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शिबू सोरेन: इतिहास उन्हें सिर्फ नेता नहीं, बगावत और पहचान का प्रतीक लिखेगा…

ओंकारेश्वर पाण्डेय

स्मार्ट हलचल|दिशोम गुरु शिबू सोरेन चले गए। दस बार सांसद, तीन बार मुख्यमंत्री, और उससे भी बढ़कर-वो शख्स जिसने तीर-कमान से नहीं, बल्कि संघर्ष और अपनी सियासी चालों से बिहार के आदिवासियों को उनका हक दिलाया। अलग झारखंड का सपना उठाने वाले कई थे, पर उसे सच करने वाला सिर्फ एक नाम था—दिशोम गुरु।
लोग कहते हैं, “गुरुजी सिर्फ नेता नहीं थे, आंदोलन की आत्मा थे।” उनके समर्थकों के लिए वे एक विचार थे, एक प्रतिरोध की पहचान। इतिहास उन्हें सिर्फ नेता नहीं, बगावत और पहचान का प्रतीक लिखेगा…

नेमरा से उठी हुंकार, जिसने पूरा बिहार हिला दिया

भारतीय राजनीति में झारखंड आंदोलन दरअसल आदिवासी पहचान की वह कहानी है, जिसे दिशोम गुरु ने खून-पसीने से लिखा।
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने बचपन में साहूकारों की लूट देखी, खनन कंपनियों का लालच देखा। 1969 का अकाल, जब सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था और आदिवासी भूख से मर रहे थे, ने उनके भीतर ज्वाला भर दी। उन्होंने कसम खाई-“जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी जाएगी।”
नेमरा (रामगढ़) की गलियों से उठी उनकी आवाज़ ने 1960-70 के दशक में आवाम को झकझोरा। जब धनकटनी आंदोलन शुरू हुआ, तब आदिवासी महिलाएँ खेतों से धान काटकर ले जाती थीं, पुरुष तीर-कमान लिए पहरे पर खड़े रहते थे। पर सिस्टम भी था-सरेंडर, गिरफ्तारी, गिरफ्तारी वारंट तक जारी।
उनकी शुरुआत छोटी थी, पर असर बड़ा। धान जब्ती आंदोलन से शिबू सुर्खियों में आए। साहूकारों के गोदामों से अनाज निकालना, तीर-कमान लिए आदिवासी पहरेदारों का पहरा- यह केवल विरोध नहीं था, यह सिस्टम को सीधी चुनौती थी।
एक दिन शिबू सोरेन पारसनाथ के जंगलों में छिप गए, वहीं से आंदोलन चला-“बाहरी” लोगों को निकालो, “झारखंड को शोषण से मुक्त करो”-सपनों के इस आंदोलन ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की पहचान दी।
1973 में उन्होंने ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाई। उस समय उनके नारे गूंजते थे- “हमारी जमीन हमारी है, कोई दीकु (बाहरी) नहीं छीन सकता।” इसके साथ ही झारखंड आंदोलन तेज होने लगा।
उस समय झारखंड मुक्ति मोर्चे का बनना कोई आसान बात नहीं थी- राजनीतिक विरोध, विभाजन और मानसिक खींचतान के बीच उन्होंने पार्टी को जीवंत रखा। तब लालू यादव ने 1998 में कहा था, “झारखंड मेरी लाश पर ही बनेगा,”।
लेकिन शिबू सोरेन ने सभी विरोधों को पार करते हुए, कांग्रेस, RJD और BJP से गठबंधन बनाया और बातचीत से राज्य का मामला संसद तक पहुँचाया।

राजनीति के शतरंज में माहिर खिलाड़ी

शिबू सोरेन ने समझ लिया था कि झारखंड का सपना सिर्फ जंगलों में धरना देकर पूरा नहीं होगा, इसके लिए दिल्ली की सत्ता के दरवाजे खोलने होंगे। और यही उन्होंने किया।
1989 में वी.पी. सिंह की सरकार को समर्थन, 1993 में नरसिम्हा राव को अविश्वास मत से बचाना, फिर 1999 में वाजपेयी की एनडीए सरकार से डील- शिबू हर बार सही मोड़ पर सही दांव खेलते रहे। कहते हैं, “गुरुजी का भरोसा सिर्फ लिखित वादों पर था, शब्दों पर नहीं।”और हुआ भी वही।
15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड बना। जयपाल सिंह मुंडा ने आंदोलन की शुरुआत की थी, लेकिन उसे मंज़िल तक पहुंचाने वाला नाम था शिबू सोरेन।

कॉरपोरेट से जंग, जीती भी, हारी भी

शिबू सोरेन की राजनीति का मूल था-आदिवासी पहचान और जल-जंगल-जमीन की रक्षा। उन्होंने सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध का मंच बनाया। खदान मजदूरों को संगठित किया और खनन कंपनियों की नाक में दम किया। उनकी पहल पर PESA कानून आया, जिसने ग्राम सभाओं को जमीन पर फैसला लेने का अधिकार दिया। 2006 का वन अधिकार कानून भी उनकी जिद का नतीजा था।
सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध-अवसर में बदला, कंपनियों की चौकी को बाधित किया। लेकिन फिर भी व्यापार-शक्ति रास्ते में आई – कॉरपोरेट का कॉकस नहीं टूटा। खनिज संपदा पर कंपनियों की पकड़ कायम रही। झारखंड से अरबों का कोयला और लौह अयस्क दिल्ली तक गया, पर गांवों तक सिर्फ गरीबी पहुंची।
यही विडंबना है – राज्य तो बना, पहचान मिली, पर आर्थिक न्याय अब भी अधूरा है।
झारखंड देश के सबसे समृद्ध खनिज राज्यों में है। कोयले, लौह अयस्क और अन्य खनिजों से केंद्र को सालाना ₹ 40-45 हजार करोड़ से ज्यादा का हिस्सा मिलता है, जबकि राज्य को खुद के टैक्स से करीब ₹34 हजार करोड़ की आमदनी होती है। केंद्र से टैक्स शेयर और ग्रांट्स मिलाकर राज्य को कुल राजस्व का लगभग आधा हिस्सा ही मिलता है।

* स्थानीय कर-रकम ₹ 34 हजार करोड़
* टैक्स शेयर एवं ग्रांट ₹ 45–50 हजार करोड़

आसान शब्दों में समझें तो खनिज निकलता है झारखंड से, फायदा जाता है दिल्ली को। यही सबसे बड़ी लड़ाई रही है। और यह लड़ाई आज भी जारी है।

मुकदमे, सज़ा और जनता का अटूट विश्वास

दिशोम गुरु का सफर सियासत और मुकदमों की सफेद-स्याह परछाइयों और विवादों से भरा रहा। 1975 में ‘बाहरी-विरोधी अभियान’, जिसमें 11 मौतें हुईं, उन पर हत्या का आरोप लगा। 1993 के अविश्वास मत में रिश्वत का आरोप, 1994 में उनके निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या का मामला—2006 में सजा हुई, फिर 2007 में बरी हुए।

आरोप जितने भी लगे, शिबू सोरेन बरी हो गए।

आरोप लगते रहे फिर भी जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जेल से निकलकर भी चुनाव जीते। तीन बार मुख्यमंत्री बने। दस बार सांसद रहे। पार्टी के एक नेता कहते हैं – “एक आदिवासी जब खड़ा होता है, तो उसे राजनीति में फंसाया भी जाता है। हेमंत सोरेन को भी जेल में डाला गया। पर क्या साबित हुआ? जनता अब इन चालों को अच्छी तरह समझने लगी है।”
शिबू सोरेन के ऊपर मुकदमे, सज़ा और विवादों का बोझ था, पर जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा।
उनके योगदान को लोग याद करते हैं। उन्होंने झारखंड का सपना रखा, आदिवासी पहचान को राष्ट्रीय विमर्श में रखा, और सबसे बड़ी बात कारपोरेट पावर को चुनौती दी।
आज के दौर में विकास की जो रफ़्तार है, वह आर्थिक अधिकारों के सवाल को और गहरा कर देती है।क्या राज्य की खनिज संपदा उसी जनता को लाभान्वित कर पाएगी जिसने इसे जन्म दिया? गुरुजी चले गए, पर सवाल वहीं हैं।

समझदारी या सौदेबाजी?

शिबू सोरेन ने कभी बीजेपी का समर्थन किया, फिर राजद से हाथ मेला, कभी कांग्रेस से तालमेल किया। हर कदम पर साबित किया कि राजनीतिक दृढ़ता और पहचान की चुनौतियाँ गठबंधन नीति से होकर गुजरती हैं। “गुरुजी का भरोसा सिर्फ लिखित वादों पर था, शब्दों से नहीं।” भाषणों की नहीं, जमीन की राजनीति की गई। यह उन्हें अलग बनाता है।

जनता का भरोसा और हेमंत की अग्निपरीक्षा

शिबू सोरेन ने झारखंड का सपना देखा, उसे संसद में गूँजाया, और आखिरकार राज्य के रुप में राजनीतिक हक की लड़ाई जीत ली। इसीलिए “इतिहास उन्हें सिर्फ नेता नहीं, बगावत और पहचान का प्रतीक लिखेगा…”
लेकिन गरीबी, बेरोजगारी, और आर्थिक आत्मनिर्भरता का संघर्ष जारी है। आज झामुमो फिर सत्ता में है। हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री हैं। यह भरोसा सिर्फ बेटे पर नहीं, बल्कि उस इतिहास पर है जो शिबू सोरेन ने लिखा।
चुनौती बड़ी है खनिज संपदा पर कॉरपोरेट कब्जा, विकास की जरूरत और आदिवासी अस्मिता का सवाल। हेमंत भी कहते हैं—“विकास जरूरी है, पर वह हमारी पहचान को मिटाए नहीं।” उन्होंने केंद्र से बकाया खनन राशि ₹1.40 लाख करोड़ मांगी है। टैक्स शेयर बढ़ाने की मांग की है।
आदिवासियों को राजनीतिक हक मिला, पर आर्थिक हक का सवाल अब भी अधूरा है। यही वह लड़ाई है जो आज हेमंत को लड़नी है। क्या हेमंत वह कर पाएंगे जो गुरुजी के दौर में अधूरा रह गया? मोदी सरकार के अधीन केंद्र को मिले कोयला रॉयल्टी की मांग, लंबित बकाया । यह संकेत है आर्थिक आत्मनिभरता की दिशा में संघर्ष की।
जमीनी राजनीति की बिसात पर सतर्कता और सफलता से चल रहे हेमंत सोरेन के सामने उनका नारा—“जल, जंगल, जमीन” अब भी गूँजता है। और ये सवाल झारखंड तक सीमित नहीं है। झारखंड में फिर झामुमो की सफलता के बाद अन्य राज्यों के आदिवासी इस दल को हसरत से देखने लगे हैं।
सवाल है कि क्या यह नारा सिर्फ झारखंड तक सीमित रहेगा या पिता की राह पर आग चलते हुए हेमंत सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा को आदिवासी मुक्ति मोर्चा के रूप में स्थापित कर पाएंगे।

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