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नेपाल और फ्रांस से मिला दुनिया को सबक, सत्ता को अहंकार छोड़कर जनता से जुड़ना होगा

मनोज कुमार अग्रवाल

स्मार्ट हलचल| पिछले कुछ वर्षों में विश्व राजनीति में एक समान प्रवृत्ति साफ देखने को मिल रही है कि जिन देशों में लोगों को अपनी सरकार के प्रति नाराजगी, गुस्सा और असंतोष है, उस देश की जनता सड़कों पर उतर कर ऐसा भयावह विरोध प्रदर्शन कर रही है कि सत्ता पर काबिज नेताओं को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ रही है। दक्षिण एशिया से लेकर यूरोप तक यह असंतोष सामने आ चुका है, जो केवल नाराजगी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सत्ता परिवर्तन और संवैधानिक संकट का कारण भी बना। श्रीलंका में आर्थिक संकट और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता ने राजपक्षे परिवार की सरकार को उखाड़ फेंका। बांग्लादेश में भी लगातार प्रदर्शनों के दबाव में सत्ता को चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अब नेपाल और फ्रांस, दो बिल्कुल अलग भौगोलिक सांस्कृतिक परिदृश्य वाले देशों में भी यही कहानी दोहराई जा रही है। दोनों देशों की परिस्थितियां अलग हैं, लेकिन मूल भाव एक ही है, युवाओं और आम नागरिकों का आक्रोश सत्ता के गलियारों को हिला रहा है। नेपाल में युवा पीढ़ी यानि जेन जेड ने सत्ता परिवर्तन ही कर दिया है। युवाओं के आंदोलन की शुरुआत सोशल मीडिया पर बैन से हुई थी, लेकिन यह सिर्फ चिंगारी साबित हुआ। असली ईंधन था दशकों से जमा हुआ गुस्सा, युवाओं की हताशा और राजनीतिक वर्ग का अवसरवाद। यही कारण है कि सोशल मीडिया के बैन को लेकर शुरू हुआ आंदोलन संवैधानिक संकट में बदल गया और सरकार गिरने का कारण बना। यहां तक कि मंत्रियों के बाद प्रधानमंत्री के.पी. ओली तक को इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा। उग्र युवाओं ने संसद, सुप्रीम कोर्ट, मंत्रियों के आवास व कुछ मीडिया हाउस को भी निशाना बनाया। भले ही तात्कालिक रूप से सोशल मीडिया पर बैन को हिंसा की वजह बताया जा रहा हो, लेकिन यह प्रतिक्रिया तात्कालिक नहीं थी। युवाओं की दशकों की हताशा और राजनीतिक कदाचार, काहिली व निरंकुशता के चलते गुस्सा नेपाल की सड़‌कों पर लावा बनकर फूटा है। नेपाल सरकार की सख्ती से आंदोलनकारियों के दमन ने आग में भी का काम किया। एक रिपोर्ट के अनुसार नेपाल की राजनीति में अवसरवाद व राजनीतिक अस्थिरता ने भी सरकारों के प्रति युवाओं के आक्रोश को बढ़ाया है। विडंबना देखिए कि नेपाल में बीते 17 वर्षों में 14 सरकारें बदल चुकी हैं। स्थायित्व और दूरदृष्टि के अभाव में यह देश लगातार राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और नेताओं की विलासिता के जीवन ने युवाओं को गहराई से आहत किया। जब जेन जेड पीढ़ी ने सोशल मीडिया पर मंत्रियों और शीर्ष नेताओं की संतानों की ऐशो-आराम भरी जीवनशैली का पर्दाफाश किया, तो सरकार को अपनी सत्ता हिलती दिखी। सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने की नीयत से सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन यह कदम ‘आग में घी डालने’ जैसा साबित हुआ। देखते-देखते आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया। संसद, सर्वोच्च न्यायालय, मंत्रियों के आवास और मीडिया संस्थानों तक को भीड़ ने निशाना बनाया। 70 से अधिक युवाओं की मौत ने स्थिति को और भी संवेदनशील बना दिया। प्रधानमंत्री के.पी. ओली समेत कई मंत्रियों का इस्तीफा इस बात का संकेत है कि जनता का आक्रोश अब नेताओं की कुर्सियों से बड़ा हो चुका है। दरअसल 1996 में राजशाही के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन शुरू हुआ। फिर 10 वर्षों की हिंसा और अस्थिरता के लंबे दौर से गुजरने के बाद 2006 में जन आंदोलन को अलविदा कहा। माओवादियों की सरकार बनी। दस वर्ष तक चले इस गृहयुद्ध में 16,000 से अधिक लोग मारे गए, और 2006 में शांति समझौते के साथ इसका अंत हुआ। नेपाल अब हिन्दू राष्ट्र नहीं रहा बल्कि एक गणतांत्रिक देश बन गया। नेपाल में 2008 में माओवादियों की जीत के बाद 240 साल पुरानी राजशाही खत्म हुई। लेकिन पिछले दो दशकों में भी जनता की उम्मीदों पर कोई सरकार खरी नहीं उतरी। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई सहित मूलभूत विकास नहीं होने से जनता में जनाक्रोश बढ़ता ही गया, यही कारण है कि लोकतंत्र से निराशा के बीच नेपाल में राजशाही की वापसी की मांग ने फिर से जोर पकड़ा है। 2025 में काठमांडू और अन्य शहरों में हजारों लोग ‘राजा वापस आओ, के नारे के साथ सड़‌कों पर उतरे। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह, जिन्हें 2008 में सत्ता से हटाया गया था, एक बार फिर सुर्खियों में हैं। उनके समर्थकों का मानना है कि राजशाही के दौर में कम से कम स्थिरता तो थी और भ्रष्टाचार आज की तुलना में कम था। हकीकत यह है कि नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में आता है। विश्व बैंक और अन्य स्रोतों के अनुसार नेपाल दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान के बाद दूसरा सबसे गरीब देश है। 2024 में नेपाल की प्रति व्यक्ति आय लगभग 1,381 डालर थी। 2025 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 2,878 डालर है, जो नेपाल से दोगुनी से अधिक है। हालांकि सेना द्वारा मोर्चा संभालने के बाद नेपाल में धीरे-धीरे परिस्थिति में सुधार हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश सुशीला कार्की को नई अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया हैं।
नेपाल की तरह ही फ्रांस भी जनाक्रोश की गिरफ्त में है। वहां ‘ब्लॉक एवरीथिंग’ नामक आंदोलन ने राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की नींद उड़ा दी है। शुरुआत सोशल मीडिया और एन्क्रिप्टेड चैट्स से हुई, लेकिन आज यह सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन में बदल चुका है। फ्रांस के लोगों का गुस्सा बजट कटौती, बढ़ती असमानता और सरकार की नीतियों से उपजा है। पेरिस से लेकर छोटे शहरों तक सड़कों को जाम किया जा रहा है, आगजनी और तोड़‌फोड़ हो रही है। गृहमंत्री चुनो रिटेलो के मुताबिक शुरुआती घंटों में ही 200 लोगों की गिरफ्तारी हुई। ट्रेनों की सेवाएं बाधित, बसें जलाई गई, यह सब दिखाता है कि जनाक्रोश किस स्तर तक पहुंच चुका है। फ्रांस में यह आक्रोश किसी एक कारण से नहीं है। यह असमानताओं के खिलाफ धीरे-धीरे पनपते गुस्से का विस्फोट है। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रपति मैक्रों इस चुनौती का सामना कर पाएंगे, या यह आंदोलन उनकी लोकप्रियता और सत्ता को हिला देगा ?
नेपाल और फ्रांस की घटनाएं यह दिखाती हैं कि कोई देश विकासशील हो या विकसित, जनता का आक्रोश तब फूटता है, जब उसे लगता है कि सत्ता उसके हितों की अनदेखी कर रही है। इस आक्रोश का सबसे बड़ा केंद्र युवाशक्ति है, जो न केवल भविष्य की बुनियाद है बल्कि वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती भी। सरकारें यदि समय रहते जनता की पीड़ा और युवाओं की आकांक्षाओं को समझने में असफल रहीं, तो लोकतंत्र का यह विस्फोट किसी भी सत्ताधारी के लिए घातक साबित हो सकता है।
जानकार विशेषज्ञों का मानना है कि यह समय है, जब हर देश में सत्ता को अहंकार छोड़कर जनता से जुड़ना होगा अन्यथा श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और फ्रांस की तरह और भी देश राजनीतिक उथल-पुथल के शिकार हो सकते हैं ।

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