भाजपा और विपक्ष के इस चुनाव में बार – बार बदलते मुद्दे
> अशोक भाटिया,
स्मार्ट हलचल/लोकसभा चुनाव के चार चरण पूरे हो चुके हैं। इस बार वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है। कश्मीर में भी 1987 के बाद वोटिंग का प्रतिशत बढ़ा है। विश्लेषकों का मानना है कि ये चरण भाजपा के लिए काफी निर्णायक है। सत्ताधारी पार्टी भाजपा की सीटों का आकलन अब काफी हद तक संभव हो जाएगा। भाजपा दावा कर रही है कि वोटर्स उसके पक्ष में निकल रहे हैं, पार्टी आसानी से 400 प्लस का लक्ष्य हासिल कर लेगी। वहीं, विपक्षी गठबंधन का कहना है कि उसके पक्ष में वोटर्स निकल रहे हैं।
फिलहाल लोक सभा चुनाव के चार चरण संपन्न हो चुके हैं। इन चार चरणों के चुनाव के बाद कई विश्लेषकों का यह दावा है कि गैर एनडीए पार्टियां मुकाबले को रोचक बनाने की भरसक कोशिश कर रही हैं। इसके पीछे के उनके कई तर्क हैं जिनमें वोटरों का लो टर्नआउट, स्थानीय मुद्दों का हावी रहना, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण … प्रमुख हैं। हालांकि ये उनके नैरेटिव हैं। हकीकत में क्या है । ये तो चुनाव परिणाम ही बतायेंगे। लेकिन ग्राउंड से जो रिपोर्ट आ रही हैं उससे इतना तो स्पष्ट है कि चुनाव से पहले के मुकाबले कांग्रेस और गैर एनडीए पार्टियों का आत्मविश्वास बढ़ा है ऐसे विपक्ष का मानना है ।
वैसे देखा जाय तो लोक सभा चुनाव से ठीक पहले ओपिनियन पोल एनडीए की शानदार जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे। मोदी के दावे के अनुरूप कई ओपिनियन पोल का तो अनुमान था कि भाजपा की अगुवाई में एनडीए को 2024 के लोक सभा चुनाव में 400 के करीब सीटें आ सकती है। ये ओपिनियन पोल अपने इन दावों का आधार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में इजाफे को बता रहे थे।ओपिनियन पोल का मानना था कि अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के अलावा कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति और सीएए को लागू करने के फैसले से मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है।
ओपिनियन पोल के मुताबिक लोक सभा चुनाव 2019 के मुकाबले एनडीए को इस लोकसभा चुनाव में ज्यादा सीटें दिलाने में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और दक्षिण के राज्य तेलंगाना आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की बड़ी भूमिका हो सकती है। जबकि गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, असम, बिहार, झारखंड, दिल्ली और कर्नाटक जैसे राज्यों में एनडीए अपने पुराने प्रदर्शन को दोहरा सकती है। यही ओपिनियन पोल यह भी बता रहे थे कि महाराष्ट्र में एनडीए को बेहद कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
ओपिनियन पोल के अनुमानों के मद्देनजर बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषक मान रहे थे कि शायद इस बार चुनाव प्रचार में मोदी हिंदुत्व के बजाय विकास पर ज्यादा फोकस करें। मोदी के चुनाव प्रचार की शुरुआत में ऐसा ही कुछ देखने को भी मिला। लेकिन पहले और दूसरे चरण के चुनाव के बाद मोदी पूरी तरह से हिंदुत्व की ओर शिफ्ट हो गए। फिलहाल मुस्लिम आरक्षण के बहाने वह विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियों पर जमकर वार कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदुत्व से जुड़े अन्य प्रमुख मुद्दे मसलन राम मंदिर, धारा 370, सीएए… वगैरह को भी वह जोर -शोर से उठा रहे हैं।
पहले दो चरण के चुनावों के बाद शायद मोदी को इस बात का अहसास हो गया कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों के ही सहारे जनता से सीधे कनेक्ट किया जा सकता है और विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ना जोखिम भरा हो सकता है। पहले और दूसरे चरण के दौरान हुए कम मतदान से भी शायद उन्हें इस जोखिम का अहसास हुआ होगा। क्योंकि ग्राउंड से जो रिपोर्ट आ रही हैं वह बता रही हैं कि इस बार खासकर फ्लोटिंग वोटर्स में चुनाव को लेकर खासा उत्साह नहीं है।दूसरी ओर मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए कांग्रेस लगातार जाति जनगणना, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दे को उठा रही है। इन मुद्दों का चुनाव परिणामों पर क्या असर होगा यह कहना तो जल्दबाजी होगी लेकिन बहुत सारे जानकार मानते हैं कि ये मुद्दे सुनने में जितना असरकारी लग रहे हों लेकिन ये मतदाताओं के रुख बदल नहीं सकते। उनकी मानें तो ज्यादातर वोटर्स चुनाव से पहले अपना मन बना चुके हैं कि उन्हें एनडीए या गैर एनडीए पार्टियों में से किसे वोट करना है। इसलिए यह मानना कि वे चुनाव के वक्त बदल जाएंगे बेमानी होगी।
जहां तक कम मतदान का प्रश्न है, चुनाव की शुरुआत से पहले इसके परिणामों के पूरी तरह एकतरफा रहने का जो प्रचार हुआ उसकी वजह से भी कुछ वोटर्स शायद अभी तक मतदान से दूर रहे हों। क्योंकि शायद उन्हें लग रहा हो कि चुनाव परिणाम तो पहले से ही जगजाहिर हैं इसलिए उनके वोट खास मायने नहीं रखते। लेकिन यह स्थिति सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए नुकसान भरा हो सकता है। क्योंकि एक तरफ एनडीए के वोटरों को शायद ऐसा लग रहा हो कि चुनाव में तो एनडीए की भारी जीत तय है इसलिए यदि वह वोट नहीं भी करते हैं तो परिणामों पर इसका कोई खास असर नहीं होगा। वहीं गैर एनडीए वोटर्स को शायद यह लग रहा हो कि ओपिनियन पोल के मुताबिक यदि एनडीए को इतनी ज्यादा बढ़त है तो वे वोट कर भी देंगे तो परिणामों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस वजह से शायद ऐसे वोटर मतदान प्रक्रिया के प्रति उदासीन रहे हों।चुनावी विश्लेषक हालांकि मानते हैं कि वैसे फ्लोटिंग वोटर्स जो चुनाव को लेकर उदासीन हैं उन्हें भावनात्मक मुद्दों के जरिये एक हद तक अपने पाले में लाया जा सकता है। मोदी का जोर-शोर से हिंदुत्व के मुद्दे की ओर लौटना शायद ऐसे उदासीन वोटरों को अपनी तरफ लाने का प्रयास हो। राहुल गांधी और कांग्रेस भी इस बात को भलीभांति समझ रही है तभी तो वह जाति जनगणना के मुद्दे को चुनाव प्रचार के दौरान जमकर उठा रहे हैं।
वैसे भी फ्लोटिंग वोटर्स की सामाजिक पृष्ठभूमि पर गौर करें तो इनमें ज्यादातर वोटर्स दलित और पिछड़ी जातियों के हो सकते हैं। इसलिए जाति जनगणना और मुस्लिम आरक्षण जैसे दोनों मुद्दे इस वर्ग के वोटरों के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। अब यह देखना होगा कि कांग्रेस और भाजपा में से कौन इन भावनात्मक मुद्दों के सहारे ऐसे फ्लोटिंग वोटर्स को अपनी ओर खींचने में सफल होती हैं।लेकिन यदि लोक सभा चुनाव से ठीक पहले आए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनाव परिणामों की बात करें तो पाते हैं कि इन विधान सभा चुनावों में कांग्रेस ने जाति जनगणना का मुद्दा जोर-शोर से उठाया लेकिन इसका मतदाताओं के ऊपर कुछ खासा असर नहीं हुआ और इन तीनों राज्यों में भाजपा (BJP) की बंपर जीत हुई।
मोदी का चुनाव प्रचार में हिंदुत्व के मुद्दे के साथ साथ मुस्लिम आरक्षण के जरिये दलित और ओबीसी आरक्षण में सेंधमारी के मुद्दे को प्रमुखता से उठाने का उद्देश्य भी उन्हीं वोटरों को अपनी ओर करना है। जाति जनगणना का मुद्दा पिछड़ी जातियों के वोटरों को प्रभावित न करे इसलिए मोदी हिंदुत्व और मुस्लिम आरक्षण के मुद्दों के जरिये इस मुद्दे को पूरी तरह बेअसर करना चाहते हैं।आने वाले चरणों में चुनाव प्रचार के दौरान मोदी शायद इन मुद्दों को लेकर और आक्रामक हो सकते हैं। वहीं कांग्रेस जाति जनगणना के मुद्दे पर भाजपा को और ज्यादा घेरने की कोशिश करेगी।
कई चुनावी विश्लेषक बताते हैं कि कांग्रेस और गैर एनडीए पार्टियां इस चुनाव को स्थानीय मुद्दों खासकर जाति पर भी केंद्रित करना चाह रही हैं। क्योंकि इन पार्टियों को लगता है कि चुनाव में स्थानीय फैक्टर्स जितना ज्यादा हावी होंगे भाजपा और एनडीए के लिए चुनौती उतनी ही ज्यादा होगी। मोदी भी इस बात को समझ रहे हैं तभी तो वे चुनाव को पूरी तरह से बड़े मुद्दों के इर्द गिर्द रखना चाहते हैं। पहले और दूसरे चरण के चुनाव के बाद जो उनकी रणनीति दिख रही है वह तो कम से कम इसी बात की ओर इशारा कर रही है।वैसे जानकार मानते हैं कि क्योंकि यह लोक सभा का चुनाव है इसलिए वोटर्स स्थानीय मुद्दों की बात चाहे जितना करें, इन मुद्दों को लेकर भले ही नाखुशी का इजहार करे लेकिन अंतत: वोट वे बड़े यानी राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखकर ही दे रहे है ।