जाने- कौन थी मजबूत इरादों वाली सावित्री बाई फुले जिसने पूरे देश में शिक्षा की अलख जगाई थी….?
अंधविश्वास,रुढ़िवाद,भ्रूण हत्या,बाल-विवाह,सती प्रथा,अनमेल विवाह पर रोक लगाने वाली सावित्री बाई फुले
लेखक – मदन मोहन भास्कर
स्मार्ट हलचल/सावित्री बाई फूले ने ऐसे दौर में ज्ञान की अलख जगाई जिस दौर में लड़कियों का पढ़ना लिखना तो दूर, घर से बाहर निकलना भी दुश्वार था। सावित्रीबाई फुले ने बालविवाह के प्रति शिक्षित व उन्मूलन करने, सती प्रथा के ख़िलाफ़ प्रचार करने, विधवा पुनर्विवाह के लिए वकालत करने के लिए ख़ूब मेहनत की। महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार आंदोलन का एक प्रमुख व्यक्तित्व और बी. आर. अम्बेडकर और अन्ना भाऊ साठे के साथ दलित मंगल जाति का प्रतीक माना जाता है। इन्होंने अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ एक अभियान चलाया और जाति व लिंग पर आधारित भेदभाव को मिटाने में अपनी एक सक्रिय और अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
महान लोगों का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही धर्म और जाति होती है और वह है मानवता। मानव के प्रति अच्छे विचार, उनके अधिकारों के लिए अपना सर्वस्व जीवन न्योछावर करना ही इनका कर्तव्य होता है। जहां आजकल लोग धर्म, जाति, मज़हब के नाम पर आपस में उलझे रहते हैं। महज़ एक संकुचित सोच के तले इतने दबे रहते हैं कि इससे बाहर निकलकर कभी सोच ही नहीं पाते हैं। सचमुच समाज के लिए यह एक विचारणीय प्रश्नचिन्ह है। देश में महिलाएँ सदियों तक शिक्षा से वंचित रही हैं। अंधविश्वास, रुढ़िवाद, अस्पृश्यता रुकावट पैदा करने वाली प्रथा है। भ्रूण हत्या, बाल-विवाह, सती प्रथा, विधवा स्त्री के साथ तरह-तरह के अनुचित व्यवहार,अनमेल विवाह,बहु विवाह आदि प्रथाएं समाज में व्याप्त थी। समाज में जातिवाद का बोलबाला था। ऐसे समय में सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले का अन्यायी समाज और उसके अत्याचारों के खिलाफ खड़े हो जाना एक क्रांति का आगाज था। सावित्रीबाई फुले ने अपने निस्वार्थ प्रेम,सामाजिक प्रतिबद्धता,सरलता तथा अपने अनथक-सार्थक प्रयासों से महिलाओं और शोषित समाज को शिक्षा पाने का अधिकार दिया। सावित्रीबाई फुले ने धार्मिक अंधविश्वास व रुढ़ियां तोड़कर निर्भयता और बहादुरी से घर- घर,गली-गली घूमकर महिलाओं के लिए शिक्षा की ज्योति जलाई। धर्म के ठेकेदारों ने उन्हें अश्लील गालियां दी, धर्म डुबोने वाली कहा तथा कई लांछन लगाये। यहां तक कि उन पर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया। सावित्रीबाई द्वारा लड़कियों के लिए चलाए गए स्कूल बन्द कराने के लिए अनेकों प्रयास किए जाते थे। सावित्री बाई डरकर घर बैठ जाएं। इसलिए उन्हें लोगों द्वारा अनेक विधियों से तंग किया जाता था। एक बार तो उनके ऊपर एक व्यक्ति द्वारा शारीरिक हमला भी किया गया। तब सावित्रीबाई फुले ने बड़ी बहादुरी से उस व्यक्ति का मुकाबला किया। फिर कभी उन्हें स्कूल जाने से रोकने का प्रयास नहीं किया ।
सावित्रीबाई फुले ने अपने अथक प्रयासों द्वारा शिक्षा पर षड्यंत्रकारी तरीके से एकाधिकार जमाए बैठी धर्म के ठेकेदारों की नींव ही हिला डाली। सावित्रीबाई को देश की पहली भारतीय महिला अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव प्राप्त है । सावित्रीबाई फुले ने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया अपितु भारतीय स्त्री की दशा सुधारने के लिए उन्होंने 1852 में महिलामण्डल का गठन कर भारतीय महिला आन्दोलन की प्रथम अगुवाई भी की। सावित्रीबाई फुले का जीवन एक ऐसी मशाल है, जिन्होंने स्वयं प्रज्वलित होकर भारतीय नारी को पहली बार सम्मान के साथ जीना सिखाया। सावित्रीबाई के प्रयासों से सदियों से भारतीय नारियां जिन पुरानी कुरीतियों से जकड़ी हुई थी उन्होंने उन बंधनों से उनकों मुक्त कराया तथा पहली बार भारतीय नारी ने पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर खुली हवा में सांस ली। महिलाओं को उनके सानिध्य में शिक्षा का अधिकार मिला।
सावित्री बाई फुले का जन्म कब और कहा हुआ?
देश की अकल्पनीय, अद्भुत, अतुलनीय, अनुकरणीय, महिलाशक्ति, नारी शिक्षापुंज, परमसम्माननीया, परमादरणीया, परमपूजनीया, परमश्रद्धेया
माता सावित्रीबाई फुले का जन्म – महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में पिताश्री खंडोजी नेवसे के परिवार में माताश्री लक्ष्मीबाई की पावन कोख से विलक्षण पुत्री सावित्रीबाई का जन्म 03 जनवरी, 1831 को हुआ।
सावित्री बाई फूले का विवाह
उन दिनों लड़कियों का जल्दी ही विवाह कर देने की प्रथा प्रचलित थी। इसलिए इनका विवाह भी जल्दी ही हो गया।
सावित्रीबाई का विवाह 09 वर्ष की अल्पायु में सतारा के गोविंदराव फुले व चिमणाबाई फुले के 12 वर्षीय नाबालिग होनहार बेटे ज्योतिबा फुले के साथ 1840 में हुआ। ज्योतिबा फूले एक विचारक, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और जाति विरोधी एक सामाजिक सुधारक थे। ज्योतिराव फूले को महाराष्ट्र के सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रमुख आंदोलनकारियों में विशेष रूप से गिना जाता है।
सावित्री बाई फूले की शिक्षा
सावित्री बाई की शिक्षा उनकी शादी के बाद ही शुरू हुई। उनके पति ज्योतिबा फुले ही थे जिन्होंने सावित्री बाई को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने एक सामान्य स्कूल से कक्षा तीसरी और चौथी की परीक्षा पास की। इसके बाद इन्होंने अहमदनगर के मिसपराग इंस्टीट्यूशन में आगे का प्रशिक्षण प्राप्त किया। ज्योतिराव फूले अपने सभी सामाजिक प्रयासों में अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहते थे। पुणे में सन 1848 में लड़कियों के लिए देश का पहला स्वदेशी स्कूल ज्योतिराव और सावित्रीबाई फूले के द्वारा शुरू किया गया था। लेकिन इन दोनों के द्वारा उठाए गए इस क़दम के लिए परिवार और समाज द्वारा इन दोनों का ही बहिष्कार कर दिया गया था। भला हो इनके एक दोस्त उस्मान शेख़ और उनकी बहन फ़ातिमा शेख़ का जिन्होंने इन दोनों को आश्रय दिया था। केवल आश्रय ही नहीं अपितु उन्होंने अपने परिसर में इन दोनों को अपना स्कूल शुरू करने के लिए स्थान भी दिया था। इस प्रकार सावित्री बाई स्कूल की पहली शिक्षिका बनी। महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपनी जीवनसाथी को शुरुआत में खेत में आम के पेड़ के नीचे बालू मिट्टी पर पढ़ाना शुरू किया और उसके बाद धार्मिक व्यवस्था का विरोध करके बाजाप्ता नाम लिखवाकर माता सावित्रीबाई फुले को आठवीं तक शिक्षा दिलवाई।
विवाह के बाद बनी शिक्षिका –
सावित्रीबाई का विवाह 9 वर्ष की आयु में ही ज्योतिराव फुले साथ हो गया। उनके पति उस समय तीसरी कक्षा में पढ़ते थे। सावित्रीबाई ने अपने पति से शिक्षा हासिल करने की इच्छा जाहिर की और ज्योतिराव ने भी इसमें उनका साथ दिया। लेकिन जब सावित्रीबाई पढ़ने के लिए जाती थीं तो लोग उनपर पत्थर, कूड़ा और कीचड़ फेंकते थे। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और हर चुनौती का सामना किया।
देश का पहला महिला विद्यालय खोला-
सावित्रीबाई फुले ने खुद तो शिक्षा हासिल की और साथ ही तमाम लड़कियों को शिक्षा देने के लिए 1848 में पति ज्योतिराव के सहयोग से महाराष्ट्र के पुणे में देश का पहला बालिका विद्यालय खोला। वह अपने विद्यालय की प्रधानाचार्या बनीं। इस कार्य के लिए सावित्रीबाई को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी सम्मानित किया था।
देश में महिला शिक्षा का आगाज –
देश की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने भारत में रूढ़िवादी परम्पराओं के विरूद्ध महिलाओं को शिक्षा देने का आगाज 01 जनवरी, 1848 को किया। जिसका धर्म के ठेकेदारों ने जमकर विरोध किया, परन्तु माता सावित्रीबाई फुले के अदम्य साहस के आगे उनकी एक ना चली। प्रथम छात्राओं के रूप में अन्नपूर्णा जोशी (5 वर्ष), सुमति मोकाशी (4 वर्ष), दुर्गा देशमुख (6 वर्ष), माधवर धते (6 वर्ष), सोनू पँवार (4 वर्ष) और जानी करडिले (5 वर्ष) ने विद्यालय में दाखिला लिया।
मजदूर शिक्षा-
मजदूरों को शिक्षा देने के लिए माता सावित्रीबाई फुले ने रात्रिकालीन विद्यालयों का संचालन भी किया।
वंचितों के लिए शिक्षा का सैलाब –
महात्मा ज्योतिबा फुले और माता सावित्रीबाई फुले ने पिछड़ों व महिलाओं के लिए 71 शिक्षण संस्थान खोलकर शिक्षा जगत में क्रांति का बिगुल बजा दिया।
देश का प्रथम प्रसूति ग्रह –
समाजसेविका सावित्रीबाई फुले ने बाल हत्या और बाल विधवा हत्या को रोकने के लिए देश में पहला अवैध प्रसूति केन्द्र खोलकर बालिकाओं और विधवाओं का जीवन बचाने का साहस किया। विदित हो कि रूढिवादी परम्पराओं के अनुसार बच्चियों का जन्म अशुभ माना जाता था और विधवाओं को असामाजिक तत्व गर्भवती कर देते थे। ऐसी महिलाएं वहाँ अपने बच्चों को जन्म देकर सुरक्षित हो जाती थीं।
कुआँ खुदवा कर पानी व्यवस्था करना – जाति व्यवस्था इतनी अमानवीय थी कि अछूतों, शोषितों, गरीबों के लिए सार्वजनिक कुओं से पानी भरना बिल्कुल मना था। वो दूसरों की दया पर निर्भर थे। ऐसी निंदनीय व्यवस्था को ठोकर मारकर जलदायनी सावित्रीबाई फुले ने जातिवादियों के भारी विरोध को दरकिनार करके वंचितों के लिए अलग से कुआँ खुदवाकर साफ जल की व्यवस्था की।
सफाई कर्मियों का सामाजिक सुधार –
माता सावित्रीबाई फुले ने सफाई कर्मियों के सामाजिक, स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधी सुधार के लिए भी काम किया। अवकाश के दिन उनके घरों पर जाकर जानकारी लेती थी और उनके बेहतर जीवन के लिए काम करती थी।
अकाल पीड़ितों की पालनहार –
सन 1876-77 में पूना में भयंकर अकाल पड़ा था। उस अकाल से प्रभावित लोगों की मदद के लिए अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ धनाढ्य लोगों से चंदा लेकर जरूरतमंदों को आवश्यक सामग्री का वितरण करती थी तथा 52 अन्न राहत शिविर खोले थे।
विधवा कल्याण कार्य –
हिंदू धर्म में विधवाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। उनका पुनर्विवाह मना था। उनके सिर के बाल काट दिये जाते थे जिसका माता सावित्रीबाई फुले ने विरोध किया और नाइयों को विधवाओं का मुंडन नहीं करने के लिए मना करवा दिया। विधवा विवाह करने के लिए लोगों को जागरूक किया।
उचित हिस्से के लिए नाइयों की हड़ताल-
ब्राह्मण नाइयों से बाल कटवाने के अलावा निमंत्रण भी दिलवाने का काम करते थे, परन्तु उनका उचित हिस्सा नहीं देते थे तो इसके लिए माता सावित्रीबाई फुले ने अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर नाइयों की हड़ताल की और उन्हें उनका उचित हिस्सा दिलवाना शुरू करवाया।
शराब विरोधी आंदोलन चलाया-
गरीब, मजदूर लोग शराबखोरी में रिश्वतखोर हाकिमों के शिकार हो जाते थे और परिवार परेशान होते थे जिसके विरोध में भी माता सावित्रीबाई फुले ने सफलतापूर्वक आंदोलन चलाया था।
साहित्यकार-
शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने अपने लोगों के मार्गदर्शन करने के लिए साहित्य का भी सर्जन किया।
किताब पढ़ने पर पिता ने डांटा-
सावित्रीबाई फुले भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। वह ऐसा दौर था जब दलित, पिछड़े वर्ग और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था लेकिन सावित्रीबाई पढ़ना चाहती थीं। एक दिन जब उन्होंने अंग्रेजी किताब पढ़ने की कोशिश की तो पिता ने किताब फेंक कर डांट लगाई। इसी दिन सावित्रीबाई ने प्रण लिया कि वह शिक्षा हासिक करके रहेगी।
महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ीं लंबी लड़ाई-
शिक्षा हासिल करने और विद्यालय खोलने के बाद भी सावित्रीबाई का संघर्ष समाप्त नहीं हुआ।इसके बाद उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी लंबी लड़ाई लड़ी। नारी मुक्ति आंदोलन की प्रणेता सावित्रीबाई फुले ने समाज में फैली छुआछुत को मिटाने के लिए संघर्ष किया। उन्होंने समाज में शोषित हो रही महिलाओं को शिक्षित कर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना सिखाया।
सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष
सावित्री बाई फुले ने उन दिनों विधवा बन जानी वाली महिलाओं के बाल मुंडवा दिए जाते थे। उन विधवाओं के बाल मुंडवाए जाने की इस प्रथा के ख़िलाफ़ मुंबई और पुणे में नायिकी हड़ताल का आयोजन करने में भी सफलता हासिल की थी। फूले दंपत्ति द्वारा उन दिनों चलाए जा रहे तीनों स्कूलों को सन 1858 तक बंद कर दिया गया था। दरअसल 1857 के बाद भारतीय विद्रोहों के बाद, स्कूल प्रबंधन समिति से ज्योतिराव ने स्तीफ़ा दे दिया था। इन दोनों पर समाज द्वारा, पीड़ित और शोषित समुदाय के बच्चों को शिक्षित करने का आरोप लगाया गया था। लेकिन 1 वर्ष बाद सावित्री बाई फूले के द्वारा 18 स्कूल खोले गए। जहां सावित्री बाई ने विभिन्न जातियों के बच्चों को पढ़ाया।
सावित्री बाई उन युवा लड़कियों के लिए प्रेरणा बनी हुई थीं जिनको उन्होंने पढ़ाया था। सावित्री बाई फूले ने शिक्षा के साथ साथ लेखन और पेंटिंग जैसी गतिविधियों के लिए भी लगातार प्रोत्साहित किया। इस कारण सावित्री बाई के कुछ शिष्यों के द्वारा लिखे गए निबंधों ने तो आगे चलकर समाज के लिए नई सोच और जागरूकता के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना शुरू कर दिया। सचमुच यह लेखन साहित्य के क्षेत्र में एक नया आयाम ही था। जो समाज को एक नई दिशा देने में मददगार साबित हुआ।
वर्ष 1867 में ज्योतिराव और सावित्री बाई ने एक देखभाल केंद्र भी शुरू किया। जो कि भारत का पहला ऐसा केंद्र था जहां बाल हत्याओं से बचने, गर्भवती महिलाएं, बलात्कार से पीड़ित महिलाएं सुरक्षित रह सकती थीं। यह अत्यंत ही प्रशंसनीय प्रयास था जहां विधवाओं की हत्या के साथ साथ शिशुओं की हत्या को भी कम करने का प्रयास किया जा रहा था।
ज्योतिराव और सावित्री बाई ने सन 1874 में काशी बाई नामक एक ब्राह्मण विधवा से एक बच्चा गोद लेकर समाज को एक मज़बूत संदेश दिया। यही दत्तक पुत्र बड़ा होकर डॉ. बना। सावित्री बाई ने बाल विवाह और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई के ख़िलाफ़ अपना मोर्चा खोला। इसके अन्तर्गत उन्होंने बाल विधवाओं को शिक्षित व सशक्त बनाकर उन्हें मुख्य धारा में लाने का भरसक प्रयास किया।
सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने छुआछूत और जातिप्रथा जैसी कुरीतियों के उन्मूलन के लिए भी कार्य किया। उन्होंने निचली जातियों के अधिकारों के लिए अपना अनूठा योगदान दिया। सावित्री बाई और ज्योतिराव ने उस समय अपने घर में अछूत लोगों के पानी पीने के लिए एक कुआं बनाया जिन दिनों अछूतों को अपने कुओं से पानी पीने का अधिकार तक नहीं दिया जाता था।
सावित्री बाई फूले की मृत्यु कैसे और कब हुई?
महान समाजसेविका माता सावित्रीबाई फुले के योगदान को आज भी याद किया जाता है। उनके संघर्ष की कहानी और अनमोल विचार शिक्षित होने, अन्याय के प्रति लड़ने और कुछ करने का जोश भरते हैं। सावित्री बाई के दत्तक पुत्र ने भी डॉ. के रूप में लोगों की सेवा करना शुरू कर दिया। सन् 1897 में जब प्लेग नामक महामारी ने महाराष्ट्र के इलाकों को बूरी तरह अपने चपेट में लेना प्रारंभ किया तब सावित्रीबाई फूले और उनके दत्तक पुत्र ने संक्रमित लोगों का इलाज करने के लिए पुणे के बाहरी इलाके में एक क्लीनिक खोला। सावित्रीबाई, पीड़ितों को उस क्लीनिक तक लेकर जाती जहां उनका बेटा उन संक्रमित पीडितों का इलाज करता था। इस तरह रोगियों की सेवा करते करते सावित्री बाई फुले भी इस ख़तरनाक बीमारी की चपेट में आ गई। 10 मार्च 1897 को सावित्री बाई की इस बीमारी के कारण मृत्यु हो गई।
सावित्रीबाई फूले का पूरा जीवन समाज सेवा में बीता। इन्होंने ग़लत रीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। महिलाओं के हक़ के लिए लड़ाई लड़ी। और आख़िर में लोगों की सेवा करते करते अंतिम सांस ली। समाज की सदियों पुरानी बुराइयों पर अंकुश लगाने और महिलाओं को शिक्षित कर सशक्त बनाने, उन्हें समाज में सम्मान दिलाने, उनके अधिकारो के लिए इनके द्वारा किए गए अनूठे कार्यों के लिए सम्पूर्ण भारतवर्ष सदैव इनका ऋणी रहेगा।
1983 में पुणे सिटी कार्पोरेशन द्वारा उनके सम्मान में उनका स्मारक बनाया गया था। इंडिया पोस्ट ने 10 मार्च 1998 को उनके सम्मान में एक डाक टिकिट जारी किया था। 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर उनके ही नाम पर सावित्रीबाई पुणे विश्वविद्यालय कर दिया गया था। यूनिवर्सल सर्च इंजन गूगल ने 3 जनवरी 2017 को गूगल डूडल के साथ उनकी 189वीं जयंती मनाई थी। आजकल महाराष्ट्र महिला समाज सुधारकों को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए सावित्री बाई पुरस्कार दिया जाता है।