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गृहस्थी के साथ भक्ति की परंपरा सिखाता है वल्लभाचार्य जी का पुष्टि मार्ग

(प्रभु वल्लभाचार्य जयंती 24अप्रैल)

डॉ.मुकेश कबीर
स्मार्ट हलचल|मध्यकाल में हुए भक्ति आंदोलन के सर्वश्रेष्ठ आचार्य माने जाते हैं वल्लभाचार्य। वल्लभाचार्य जी ने न केवल सन्यास मार्ग की अवधारणा को गलत बताया बल्कि गृहस्थी को भी भक्ति और सन्यास से जोड़कर एक नई परंपरा शुरू की जिसे पुष्टि मार्ग के नाम से जाना जाता है। पुष्टि मार्ग गृहस्थी के समस्त दायित्वों को पूरा करते हुए भी भक्ति और संन्यास का मार्ग प्रशस्त करता है,इसके पहले शंकराचार्य जी ने भक्ति मार्ग को प्रशस्त किया था लेकिन उनके भक्ति मार्ग में गृहस्थी का निषेध था क्योंकि उनका प्रसिद्ध सूत्र था ‘ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या’। इस मान्यता के अनुसार ईश्वर की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है लेकिन इसके लिए संसार का त्याग भी उतना ही जरूरी है, स्वयं शंकराचार्य जी भी इसी सिद्धांत पर चले थे और उनके बाद निंबार्काचार्य,रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य भी भक्ति मार्ग के ही प्रकाश स्तंभ रहे जिनका प्रभाव आज तक दुनिया में कायम है। निंबार्काचार्य जहां द्वैताद्वैत के सूत्र पर चले तो वहीं रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रहे लेकिन वल्लभाचार्य जी का सिद्धांत शुद्धाद्वैत रहा । इन चारों सिद्धांतों में ऊपरी फर्क यह है कि जहां शंकराचार्य जी ने ब्रह्म और जगत को पृथक बताया तो निंबार्काचार्य ने ब्रह्म और जगत को पृथक् मानते हुए भी एक माना क्योंकि उनका मूल तत्व एक ही है इसलिए उनका सिद्धांत द्वैताद्वैत रहा और वहीं रामानुजाचार्य के अनुसार जीव भी ब्रह्म का ही स्वरूप है लेकिन जगत में लिप्त है इसलिए यह दोनों एक होकर भी पृथक हैं और पृथक होते हुए भी एक ही हैं इसलिए इनका सिद्धांत विशिष्टाद्वैत रहा लेकिन वल्लभाचार्य ने ब्रह्म और जगत में ब्रह्म और जीव में कोई अंतर ही नहीं माना,वल्लभाचार्य के अनुसार सारी सृष्टि और समस्त जीव ब्रह्म ही हैं इसलिए यहां किसी तरह का कोई द्वैत संभव नहीं तभी इसको उन्होंने नाम दिया शुद्धाद्वैत और इसी शुद्धाद्वैत के सिद्धांत का पालन करते हुए ही उन्होंने सांसारिक जिम्मेदारियों का निर्वाहन करते हुए भी ईश्वर की भक्ति करने की बात कही और भक्ति को भी प्रयास के बजाए सहजता से करने की बात कही,जो भी और जितना भी सहजता से प्राप्त हो जाए उसे ईश्वर की कृपा मानकर,उसी में संतुष्ट रहकर भक्ति करते रहें इसीलिए इस मार्ग को कृपा मार्ग भी कहा गया और पुष्टि मार्ग भी क्योंकि जीव ब्रह्म ही है इस बात की पुष्टि वल्लभाचार्य करते हैं जीव को ब्रह्म तक पहुंचने की या ब्रह्म बनने की साधना करने की जरूरत नहीं है क्योंकि वो ब्रह्म ही है बस इसका दृष्टिगत भेदभाव खत्म करने की जरूरत है। स्वयं को और समस्त जीव जगत को ब्रह्म मानकर ही सहज जीवनयापन ही भक्ति का सर्वश्रेष्ठ विधान है, इसलिए वल्लभ संप्रदाय और अन्य संप्रदायों में सबसे बड़ा फर्क यह भी है कि अन्य मार्ग जहां सांसारिक बंधनों को तोड़कर, संन्यासी जीवन जीते हुए ईश्वर की भक्ति करने को प्रेरित करते हैं वहीं पुष्टि मार्ग गृहस्थ रहते हुए भी भक्ति करने के लिए प्रेरित करता है,यहां शादी का निषेध नहीं है और भौतिक वस्तुओं का भी कोई निषेध नहीं है बस उनको अपना मानने के बजाए ईश्वर का स्वरूप मानकर ग्रहण करें और उनको भोगते हुए भी मन से उनके प्रति अनुराग न रखें। यह सबके लिए सहज है। इसलिए इसका दूसरा नाम सहज मार्ग भी है वल्लभाचार्य स्वयं भी इस मार्ग पर चले और उनके वंशज भी आज इसी मार्ग को प्रचारित कर रहे हैं। आचार्य वल्लभ भक्तिमार्ग के शायद एकमात्र आचार्य हैं जिनके वंशज आज भी मौजूद हैं जबकि अन्य आचार्यों की वंश परम्परा नहीं मिलती। वल्लभाचार्य जी का शुद्धाद्वैत का सिद्धांत भगवद्गीता के सबसे ज्यादा नजदीक लगता है क्योंकि गीता भी संन्यास मार्ग के बजाए भक्ति मार्ग को महत्व देती है और समस्त सांसारिक क्रियाकलापों को भी उतना ही जरूरी मानती है जितनी भक्ति को। गीता के अनुसार भी संसार में रहते हुए ही भक्ति करना श्रेष्ठ है। गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते भी हैं कि तू हर समय मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर और खास बात यह है कि श्रीकृष्ण ने यह बात तब कही है जबकि अर्जुन सन्यासी होना चाहते हैं। संसार को त्यागना चाहते हैं। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस भक्ति मार्ग की सलाह दी वही हमे देखने को मिलती है आचार्य बल्लभ के पुष्टि मार्ग में। इसीलिए इनके मार्ग को शुद्धाद्वैत माना जाता है। आचार्य वल्लभ गृहस्थी में रहते हुए भी हमेशा भक्ति में ही रहे फिर चाहे गीता और भागवत का सतत प्रचार हो या जगह जगह श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार और हवेलियों की स्थापना,वो हमेशा इसी में संलग्न रहे। पुष्टि मार्ग में श्रीकृष्ण के मंदिरों को हवेली कहने की परंपरा है और उन मंदिरों में जो भजन गाए जाते थे उन्हें हवेली संगीत कहा गया। पुष्टि मार्ग में भक्ति के तीन आधार है राग,भोग और श्रृंगार। और ठीक से देखें तो मानव जीवन के भी यह तीन आधार है जिन्हें हम रोटी,कपड़ा मकान और मनोरंजन मान सकते हैं। मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ तरीका संगीत ही होता है और भक्ति का भी सर्वश्रेष्ठ तरीका संगीत ही है। इसीलिए आचार्य वल्लभ ने संगीत को भक्ति से जोड़ा। साथ ही श्रृंगार और भोजन को भी भक्ति से जोड़ दिया ताकि वह सब सूक्ष्म रूप से प्रसाद का रूप गृहण कर सके और यह समस्त संसार ईश्वर का प्रसाद हो जाए। फिर इसे गृहण करने में भोग करने में कोई पाप या अपराध नहीं कोई सांसारिकता नहीं,समस्त क्रिया कलाप ही भक्ति बन जाए। सबसे अद्भुत मार्ग है आचार्य वल्लभ का पुष्टि मार्ग जो आज वैष्णव धर्म का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है और करोड़ों लोग इस मार्ग के अनुयाई हैं जिसे वल्लभाचार्य की सृष्टि कहा जाता है।

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