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483 उम्मीदवार मैदान में उतारकर 0 पर आउट होने वाली बसपा की इस हालत का जिम्मेदार कौन?

483 उम्मीदवार मैदान में उतारकर 0 पर आउट होने वाली बसपा की इस हालत का जिम्मेदार कौन?
> अशोक भाटिया,

स्मार्ट हलचल/लोकसभा चुनाव 2024 में बहुजन समाज पार्टी की उम्मीदें पूरी तरह चकनाचूर हो गईं। 2019 में 10 सीटें जीतने वाली बसपा को उम्मीद थी कि इस बार भी पार्टी अच्छा प्रदर्शन करेगी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। इसके पीछे कई वजह है कि इस बार बसपा ने देश भर में अपने बलबूते पर चुनाव लड़ा, जबकि अन्य पार्टियां गठबंधन में चुनाव लड़ रही थीं। बहुजन समाज पार्टी का मत प्रतिशत गिरा और सीटें भी नहीं आईं। बसपा की राह दिन प्रतिदिन कठिन होती जा रही है।
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की हालत 2014 जैसी हो गई। पार्टी 10 साल पीछे चली गई। 2014 में बहुजन समाज पार्टी अपने बल पर चुनाव लड़ी थी और एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई थी। 2024 में भी पार्टी ने अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला लिया और पार्टी एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई। पार्टी की स्थिति बदतर होती जा रही है। पार्टी के देश भर में 483 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे जबकि उत्तर प्रदेश में 79 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार मैदान में थे, लेकिन कहीं से भी बहुजन समाज पार्टी के लिए खुशखबरी नहीं आई।
जहाँ रिजल्ट देख कर अधिकतर विरोधी पार्टिया खुश है वहीँ बसपा के खेमे में मायूसी फैली है और वो बसपा। बहुजन समाज पार्टी के लिए लोकसभा के नतीजे विधानसभा चुनाव 2022 से भी खराब रहे। विधानसभा में तो कम से कम पार्टी को एक सीट मिल गयी थी। लेकिन, लोकसभा के चुनाव में तो उसका खाता खुलना तो छोड़िए एक भी उम्मीद्वार ऐसा नहीं है जो दूसरे नंबर पर भी हो। ऐसी बुरी गत पार्टी ने पहले नहीं देखी थी। हाल ये है कि उत्तरप्रदेश की सभी 80 सीटों में से हर जगह बसपा या तो तीसरे नंबर पर रही या चौथे नंबर पर। वोटरों ने पार्टी का वो हाल कर दिया कि बसपा शायद ही किसी सीट पर अपनी जमानत बचा पाई।

ये हाल उस पार्टी का है जो उत्तरप्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। उसने 10 सीटें जीती थीं लेकिन, पांच साल के बाद उसे एक भी सीट नसीब नहीं हुई। बसपा को 10 फीसदी भी वोट नहीं मिले।
पार्टी कि इस हालात की सबसे बड़ी वजह तो यही मानी जा रही है कि गठबंधन के दौर में मायावती ने अकेले लड़ने का फैसला किया। उनके इस फैसले के बाद से ही कहा जा रहा था कि मायावती हारी हुई बाजी लड़ रही है। विधानसभा चुनाव 2022 के रिजल्ट के बाद ये तो तय हो ही गया था कि बसपा उत्तरप्रदेश में भाजपा और सपा से काफी पीछे हो गयी है। ऐसे में इस लोकसभा चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की कुव्वत पार्टी में तो थी नहीं। मायावती को लगा होगा कि यदि त्रिकोणीय मुकाबला हुआ तो पार्टी को कुछ सीटें मिल जायेंगी। नतीजे से पता चलता कि मुकाबला द्विपक्षीय हुआ। ऐसे में बसपा कहीं की नहीं रही।
लंबे समय से ये कहा जा रहा था मायावती भाजपा को जिताने के लिए चुनाव लड़ेंगी। चुनाव के शुरुआती दिनों में यही भावना जनमानस में फैली हुई थी। हालांकि टिकट बटवारे के बाद इस सोच में थोड़ा बदलाव तो आया लेकिन, भाजपा की बी टीम के लेवल से पार्टी उबर नहीं पायी। अब बी टीम को कौन वोट देना चाहेगा।
इसी वजह से ये माना जा रहा है कि दलित वोटबैंक में बड़ी टूट हुई है। वैसे तो ये टूट पहले से चली आ रही है लेकिन, ऐसा माना जा रहा है कि बसपा का मूल जाटव वोटरों में भी टूट हुई है। बसपा से वे टूटकर भाजपा और सपा की ओर गये लेकिन, बड़ा हिस्सा सपा और कांग्रेस की ओर जाता दिखा। जाटवों के टूटने की स्थिति में और भी दलित जातियों ने पार्टी से मुंह मोड़ लिया। नगीना और सहारनपुर की सीट इसका बढ़िया उदाहरण है। नगीना में आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रशेखर आजाद जीते। उन्हें 5 लाख से ज्यादा वोट मिले। इसका साफ मतलब है कि दलित वोटरों ने बसपा को छोड़ आजाद को वोट किया। बसपा इस सीट पर चौथी पोजिशन पर है। उसे 15 हजार भी वोट मिलता नहीं दिखा। सहारनपुर में भी ऐसा ही हुआ है। यहां बसपा तीसरे नंबर पर है। माजिद अली को डेढ़ लाख से थोड़े ज्यादा वोट मिले। इसमें बड़ी संख्या मुसलमानों की मानी जा रही है। यानी दलित वोटबैंक कांग्रेस के इमरान मसूद की ओर गया। इसी वोट की कमी के कारण मसूद कई चुनाव हारे और अब इसे पाकर वे जीत गए।
चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियां ये नैरेटिव कायम कर पाने में सफल हो पायीं कि भाजपा आरक्षण और संविधान को खत्म करने पर अमादा है। इसे कांग्रेस और सपा ने जोर-शोर से उठाया लेकिन, आरक्षण और संविधान को लेकर सबसे आगे रहने वाली बसपा के नेता ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी। दलित वोटबैंक में ये संदेश गया कि वाकयी में अब मायावती बहुजन आंदोलन से दूर हो गयी है। आकाश आनन्द को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते समय पुराने बहुजन नेताओं ने दबी जुबान यही बातें की थीं।
चुनाव के ऐन पहले आकाश आनन्द को उत्तराधिकारी घोषित करना भी बसपा के लिए घातक ही हुआ माना जा रहा है। बहुजन नेताओं ने अपने काडर को ऐसा कोई संदेश कभी नहीं दिया था। लिहाजा सीनियर लीडर्स और काडर में अंदर ही अंदर नाराजगी थी। खैर, चुनाव में आकाश आनन्द ने अपने भाषणों से माहौल तो खड़ा कर लिया था लेकिन एकाएक मायावती ने उन्हें पीछे खींच लिया। इससे जुड़े कार्यकर्ता भी हताश हो गये। अब उनके पास दूसरी पार्टी की तरफ जाने के अलावा कोई रास्ता न दिखा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनाव दर चुनाव बसपा टूटती चली जा रही है। चौंकाने वाली बात तो ये है कि अब से पहले ये कभी नहीं कहा गया कि जाटव वोटबैंक में टूट हुई लेकिन, इस बार के चुनाव में वो भी देखने को मिला। जाहिर है, 2027 में होने वाला उत्तरप्रदेश का अगला विधानसभा भी बसपा के लिए निराशाजनक ही रह सकता है। संभव है कि चन्द्रशेखर आजाद के इर्द गिर्द बहुजन जमात सिमटने लगे।
उत्तरप्रदेश में वैसे तो 29 से अधिक सीटें ऐसी हैं जहां दलित वोट बैंक 22 से लेकर 40 फीसदी तक है। इसके बाद भी बसपा एक भी सीट इस चुनाव में नहीं जीत पाई। उदाहरण के रूप में नगीना लोकसभा सीट बसपा पिछली बार जीती थी, लेकिन इस बार यहां से आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद चुनाव जीत गए। अंबेडकरनगर में 28 फीसदी दलित वोट है, लेकिन सपा के लालजी वर्मा के साथ यह वोट बैंक जाता हुआ दिखा। खीरी में 23 फीसदी दलित वोट बैंक है, लेकिन यहां भी वह सपा के साथ जाता हुआ दिखाई दिया है। धौरहरा में 25 फीसदी दलित वोट बैंक है, लेकिन यहां भी वह सपा के साथ जाता हुआ दिखा है। मोहनलालगंज में 38 फीसदी दलित वोट में भी अधिकतर सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ ही जाता हुआ दिखा है।

कांशीराम ने उत्तरप्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण का एक ऐसा कॉकटेल तैयार किया था, जिसमें दलितों, अति अति पिछड़ों के साथ मुसमलानों को भी अपने साथ जोड़ा वर्ष 2012 के चुनाव के विधानसभा चुनाव में हार के बाद बसपा से एक-एक कर पुराने नेता जाने लगे। स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चौधरी, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, राम अचल राजभर, इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा जैसे नेता या तो बाहर कर दिए गए या फिर साथ छोड़ गए। यही वजह रही कि बसपा में नंबर दो की हैसियत में कोई नेता नहीं बचा। कॉडर के रूप में पहचानी जाने वाली बसपा की स्थिति यह हो गई कि सभी मतदान केंद्रों पर उसके पास बस्ता लगाने वाले लोग तक नहीं बचे।

बसपा सुप्रीमो ने लोकसभा चुनाव से पहले भतीजे आकाश आनंद को उत्तराधिकारी घोषित समाज के युवाओं को साथ जोड़ने की चाल भी चली। आकाश को दलित आबादी वाले सीटों पर प्रचार के लिए भेजा गया। आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद के खिलाफ नगीना में माहौल बनाने का आकाश का प्रसास भी विफल गया। आकाश के सरकार के खिलाफ उग्र तेवर ने जरूर दलित समय के युवाओं को आकर्षित किया, लेकिन सीतापुर में एफआईआर होते ही मायावती द्वारा उनकी रैलियों पर प्रतिबंध लगाना भी नुकसान के रूप में देखा जा रहा है। वहीं सोशल इंजीनियरिंग के सिंबल रहे सतीश मिश्रा को भी स्टार प्रचारक होने के बावजूद प्रचार में नहीं लगाया गया।
अशोक भाटिया,

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