व्यंग्य
सुधाकर आशावादी
स्मार्ट हलचल|एक समय था कि जब संग संग पढ़ने और खेलने में जाति नाम से बालक अनभिज्ञ रहते थे, फिर ऐसा भी दौर आया कि जातियों के आधार पर कुछ विशेष सुविधाएँ मिलने लगी। लोग जातीय पहचान केवल जातीय कॉलम में ही लिखते थे, मगर मित्रों में जाति के नाम पर कोई भेद करना गुनाह होता था। अब ऐसा दौर आ रहा है, कि लोग माथे पर अपनी जाति सूचक पहचान चिपका कर घूमने के लिए विवश होंगे।
जातीय गणना का समाज पर पड़ने वाला यह प्रभाव दुष्प्रभाव होगा या सुप्रभाव, यह बहस का विषय हो सकता है। जाति गणना को लेकर जितने मुँह उतनी बात जैसी स्थिति है। जिसे देखो वही जातीय गणना पर अपने आप को विशेषज्ञ सिद्ध करने पर अड़ा है। माथे पर जाति का प्रमाण चिपकाने से पहले मुझे अपना बचपन स्मरण हो आया, जब मैं नगर पालिका के टाट पट्टी वाले स्कूल में पढ़ा करता था।
बचपन में हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में हैं भाई भाई, जैसी शिक्षा सरकारी स्कूलों में प्राप्त हुई, तो लगा ही नहीं, कि बच्चों में धर्म के नाम पर कोई भेदभाव है। इसी प्रकार बेसिक शिक्षा में पांचवी कक्षा तक भाषा में स्वर और व्यंजनों का ज्ञान प्राप्त करते हुए या गणित के गिनती, पहाड़े गुना भाग सीखते हुए कभी साथ बैठे हुए सहपाठी से यह जानने की जरुरत नहीं पड़ी, कि उसकी जाति क्या है ? पता नहीं कि उस समय जातियाँ होती भी थी या नहीं। हो सकता है कि उस समय भी जातियां होती हों, किन्तु कोई अपनी जातियों को माथे पर चिपकाने का चलन नहीं था। आज हम अत्याधुनिक हैं, स्वयं को विश्व मानव की संज्ञा दे रहे हैं। शिक्षा के बल पर वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। विश्व के अनेक देशों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं। वहां जाति का प्रमाणपत्र हम संग लिए नहीं घूमते। शायद वहां जाति के प्रमाणपत्र बनते भी नहीं, जो मानव में भेद करके उसे किसी जातीय विशेषण तक सीमित रखते हों। अपने यहां का तमाशा औरों से अलग है। यहाँ आदमी की पहचान उसके आदमी होने से नहीं, बल्कि उसकी जाति का खुलासा होने से होती है। अपने जीवन को समाज के प्रति समर्पित करके सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद्दुःख भाग्भवेत की कामना करने वाले महापुरुषों की जातियां खोजने में कुछ जीव जुटे रहते हैं। एक सच यह भी है कि साधु-संतों, घरों व मंदिरों में पूजे जाने वाले भगवानों को भी जातियों में बांटने का चलन बढ़ गया है। कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जाति जाति का खेल ही खेलते हैं। यदि वे जाति जाति न खेलें, तो उनके धरती पर होने की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न खड़ा हो जाएगा। बहरहाल जाति है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि जाति है, तो चंद लोगों की रोजी रोटी है, जाति है तो संकीर्णता है, जाति है, तो अंधों में काने सरदारों का अस्तित्व है। बार बार एकता अखंडता भाईचारा जैसे शब्दों पर मंथन करके अपेक्षा की जाती है, कि मानवता की खातिर जातीय विषबेल को पनपने न दिया जाए, किसी भी देह के पहचान सूचक नाम के सम्मुख लगे जातिसूचक विशेषण को हटाया जाए। विद्यालयों में जिस उद्देश्य से समान परिधान पहनकर आने की व्यवस्था लागू की जाती है, उसी प्रकार से जातीय पहचान से विलग सभी विद्यार्थियों में किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जाए, मगर ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। ध्यान है भी, तो कटु सत्य को कोई स्वीकार करना नहीं चाहता। ताज्जुब तब होता है, जब लोग अपनी जातियां घोषित करने में कतराते हैं, कोई जाति का नाम लेकर सम्बोधन करे, तो लड़ने पर आमादा हो जाते हैं, मगर यदि जाति के नाम पर लाभ लेने का अवसर मिले, तो अवसर का भरपूर लाभ उठाते हैं तथा अपना जाति प्रमाण पत्र तुरंत दिखाते हैं। कुछ लोग तो अपने जातीय प्रमाण को अपने माथे पर भी चिपकाते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब चेहरों पर लिखी जातियों को बढ़ चढ़ कर दिखाया जाता है , जातियों के आधार पर खुद ही झूठ फैलाया जाता है, कि ख़ास जातियों को समान सम्मान नहीं दिया जाता। उनसे भेदभाव किया जाता है। धर्मस्थलों में प्रवेश से पूर्व उनकी जाति पूछी जाती है। विशिष्ट स्नान में उन्हें डुबकी लगाने की अनुमति नहीं मिलती। चाय की दुकानों में उनकी जाति पूछी जाती है। चाय के गिलास भी उनकी जाति पूछते हैं। एक जमाना बीत गया। लोग चाय की दुकानों पर बार बार चाय पीने जाते हैं, मगर किसी चाय वाले की जाति नहीं पूछते। फिर यही प्रश्न बार बार मन में कौंधता है, कि जब होटलों में, दुकानों पर, सार्वजनिक स्थलों पर किसी के माथे पर लिखी जातियां नहीं पढ़ी जाती, तो चेहरों पर जातियों के नाम कौन लिख रहा है ?