स्मार्ट हलचल/”गुरु की कृपा से ही अज्ञान का अंधकार मिटता है। चाहे वह गाँव हो, वन हो, पर्वत हो या नगर—जहाँ भी सत्य की खोज हो रही है, वहाँ गुरु की आवश्यकता है। जनजातीय अंचलों में गुरु को ‘गुरु भगवान’, ‘देवपुरुष’, ‘दीपक’ या ‘बाबा’ कह कर पुकारा जाता है, जो जीवन के हर मोड़ पर मार्गदर्शन करते हैं। वे केवल धर्मोपदेशक नहीं, बल्कि जनजीवन के संरक्षक, परंपराओं के संरक्षक और सामाजिक चेतना के वाहक होते हैं।”
“आज जब आधुनिकता के शोर में परंपराएं दब रही हैं, तो हमें अपने मूल को पहचानना है। गुरु पूर्णिमा का पर्व आत्मबोध और आत्मसंस्कार का महापर्व है। सभी गुरुभक्तों को यह संदेश है कि अपने जीवन में गुरु को स्थान दो, उनकी सेवा करो, और उनके द्वारा दिखाए मार्ग को अपने कर्म में उतारो। यही श्रद्धा, यही सच्ची भक्ति है।”
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गुरु पूर्णिमा: जनजातीय संस्कृति में गुरु का स्थान
– महामंडलेश्वर उत्तम स्वामी महाराज
भारत की आत्मा उसके गाँवों, पर्वतीय अंचलों और जनजातीय संस्कृतियों में बसती है। इन क्षेत्रों में गुरु की परंपरा केवल वेदों और शास्त्रों तक सीमित नहीं, बल्कि लोक-ज्ञान, रीति-नीति और प्राकृतिक जीवनशैली का जीवंत हिस्सा है।
आदिवासी समाज में गुरु न केवल आध्यात्मिक शिक्षक होता है, बल्कि वन्य जीवन, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व और लोकधर्म का मार्गदर्शक भी होता है।
पुरखों की स्मृति में आज भी ‘देव-वन’, ‘गुरु-वन’ और ‘देव-स्थान’ सुरक्षित हैं। पारंपरिक नृत्य, गीत, वनों की पूजा और औषधीय ज्ञान—इन सबमें गुरु की भूमिका अटल है।
गुरु को माना जाता है— जो नदियों की धारा पढ़ना सिखाए, जो जड़ी-बूटियों का उपचार बताए, जो कथा-कहानी में जीवन का संदेश दे और जो सत्य, न्याय व प्रेम का संचार करे।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर जनजातीय समाज हमें यह सिखाता है कि गुरु केवल ग्रंथों में नहीं, बल्कि अनुभव, जीवनचर्या और प्रकृति के प्रति सम्मान में भी बसता है।
आज आवश्यकता है कि हम इन पुरातन परंपराओं को फिर से जीवंत करें।
गुरु पूर्णिमा पर हम सभी को यह प्रण लेना चाहिए कि गुरु को जीवन का केंद्र बनाएं, लोक संस्कृति का सम्मान करें,और गुरु के बताए मार्ग पर चलकर जीवन को सार्थक बनाएं।