मुकेश खटीक
मंगरोप।लम्पी रोग की मार झेलने के बाद बेसहारा हुए गौवंश आज सड़कों और जंगलों में दर-दर भटकने को मजबूर हैं।भूख और प्यास से तड़पते इन बेजुबानों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो समाज की संवेदनाएं ही खत्म हो चुकी हों। जिस गौ माता को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलाने के लिए आए दिन राजनीतिक और सामाजिक मंचों पर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं,वही गाय आज असहाय और उपेक्षित होकर सड़कों पर अपनी अंतिम सांसें गिनने को मजबूर है।सनातन धर्म के ग्रंथों में गौवंश को मानव जीवन का वरदान बताया गया है।उनके दूध से घरों में सुबह चाय की चुस्की और रात को दही-पनीर के स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते हैं यही नहीं बल्कि नाना प्रकार की मिठाइयों के स्वाद के चटकारे भी लगते है।लेकिन यही गाय अब लोगों को बोझ लगने लगी है।हालात यह हैं कि सुबह दूध निकालने के बाद इन्हें घर से बाहर खदेड़ दिया जाता है और शाम को फिर दूध दुहने के लिए पकड़कर लाया जाता है।रातभर यह सड़क और गलियों में भटकती रहती है।राजस्थान के किसी भी गांव या कस्बे में रात के समय सड़कों पर बैठे दर्जनों मवेशी आम नजारा बन चुके हैं।यह स्थिति न केवल यातायात के लिए खतरनाक है बल्कि आए दिन हादसों का कारण भी बन रही है।ऐसा लगता है मानो ये बेजुबान जानवर सड़क पर झुंड बनाकर बैठकर सरकार से अपने हक की आवाज बुलंद कर रहे हों गौरतलब है कि राज्य सरकार गौशालाओं के लिए करोड़ों रुपये का अनुदान देती है,बड़ी संख्या में गौशालाएं संचालित भी हो रही हैं,लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है।सवाल उठता है कि जब गौशालाओं में जगह और सुविधा उपलब्ध है तो फिर ये बेसहारा गौवंश सड़कों पर हादसों का शिकार क्यों बन रहे हैं?क्या प्रशासन की जिम्मेदारी केवल हादसों के बाद इन्हें गौशालाओं तक पहुंचाना भर रह गई है?सड़क पर बैठा हर गौवंश मानो सरकार और समाज से यही प्रश्न कर रहा है कि आखिर उसके अस्तित्व की रक्षा कब होगी।यह स्थिति केवल आस्था या राजनीति का मुद्दा नहीं,बल्कि मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक जिम्मेदारी का गंभीर सवाल है,जिसका जवाब सरकार और समाज दोनों को मिलकर देना होगा।


