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डेड इकानामी की तेज धड़कन

विवेक रंजन श्रीवास्तव

स्मार्ट हलचल|दुनिया में अब “तथ्य” की उम्र उतनी ही रह गई है जितनी शादी में जूते चुराने वाली रस्म की। अपने अंदाज में उंगली उठाकर उन्होंने एलान कर दिया कि भारत की इकानामी मर चुकी है। विपक्ष का नेतृत्व संभाले हमारे बाबा, ने तुरंत सुर में सुर मिला दिया। उनके फॉलोवर भी सोशल मीडिया पर टूट पड़े । मृत अर्थव्यवस्था के शोक संदेश, मीम, और शायरियाँ वायरल हो गईं। लेकिन वास्तविक आंकड़े बेचारे कोने में बैठकर हँस रहे थे, जैसे कोई बूढ़ा डॉक्टर ई सी जी रिपोर्ट हाथ में लिए कह रहा हो “अरे, मरीज ज़िंदा है।”
आईएमएफ का जुलाई 2025 का अपडेट कहता है कि विश्व अर्थव्यवस्था 3 % की रफ्तार से बढ़ रही है। ओईसीडी का अनुमान थोड़ा कम है 2.9 % है। जैसे डॉक्टर कह रहा हो कि बुखार है, लेकिन पांव कब्र में नहीं हैं। विश्व बैंक जरूर थोड़े डरे हुए लहज़े में बोलता है कि यह 2008 के बाद का सबसे सुस्त दशक है, 2025 में 2.3 % की रफ्तार से चल रही है, पर भारतीय अर्थ व्यवस्था की गति लगभग 6 प्रतिशत अनुमानित है।आंकड़े कथित डेड इकानामी की मौत का सर्टिफिकेट लिखने से मना कर रहे है।
“डेड” वाला बयान वैसा ही लगता है जैसे किसी शादी में खाना खाते वक्त फूफा घोषणा कर दें कि दाल जल गई है, और फिर हर मेहमान बिना चखे ही, वैसा ही बोलना शुरू कर दे।
इधर सोशल मीडिया का माहौल भी मज़ेदार है, कोई जीडीपी को ईसीजी की तरह दिखा रहा है, जिसमें लकीरें सीधी नहीं बल्कि हल्की-हल्की लहरदार हैं। कुछ लोग कह रहे हैं, “देखो, फ्लैट हो रही है!”, और कुछ कह रहे हैं, “नहीं भाई, ये तो धड़ा धड़, धड़क रही है।”
बाकी दुनिया में मंदी की बयार है, पर भारत अपने विकास के साथ अभी भी 6 % से ऊपर की गति से भाग रहा है । जैसे कोई मैराथन में बाकी धावकों को पीछे छोड़कर सेल्फी लेता हुआ आगे निकल जाए। हाँ, महंगाई, बेरोज़गारी और रुपया-डॉलर का नृत्य हमें भी परेशान करता रहता है, टैरिफ के झंझावात भी रुपए को कमजोर नहीं कर पा रहे। “डेड” क्या हम तो बेड पर भी नहीं हैं।
समस्या ये है कि “डेड” जैसे शब्द अब अर्थव्यवस्था की भाषा में नहीं, राजनीति की भाषा में इस्तेमाल हो रहे हैं। एक अर्थ शास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता नेता पड़ोसी देश में थोपे गए राष्ट्रपति हैं, उनसे उस छोटे से मुल्क की आर्थिक स्थिति संभाली नहीं जा रही है।
टैरिफ वाला टेरर फ़ैला कर किसी को व्यापारिक प्रभुत्व चाहिए ताकि उनके वोटर सोचें कि उनके बिना दुनिया का कारोबार ठप हो जाएगा। उन्हें नोबेल की दरकार है।
आम जनता फेसबुक और वॉट्सऐप पर नए-नए इकोनॉमिक चुटकुले बनाकर मजे ले रही है । जैसे जीडीपी और आईपीएल एक ही तरह की चीज़ हों, बस स्कोर देखो और मज़ा लो।
वैश्विक इकानामी में मंदी है, हाँ वैसी ही मंदी है जैसे गर्मी में पंखे की धीमी स्पीड में उसके नीचे बैठना। आपको हवा का झोंका कम लगता है, लेकिन पंखा घूम रहा होता है। व्यापार , युद्ध, सप्लाई चेन की खिचड़ी, और कर्ज़ के दलदल ने कदम धीमे और संभाल कर चलने पर विवश कर दिया है, पर धड़कन बंद नहीं हुई। आईएमएफ की रिपोर्ट में 2026 के लिए रफ्तार बढ़ने की उम्मीद है । यानी डॉक्टर कह रहा है, “डाइट सुधारो, दवा लो, और मरीज अगले साल ज्यादा बेहतर हो सकता है।”
तो कथित “डेड” और राहुल बाबा के “हाँ-हाँ, डेड” के बीच सच्चाई ये है कि इकानामी अर्थी पर नहीं है और लगातार दवा खा रही है। ईसीजी में धड़कन है, और अगर राजनीति वाले शोर कम कर दें तो थोड़ी तेज दौड़ भी लगा सकती है। लेकिन यह मान लेना कि इकानामी मर चुकी है, वैसा ही है जैसे कोई सोते हुए आदमी को देख कर कह दे “गया बेचारा!” और फिर पूरा मोहल्ला अफवाह फैलाकर भेड़चाल चलकर मातम मनाने लगे।
इकानामी की लाश के इस नाटक में मुश्किल यह है कि असली डॉक्टर अर्थात आर्थिक संस्थान बहुत धीरे बोलते हैं, और समय आने पर ही बोलते हैं लेकिन नकली डॉक्टर राजनीतिज्ञ माइक पर चिल्लाते हैं। नतीजा यह है कि मरीज के कान में भी यही गूंजता है“तुम मर चुके हो!” और वह खुद सोचने लगता है“शायद सच में!” सच ये है कि धड़कन अभी है, और शायद आने वाले सालों में यह और तेज भी हो।
इसलिए अगली बार जब कोई कहे “डेड इकानामी”, तो आंकड़ों से जवाब देना, और कहना “भाई, ये डेड, हेडलाइन नहीं, राजनीति के हॉस्पिटल में लाश के तमाशे का पुराना खेल है,बस इस बार मरीज का नाम है,अर्थव्यवस्था।”

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