Homeअध्यात्मशारदीय नवरात्र : प्रकृति को मातृभाव से पूजने का अनुपम अवसर

शारदीय नवरात्र : प्रकृति को मातृभाव से पूजने का अनुपम अवसर

अंजनी सक्सेना

स्मार्ट हलचल|दुर्गा सप्तशती में भगवती स्वयं कहती हैं कि ‘शारदीय नवरात्र में जो वार्षिक महापूजा का अनुष्ठान किया जाता है, उस अवसर पर देवी माहात्म्य अर्थात दुर्गा सप्तशती का पाठ व श्रवण करने से सभी मनुष्यों पर मेरी कृपा दृष्टि बनी रहती है। दु:ख, बाधाएं शांत हो जाती हैं और सुख-समृद्धि का एक नया वातावरण जन्म लेता है। दुर्भाग्यवश प्रकृति विज्ञान की पश्चिमी सोच ने दुर्गा सप्तशती के इस विचार को पर्यावरण विज्ञान के संदर्भ में उपेक्षित कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति पूजक भारत जैसे देश में भी तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाएं विस्फोटक होती जा रही हैं और प्रकृति विरोधी मधु कैटभ भी प्रकृति को दासी बनाने पर तुले हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर पर्यावरण प्रदूषण का महिषासुरी आक्रमण प्रकृति की सभी शक्तियों को चुनौती देने में लगा है। हवा, पानी, धरती, आकाश आदि इन सभी प्राकृतिक शक्तियों पर राज करने की हवस बढ़ती जा रही है और पर्यावरण प्रदूषक असुर विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों से प्रकृति परमेश्वरी के साथ युद्ध की तैयारी में जुट गये हैं। इसी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतीय शक्ति पूजा का पूरी दुनिया को यह संदेश है कि शारदीय नवरात्र को महज एक धार्मिक पर्व ही न माना जाये, बल्कि इसे प्रकृति पूजा के रूप में मनाया जाये। भारत का यह राष्ट्रीय धर्म हो जाता है कि वह प्रकृति पूजा के पर्यावरण विज्ञान पर खुद अमल करे और विनाशकारी भौतिक विज्ञान के दुष्परिणामों से झुलसे अन्य देशों को भी गुमराह होने से बचाए।
समस्त जनमानस को जागरूक रखने के लिए भारत के प्रकृति वैज्ञानिकों ने विश्व को ‘दुर्गा सप्तशती’ और देवी भागवत जैसे दो अमूल ग्रंथरत्न दिये। चिंता का विषय यह भी है कि पश्चिमी पर्यावरण विज्ञान की सोच ने भारतीय प्रवृत्ति की पूरी अवधारणा को कुंठित कर दिया है। उपभोक्तावाद और अंधविकासवाद के आक्रमणों से आज प्रकृति तनाव के दौर से गुजर रही है।
प्रकृति का मातृभाव से पूजन
भारतीय चिंतक प्राचीनकाल से ही शक्ति पूजा के माध्यम से प्रकृति विज्ञान के गूढ़ रहस्यों से मानव समाज को अवगत कराता आया है। नवरात्र के अवसर पर प्रकृति को मातृभाव से पूजने का यही अर्थ है कि सृष्टि को नियमन करने वाली प्रकृति परमेश्वरी से हमारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो सके।
मार्कण्डेय ऋषि को भी यह चिंता थी कि प्रकृति विज्ञान के धरातल पर भी मनुष्य नवदुर्गाओं के दर्शन कर सके। देवी कवच में जिन नौ दुर्गाओं के नाम आए हैं, वे इस प्रकार हैं-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥
पचमं स्कंदमातेति, षष्ठं कात्यानीति च।
सप्तमं कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।
नवम् सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता:॥

प्रथम शैलपुत्री

पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से पर्वत राज हिमालय की प्रधान भूमिका है। यह पर्वत मौसम नियंता होने के साथ-साथ देशवासियों को राजनैतिक सुरक्षा और आर्थिक संसाधन भी मुहैया करता है। प्राचीनकाल से ही हिमालय क्षेत्र ने धर्म और संस्कृति के विभिन्न स्रोत भी प्रवाहित किये। हिमालय क्षेत्र के इसी राष्ट्रीय महत्व को उजागर करने के लिये ही देवी के नौ रूपों में ‘शैलपुत्री’ के रूप में स्मरण करके सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी

देवी का दूसरा नाम ब्रह्मचारिणी है। इस देवी को प्रकृति के सच्चिदानंदमय ब्रह्म स्वरूप के रूप में निरूपित किया जा सकता है। ऋग्वेद के देवी सूक्त में अम्भृण ऋषि की पुत्री वाग्देवी ब्रह्मस्वरूपा होकर समस्त जगत को ज्ञानमय बनाती है और अपने रुद्रबाण से अज्ञान का विनाश करती है-
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्म द्विषे शखे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृष्णोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश।।
तृतीय चंद्रघण्टेति

देवी की तीसरी शक्ति चंद्रघंटा के नाम से प्रसिद्ध है। सुवर्ण सदृश शरीरवाली इस देवी के तीन नेत्र और दस हाथ हैं। मस्तक में घंटा के आकार का अर्द्ध चंद्र विद्यमान रहने के कारण चंद्रघण्टा कहा जाता है।
शस्त्र-अस्त्र से सुशोभित सिंहवाहिनी यह देवी प्रकृति विनाशक दैत्यों का संहार करने के लिये प्रहरी का दायित्व संभालती हैं किन्तु प्रकृति उपासकों के लिए यह अपना लावण्यमयी दिव्य रूप उद्भासित करती हैं, इसलिए सप्तशती के टीकाकारों ने इसे प्रकृति के आल्हादक और सौंदर्यमय शक्तित्व के रूप में परिभाषित किया है।
कूष्माण्डेति चतुर्थकम्

चौथी दुर्गा का नाम कूष्माण्डा है। किंचित हास्य मुद्रा में अण्ड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण यह शक्ति कूष्माण्डा कहलाई। सूर्य मंडल में निवास करने वाली इस देवी की ऊर्जा दसों दिशाओं में व्यापक रहती है।
सिंहवाहिनी, अष्टभुजा यह देवी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रहती है। कुम्हड़े की बलि प्रिय होने के कारण भी यह कूष्माण्डा के नाम से प्रसिद्ध है। त्रिविधा आपदाओं का संचालन तंत्र प्रकृति के इस चौथे रूप में समाया हुआ है, इसलिए उत्तरांचल के ग्रामों में नवरात्र के अवसर पर प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए कुम्हड़े की बलि देने की प्रथा आज भी है।
पंचम स्कन्दमातेति

पांचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है। शैलपुत्री ने ब्रह्मचारिणी बनकर तपस्या करने के बाद शिव से विवाह किया और बाद में स्कंद इनके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। पौराणिक मूर्ति विज्ञान के अनुसार इस देवी की तीन आंखें और चार भुजाएं हैं। पद्मासना इस देवी की गोद में स्कंद नामक बालक विराजमान है। आधुनिक पर्यावरण विज्ञान के संदर्भ में स्कंदमाता प्रकृति को माता के समान देखने का ज्ञान प्रदान करती हैं।
अथर्ववेद में माता भूमि पुत्रोहम पृथ्विया: का प्रकृति दर्शन ही देवी के इस पौराणिक चरित्र में साकार हुआ है। नवरात्र के शुभागमन पर देव्यपराध क्षमापन स्त्रोत के माध्यम से हर वर्ष स्कंदमाता का ध्यान करते हुए भारत का प्रकृति विज्ञानी यही कामना करता है कि हे जगजननी प्रकृति माता! मनुष्य जाने या अनजाने स्वार्थवश, प्रकृति के प्रति अपराध करता रहता है परन्तु आप अपने इन कुपुत्रों के अपराध क्षमा कर दो। कारण यह है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कुमाता कभी नहीं होती।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्वारिणि शिवे।
कुपुत्रों जायते कचिदपि कुमाता न भवति॥

षष्ठं कात्यायनीति

कात्यायन ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर छठी दुर्गा पुत्री रूप से कात्यायन आश्रम में प्रकट हुई, इसलिए कात्यायनी कहलाई। यह भी प्रसिद्ध है कि वृन्दावन की गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए मार्गशीर्ष के महीने में यमुना नदी के तट पर कात्यायनी की पूजा की थी। इससे यह ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी भी मानी जाती है। तीन नेत्र और आठ भुजाओं वाली इस देवी का वाहन सिंह है।
तपोवन संस्कृति के जरिये पर्यावरण संरक्षण
सर्वविदित है कि तपोवन संस्कृति का पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से महान योगदान रहा है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अनुसार कण्व आश्रम में भी तपोवनवासी शकुन्तला के नेतृत्व में संस्कृति संरक्षण व संवर्धन का जो कार्यक्रम चला रहे थे, वह आज के पर्यावरण संरक्षकों के लिए प्रेरणादायी सिद्ध हो सकता है। उपभोक्ताभाव के मूल्यों से परे हटकर पर्यावरण प्रेमी शकुन्तला का यह नियम था कि वह तपोवन के पेड़-पौधों को जल दिये बिना पहले जल ग्रहण नहीं करती थी। आभूषण की शौकीन होने पर भी तपोवन की वनसंपदा का सौंदर्य प्रसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करती थी। वनस्पतियों में पहली बार जब पुष्पोदगम् होता था तो पूरा तपोवन उत्सव मनाता था। प्रकृति का कात्यायनी रूप वस्तुत: प्रकृति के सुकुमार और नित्यकुमारी रूप का परिचायक है।
प्रकृति के साथ गंधर्व विवाह के उपभोक्तावादी नारी मूल्यों के विरुद्ध इस शक्ति तत्व की यह विशेषता भी है कि पुरुषायत्त समाज व्यवस्था के विरुद्ध जाकर भगवती कात्यायनी पति की दासता का त्याग कर देती है और तपोवन प्रकृति के समान नित्य कौमार्य रूप का वरण कर लेती है। नारी स्वातंत्र्य ‘कात्यायिनी’ का प्रधान चरित्र है-
देव कामार्थ कात्यायनाभमे आविर्भूता तेन
कन्यात्वेन स्वीकृतेति कात्यायनीति नाम भहवत्या:।
अभ्या निरंतर कुमारीत्वेन पन्यधीनतया स्वतंत्रत्वम्।। (दुर्गा सप्तशती)
सप्तमं कालरात्रीति
दुर्गा की सातवीं शक्ति ‘कालरात्रि’ है। इसे महाकाल आदि की शक्ति ‘काली’ या ‘महाकाली’ के नाम से भी जाना जाता है। नवरात्र की सातवीं तिथि को इस कालरात्रि का विशेष स्तवन किया जाता है।
प्रलय तथा विध्वंस के प्राकृतिक प्रकोप देवी के इसी भयावह रूप की अभिव्यक्ति है। कालरात्रि की आकृति विकराल है। यह महाकाली मुर्दे पर सवार है। उसका चेहरा तीक्ष्ण दांतों और दहशत भरे हास्य से जगत को कंपकपा कर देता है। जिह्वा बाहर निकाले श्मशानवासी इस देवी के एक हाथ में खड्ग और दूसरे में नरमुण्ड रहता है। तीसरे हाथ में अभयदान की मुद्रा रहती है तो चौथा हाथ वरदान देने के भाव से ऊपर उठा रहता है।
महागौरीति चाष्टमम्
‘काली’ के भयावह रूप से शिव भी स्तब्ध रह गये थे, तब उन्होंने इस देवी को आक्रोश से ‘काली’ कह दिया। इस पर प्रकृति ने अपने इस भयावह रूप से मुक्ति पाने के लिए घोर तपस्या की और स्वयं को गौरवपूर्ण बना दिया। देवी का यह आठवां रूप ‘महागौरी’ के नाम से लोकविश्रुत है। सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् को व्यक्त करने वाली इसी सौम्य और सात्विक प्रकृति की मुद्रा की लोककामना की जाती है, इसलिए दुर्गाष्टमी के दिन इसी लोक कल्याणी महाशक्ति की पूजा का विशेष अनुष्ठान होता है। दुर्गा सप्तशती में कहा गया है कि गौरी के शरीर से प्रकट होने वाली प्रकृति सत्वगुण प्रधान है। सर्जनहारी प्रकृति के संरक्षण से लोक कल्याण संभव होता है। इसी ने पूर्व काल में शुम्भ नामक दैत्य का संहार किया और यही साक्षात सरस्वती भी है-
गौरी देहात्समुद्भूता या सत्वैक गुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुष्मासुर निवर्हिणी॥

नवमं सिद्धिदात्री

दुर्गा की नौवीं शक्ति ‘सिद्धिदात्री’ कहलाती है। विश्व के सभी कार्यों को साधने वाली देवी के इस रूप को सर्वार्थसाधिका प्रकृति के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। ऋग्वेद की ब्रह्मस्वरूपा वाग्देवी स्वयं कहती हैं कि मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूं, उसे सर्वश्रेष्ठ बना दूं और सर्वज्ञान संपन्न बृहस्पति बना दूं। (ऋग्वेद 10-125-5)
देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इसी शक्ति की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थीं और वे अर्द्ध नारीश्वर कहलाये। सिंह वाहिनी, चतुर्भुजा यह देवी प्रसन्नवदना है। दुर्गा के इस स्वरूप की देव, ऋषि, सिद्ध, योगी, साधक व भक्त मोक्ष प्राप्ति के लिए उपासना करते हैं।

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