relation of politics to society
राजनीति का समाज से टूटता रिश्ता: मात्र सत्ता की राजनीति हमें सीमित एवं स्वार्थी बनाती है
राकेश मीणा
भीलवाड़ा@स्मार्ट हलचल/भारतीय राजनीति राजसत्ता की राजनीति में सिमटती चली गई है, जबकि इसका मूल स्वर समाज बदलने की राजनीति से जुड़ा रहा है। आजादी की लड़ाई के वक्त से राष्ट्र निर्माण की राजनीति समाज निर्माण की राजनीति से गहराई से जुड़ी रही। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, डॉ. राममनोहर लोहिया अपनी राजनीति को सदा से ही सामाजिक राजनीति का रूप देते रहे।
♦महात्मा गांधी की आजादी की लड़ाई की संकल्पना अछूतों, नारियों एवं गरीबों की मुक्ति से भी जुड़ी थी। आजादी के बाद भी यदि आप 70 के दशक तक की राजनीति का स्वरूप देखें तो पाएंगे कि हमारे कई राष्ट्रीय स्तर के नेता जैसे-इंदिरा गांधी, चंद्रशेखर, कामराज, चौधरी चरण सिंह, दीनदयाल उपाध्याय अपनी राजनीति को सामाजिक राजनीति से जोड़ते रहे। इन नेताओं का राजनीतिक प्रभाव उनकी सामाजिक शक्ति से ही जुड़ा रहा। 70 के दशक के बाद हालांकि भारतीय राजनीति में अपराधी, माफिया, पूंजीपति आदि बड़े पैमाने पर सक्रिय हुए, किंतु वे कभी भी भारतीय राजनीति की मुख्यधारा नहीं बन पाए।
♦जनता के साथ कोई जुड़ाव नहीं
हालांकि इनमें से कइयों ने प्रशासन के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण एवं सफल काम भी किए, किंतु इनकी राजनीति शासन प्रबंधन तक ही सीमित रह गई। इनका जनता के साथ कोई जुड़ाव नहीं बन पाया। लिहाजा भारतीय शासन एवं विकास की राजनीति मूलत: सत्ता की राजनीति में तब्दील होकर रह गई। भारतीय राजनीति एवं सामाजिक राजनीति का संबंध धीरे-धीरे टूटता-सा गया। सामाजिक राजनीति का जिम्मा एनजीओ को सौंपकर हम अपनी नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त हो गए। चुनाव के समय की बड़ी रैलियों, फेसबुक, ट्विटर, टीवी चैनल्स जनता से संवाद के साधन के रूप में रह गए। ऐसे राजनेताओं का जनता के साथ सीधा संवाद खत्म होता गया। ऐसे में जनता की आकांक्षाओं को समझने का राजनीतिक जरिया ऐसे नेताओं के पास नहीं रहा, जो मात्र सत्ता की राजनीति करने में लगे रहे। जनता एवं नेताओं के बीच एक किस्म का अप्रत्यक्ष, आभासी एवं अदृश्य प्रकार का संबंध विकसित होता गया।