वैचारिक और दिलचस्प पुस्तकों के लिए समाज के कमजोर वर्गों तक पहुंचना आसान बनाने के व्यापक उद्देश्य के साथ शुरू की गई थी। बुकपोस्ट सेवा बंद होने से पुस्तकों के बारे में हतोत्साहित हो सकता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
गौरतलब है कि आज देश भर में निजीकरण की जो आँधी चल रही है, जिसमें सभी सरकारी सेवाओं का बहुत तेजी से निजीकरण हो रहा है। भारतीय डाक विभाग में भी यह प्रक्रिया काफ़ी पहले से ही शुरू हो गई थी, लेकिन लगता है कि सरकार ने अब इसे पूरी तरह से प्राइवेट कोरियर कंपनियों को सौंपने का अपना मन बना लिया है। हाल ही में डाक विभाग ने सस्ती रजिस्टर्ड बुक पोस्ट सेवा समाप्त कर दी है तथा इसे एक नया नाम दिया गया है, जिसकी दरें पार्सल से तो कम होंगी, लेकिन अब तक जारी बुक पोस्ट के मुक़ाबले क़रीब ढाई से तीन गुना ज़्यादा होगी। अभी पिछले साल ही नवम्बर में सभी डाक सेवाओं पर 18% जीएसटी लगा दिया गया था, जिससे डाक से पुस्तकें भेजना पहले ही से काफ़ी महंगा हो गया था। कहने की ज़रूरत नहीं है कि अब छोटे प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं, लेखकों और सम्पादकों के लिए किताबें डाक से भेजना बहुत मुश्किल हो गया है । इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव छोटे और गैर-व्यवसायिक प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं पर पड़ रहा है, जो पहले ही से कागज़ और छपाई की अत्यधिक मूल्यवृद्धि के कारण बेतहाशा बढ़ती कीमतों से जूझ रहे हैं।
वैसे यह होना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है , क्योंकि देश भर में जो निजीकरण की आँधी चल रही है, उसमें रेलवे तथा बैंकिंग सेक्टर की तरह लम्बे समय से भारतीय डाक विभाग का भी निजीकरण करके उसे पूर्णतः प्राइवेट कंपनियों को सौंपने का उपक्रम लगातार जारी है। एक तरफ़ कीमतें बढ़ाई जा रही हैं, दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों से डाक सेवाओं को पूरी तरह से तबाह किया गया है। नयी नियुक्तियाँ बिलकुल बंद हैं। अधिकाधिक काम ठेकों पर कराए जा रहे हैं, इसलिए कर्मचारियों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है।
भारतीय डाक सेवा की स्थापना के क़रीब 170 साल बीत गए। 1 अक्टूबर 1854 को तत्कालीन भारतीय वायसराय लार्ड डलहौजी ने इस सेवा को केन्द्रीकरण किया था, उस वक्त ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत आने वाले 701 डाकघरों को मिलाकर भारतीय डाक विभाग की स्थापना हुई थी। वारेन हेस्टिंग्स ने कोलकाता में प्रथम डाकघर वर्ष 1774 में स्थापित किया था। अंग्रेजी राज में ही पूरे देश में डाक सेवा का जाल बिछाया गया। सूदूर ग्रामीण, पर्वतीय और रेगिस्तानी इलाक़ों तक में डाकघरों की स्थापना की गई। आज़ादी के बाद डाक और टेलीग्राम सेवा का काफ़ी विस्तार हुआ। लद्दाख में देश के अंतिम गाँव तक ; जहाँ आबादी बहुत कम है, वहाँ भी डाक-तार विभाग की स्थापना की गई। दुर्गम पर्वतीय इलाक़ों में जहाँ की आबादी बहुत कम है, वहाँ भी पत्र पहुँचाने पोस्टमैन जाते थे। गाँव‌ में तो पोस्टमैन से ‌एक‌ आत्मीय रिश्ता तक बन जाता था, क्योंकि जब साक्षरता कम थी, तब पोस्टमैन ही चिट्ठी लिखते भी थे और पढ़कर सुनाते भी थे। सुख-दु:ख की ख़बर पहुँचाने के लिए टेलीग्राम की बहुत उपयोगिता‌ थी, हालाँकि 14 जनवरी 2013 को टेलीग्राम सर्विस बंद कर दी गई। इसके लिए यह तर्क दिया गया कि मोबाइल और ई-मेल आ जाने के बाद इसकी उपयोगिता अब समाप्त हो गई है, हालाँकि बहुत से विकसित देशों तक में यह सेवा अभी भी चल रही है।
पहले बहुत ज़रूरी कागज़ात रजिस्टर डाक से भेजे जाते थे। मैं खुद वसई से दिल्ली के अख़बारों में छपने के लिए लेख साधारण लिफाफे में रखकर भेज देता था। वह दो-तीन दिन में पहुँच जाता था,शायद ही कोई पत्र गायब हुआ हो। दिल्ली में एक लेखक और सम्पादक बता रहे थे कि दिल्ली में एक दिन में दो बार पत्र बाँटे जाते थे।‌ रक्षाबंधन और नववर्ष के अवसर पर राखियाँ तथा शुभकामना संदेश पहुँचाने के लिए अस्थायी पोस्टमैन तक रखे जाते थे। आज हालात ये हैं कि रजिस्टर्ड डाक दिल्ली तक में दो-तीन दिन में मिलती है।‌ जब स्पीड पोस्ट की शुरूआत हुई,तब यह कहा गया कि देश के किसी भी कोने में पत्र 24 घंटे में पहुँच जाएगा।‌ उस समय रात में भी स्पीड पोस्ट पहुँचाने के लिए घरों तक डाक विभाग की गाड़ी आती थी। अब रजिस्टर्ड पोस्ट और स्पीड पोस्ट में कोई अन्तर नहीं रह गया है। अब चौबीस घंटे तक छोड़िए, दो-तीन दिन तक एक ही शहर में स्पीड पोस्ट पहुँच‌ जाए, तो बहुत बड़ी बात है। अकसर ऐसा होता है कि रजिस्टर पैकेट पोस्ट ऑफिस में पड़े रहते हैं, पोस्ट ऑफिस से पता लगता है कि इसको वितरित करने वाला पोस्टमैन नहीं है, आप चाहें तो आकर अपने पैकेट ले जाएँ। मैं तो अकसर अपने पैकेट लेने के लिए पोस्ट ऑफिस जाता हूँ।
टेक्नोलॉजी का विकास होने के साथ-साथ निश्चित रूप से लोग पत्र कम लिख रहे हैं, फिर भी डाकघर का महत्त्व अभी भी कम नहीं हुआ है। सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की ढेरों डाक सामग्री डाकघरों से जाती हैं, लेकिन सरकार ने योजना के तहत अब डाक विभाग की स्थिति ऐसी कर दी है कि अब तो सरकारी विभाग भी डाकघरों से मुख मोड़ रहे हैं और अपनी सामग्री प्राइवेट कोरियर सर्विस से भेज रहे हैं।‌ आजकल अधिकांश सरकारी और प्राइवेट बैंक चेकबुक-एटीएम आदि सामग्री प्राइवेट कोरियर सर्विस से ही भेज रहे हैं।‌ धीरे-धीरे ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि डाक सेवाओं का पूरी तरह से निजीकरण कर दिया जाए। अब सरकार का सारा ध्यान डाकघर के बैंकिंग सेक्टर पर है, इससे सम्बन्धित ढेरों योजनाएँ आ रही हैं तथा बचे-खुचे कर्मचारी उसी के कामों में लगे रहते हैं। बैंकों की तरह डाकघर में भी नियुक्तियाँ बंद हैं तथा ठेके पर ही कर्मचारी रखे जा रहे हैं।
डाक सेवाओं का निजीकरण बड़ी कोरियर कंपनियों को फ़ायदा पहुँचाने‌ के लिए किया जा रहा है। जो लिफाफा देश के किसी भी भाग में पाँच या दस रुपए में पहुँच जाता था, अब उसे कोई भी कोरियर सौ रुपए से कम में नहीं पहुँचाता है। डाक सेवाओं के निजीकरण से सबसे ज़्यादा नुकसान देश के ग्रामीण इलाक़ों का हुआ है। वहाँ सस्ते में पत्र और किताबें पहुँचाना अब असम्भव हो गया है, क्योंकि अधिकांश बड़ी कोरियर कंपनियों की पहुँच गाँव तक नहीं है। वास्तव में उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से समाज के छोटे-मझोले और ग़रीब तबकों की ही तबाही और बरबादी हो रही है। डाक सेवाओं के निजीकरण से इन्हीं तबकों के छोटे व्यापारियों, प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं का भविष्य ख़तरे में पड़ गया है।
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार

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