Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगश्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा अपरिग्रह और अनेकांत, के सिद्धान्त

श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा अपरिग्रह और अनेकांत, के सिद्धान्त

श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा अपरिग्रह और अनेकांत, के सिद्धान्त

राजकुमार जैन336e9871 fbf6 4d0f 94aa f5ff7ad7149d

“आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् “ दुनिया की सभी आत्माओं का स्वरूप एक है, अत: हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें, जो हमें स्वयं के लिए पसन्द हो।

संसार जाति, धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता जैसे अनेक घटकों के बीच विभाजित है लेकिन जैन धर्म कहता है ‘मित्ती में सव्व भूएसु’ अर्थात सभी प्राणी मेरे मित्रवत हैं। इस एक सिद्धांत ने ही जाति, वर्ग, वर्ण, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि सभी भेद की दीवारों को ध्वस्त कर देने की शक्ति छुपी है।

स्मार्ट हलचल/भगवान महावीर स्वामी, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर केवल एक संत या आध्यात्मिक गुरु ही नहीं थे बल्कि वो एक महान दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक भी थे। शरीर रूपी प्रयोगशाला के साथ वर्षों की कठोर साधना (शोध) के पश्चात महावीर की आत्मा ज्ञानशक्ति के उस चरमोत्कर्ष पर पहुंची जिसे केवलज्ञान कहा जाता है। महावीर ने कहा था – ‘अप्पणा सच्च मेसेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए’, स्वयं सत्य को खोजें एवं सबके साथ मैत्री करें। यही उनके “जीयो और जीने दो” सिद्धान्त का मूल कारक है । महावीर के प्रमुख सिद्धांत है अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत।

अहिंसा : हिंसा दूसरे को भयभीत करती है। हम अपने को बचाते हैं, दूसरे में भय पैदा करके। व्यक्ति भी ऐसे ही जीते हैं, समाज भी ऐसे ही जीते हैं और राष्ट्र भी ऐसे ही जीते हैं। वस्तुत: सारा जगत भय और भय जनित हिंसा में जीता है। महावीर कहते हैं, सिर्फ अहिंसक ही अभय अवस्था को प्राप्त कर सकता है क्योंकि अहिंसा परमो धर्म:, अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है, अहिंसा ही परम ब्रह्म है। अहिंसा ही सुख शांति देने वाली है। अहिंसा ही संसार का उद्धार करने वाली है। यही मानव का सच्चा धर्म है, और यही मानव का सच्चा कर्म भी है। भगवान महावीर कहते हैं कि “व सयं तिवयए पाणे, अद्वन्नेहि घायए, हणंतं वाणुजणाइ, वेरं वड्ठर अप्पनो“ अर्थात् जो मनुष्य स्वयं हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, वह संसार में बैर को बढ़ावा देता है ।

महावीर कहते हैं यह शाश्वत सत्य है कि कितने भी जतन करलो मौत तो आ ही जाती है फिर भी मरने के आखिरी क्षण तक हम जीना ही चाहते हैं, यह जीवेषणा यानि जीने की आकांक्षा ही हिंसा का आधारभूत भाव ही है। महावीर कहते हैं कि मृत्यु को स्वीकार कर लेना ही अहिंसा है। मृत्यु को परिपूर्ण भाव से स्वीकार कर लेने के पश्चात मैं किसी अन्य के जीवन को आघात पहुंचाने के लिए जरा भी उत्सुक नहीं रह जाता। जिस दिन मेरे लिए जीवन का कोई मूल्य नहीं रह जाता उस दिन मेरे लिए मृत्यु शून्य हो जाती है, और उसी दिन उस महाजीवन के, उस परम जीवन के द्वार खुलते हैं जिसका कोई अंत नहीं जिसका कोई प्रारंभ नहीं, जिस पर कभी कोई बीमारी नहीं आती और जिस पर कभी दुख और पीड़ा नहीं उतरती। और इस परम जीवन को बचाने की कोई जरूरत ही नहीं है। इसे कोई मिटा नहीं सकता, क्योंकि इसके मिटने का कोई उपाय ही नहीं है। इस परम जीवन को जानकर व्यक्ति अभय हो जाता है। और जो अभय हो जाता है, वह दूसरे को भयभीत नहीं करता।

अनेकांत : महावीर ने कहा था हमें अपनी आस्थाओं के साथ-साथ दूसरों के दृष्टिकोण का भी सम्मान करना चाहिए, यही अनेकांत यानि अनेकता में एकता का सिद्धांत है। मनुष्य हर बात को अपने नजरिये से देखता है और सोचता है कि जो मैं समझ रहा हूं वही सही है। सारी समस्याएं, द्वेष, विद्रोह आदि इसी कारण से होते हैं कि हम किसी भी बात का मात्र वही पहलू देखना चाहते हैं जो हमारे स्वार्थो के सबसे करीब होता है। महावीर का मानना था कि समानता व सह-अस्तित्व में अधिकार के साथ आदर की भी भावना निहित है। सह-अस्तित्व है तो ही स्व-अस्तित्व सुरक्षित है। यही वह अनेकांतपरक चिंतन है, जो विद्रोहों, झगड़ों और समस्याओं से हमें मुक्त रख सकता है।
अनेकांत का सिद्धान्त बताता है कि वैचारिक भिन्नता एक वास्तविकता है, सहमति और असहमति वैचारिक भिन्नता से उपजे दो कारक हैं, लेकिन इनमें से कोई भी कारक हमें यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं देता कि जिस विचार, जिस सोच से हम सहमत नहीं है उसे हम नकार दें। अनेकांत दृष्टि के मूल में दो तत्व हैं, पूर्णता और यथार्थता। जो पूर्ण है और पूर्ण होकर यथार्थ रूप में प्रतीत होता है, वही सत्य है।

अपरिग्रह : महावीर परिग्रह को हिंसा कहते हैं और अपरिग्रह को अहिंसा। आपके पास कोई वस्तु है, आपका उससे कितना मोह है, कितना आप उसको पकड़े हुए हैं, कितना आपने उस वस्तु को अपनी आत्मा में बसा लिया है कि सारी जिंदगी उठते-बैठते, क्या मेरा है, कहीं कोई और तो मेरे उस पर कब्जा नहीं कर रहा है इसकी फिक्र रहती है। जमीन का वह टुकड़ा , जिसको आप अपना कह रहे हैं, आपसे पहले कितने लोग उसे अपना कह चुके हैं। कितने लोग उसके दावेदार हो चुके हैं। दावेदार आते हैं और चले जाते हैं और जमीन का टुकड़ा अपनी जगह ही रहता है। दावे सब काल्पनिक हैं आप ही दावा करते हैं, आप ही दूसरे दावेदारों से लड़ लेते हैं, मुकदमे हो जाते हैं, सिर खुल जाते हैं और हत्याएं भी हो जाती हैं। हमारे जीवन में हिंसा इसीलिए है कि बिना मारे मालिक होना मुश्किल है। क्योंकि दूसरा भी मालिक होना चाहता है। अगर वह जिंदा रहेगा तो वह मालिक होने का प्रयत्न करता रहेगा।

महावीर की उत्सुकता समानता में नहीं अहिंसा में है। वे कहते हैं अहिंसा के फैलाव से ही समानता संभव है। महावीर जिस दिन खुले आकाश के नीचे आकर निर्वस्त्र खड़े हो गये, उस दिन उन्होने कहा कि मैं हिंसा को छोड़ता हूं, इसलिए सब सुरक्षा छोड़ता हूं। इसलिए सब आक्रमण के उपाय छोड़ता हूं। अब मैं निहत्था, निशस्त्र, शून्यवत भटकूंगा। अब मेरी कोई सुरक्षा नहीं, अब मेरा कोई आक्रमण नहीं तो अब मेरी कोई संपत्ती कैसे हो सकती है। अहिंसक की कोई संपत्ती नहीं होती। अगर कोई अपनी लंगोटी पर भी अपनी मालकियत बताता है और दावा करता है कि यह लंगोटी मेरी है तो वह अहिंसक नहीं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि महल मेरा है या कि लंगोटी मेरी है। वह मालकियत का भाव ही हिंसा है। इस लंगोटी पर भी गर्दनें कट सकती हैं। और यह मालकियत बहुत सूक्ष्म होती चली जाती है। धन छोड़ देता है आदमी, लेकिन कहता है, “धर्म” मेरा है। महावीर ने कहा है कि आग्रह भी हिंसा है। यह अति सूक्ष्‍म बात है। आग्रह हिंसा है, अनाग्रह अहिंसा है।

महावीर कहते हैं कि वैचारिक संपदा को अपना मानना भी हिंसा है। क्योंकि जब भी हम यह कहते हैं कि यह मेरा विचार है, इसलिए सत्य है, तब हम यह नहीं कहते कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है, तब हम यह कहते हैं कि मैं ही सत्य हूं और जब मैं स्वयं सत्य हूँ तो मेरा विचार तो सत्य होगा ही। इस जगत में जितने भी विवाद हैं वे सत्य के विवाद नहीं हैं। वे सब इसी “मैं” के विवाद हैं।

अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह दरअसल एक ही मूल सिद्धान्त के तीन पहलू हैं, अहिंसा का आचार, अनेकांत का विचार और अपरिग्रह का व्यवहार मनुष्य के जीव जीवीन को चेतना के ऊर्ध्वमुखी सोपानों पर ले जाता है।

स्मार्ट हलचल न्यूज़ पेपर 31 जनवरी 2025, Smart Halchal News Paper 31 January 2025
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