> अशोक भाटिया
स्मार्ट हलचल/विपक्षी पार्टियों के विरोध के कारण केंद्र सरकार ने वक्फ (संशोधन) बिल, 2024 को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजने की सिफारिश की है। केंद्रीय संसदीय कार्य और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने 8 अगस्त गुरुवार को लोकसभा में इस संशोधन बिल को पेश किया था । बिल के पेश होते ही विपक्षी सांसदों ने हंगामा शुरू कर दिया। विपक्ष का कहना है कि ये बिल संविधान पर हमला है और इससे मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा है। सांसदों ने इस बिल को तुरंत वापस लेने की मांग की। वैसे वक्फ कानून, 1995 में सुधार के दावों के साथ लाया गया ये संशोधन विधेयक पिछले कई दिनों से विवादों में है। सरकार का दावा है कि इस कानून में लंबे समय से बदलाव की मांग हो रही थी। बदलाव के जरिये राज्यों के वक्फ बोर्ड में मुस्लिम महिलाओं और गैर-मुस्लिमों को शामिल किए जाने प्रावधान है। इसके अलावा मौजूदा कानून की धारा-40 को खत्म करने का भी प्रावधान है। कोई संपत्ति वक्फ बोर्ड की संपत्ति होगी, इस धारा के तहत ही बोर्ड को फैसला लेने की शक्ति दी गई है।
रिजिजू के अनुसार इस बिल में जो भी प्रावधान हैं, आर्टिकल 25 से लेकर 30 तक किसी रिलीजियस बॉडी का जो फ्रीडम है, उसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा रहा है। न ही संविधान के किसी भी अनुच्छेद का इसमें उल्लंघन किया गया है। इस विधेयक से किसी भी धार्मिक संस्था की स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। हालांकि अपना पक्ष रखने के बाद उन्होंने बिल को जेपीसी के पास भेजने की सिफारिश की। बताया गया था कि अब इस बिल पर चर्चा के लिए स्पीकर ओम बिरला एक संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी का गठन करेंगे। इस कमेटी में सत्ताधारी और विपक्षी दलों के सांसदों को शामिल किया जाता है।
ज्ञात हो कि संसद में मुख्य रूप से दो तरह की समितियां होती हैं। 1, स्थायी समिति यानी स्टैंडिंग कमेटी 2, तदर्थ समिति यानी एडहॉक कमेटी। स्टैडिंग कमेटी वो होती हैं, जिनका गठन समय-समय पर संसद के अधिनियम की प्रक्रिया और कार्य-संचालन नियम के हिसाब से किया जाता है। इन कमेटियों का कार्य अनवरत प्रकृति का होता है। यानी काम चलता रहता है।वहीं, कई समितियां तय समय सीमा के लिए गठित की जाती हैं। एडहॉक कमेटी वो होती हैं, जो किसी बिल या मुद्दे की जांच या विशेष प्रयोजन के लिए बनाई जाती हैं। जब ये कमिटी अपनी रिपोर्ट जमा कर देती हैं, तब उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जेपीसी भी इसी श्रेणी में आती है।
जेपीसी में राज्यसभा और लोकसभा दोनों सदनों के सदस्य शामिल किए जाते हैं।बाद में किसी भी मामले में जेपीसी गठित करने के लिए बाकायदा संसद के एक सदन द्वारा प्रस्ताव पारित किया जाता है। दूसरे सदन द्वारा इस पर सहमति ली जाती है। जेपीसी गठित होने के बाद सांसदों की टीम मामले की पूरी जांच करती है। पार्टियां अपने सदस्यों के नाम जेपीसी के लिए आगे बढ़ाती हैं और फिर उन्हें अप्रूव किया जाता है।
जेपीसी में सदस्यों की संख्या तय नहीं होती है। सदस्यों की संख्या उस दल की ताकत के हिसाब से देखी जाती है। यानी अगर आज किसी मामले में जेपीसी गठित होती है तो उसमें सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा के सबसे ज्यादा सदस्य होंगे। लोकसभा स्पीकर ही कमिटी के अध्यक्ष को चुनते हैं। ज्यादातर समय ये जिम्मा सत्ताधारी पार्टी के सांसद हो ही मिलता है।
जेपीसी गठित हो गई तो उसे मामले की गहनता से जांच के लिए विशेषाधिकार मिल जाते हैं। इनका इस्तेमाल कर वो जरूरी जानकारी हासिल कर सकती है। जेपीसी, एक्सपर्ट, सरकारी संस्थाओं और विभागों से जानकारियां हासिल कर सकती है।जेपीसी और अन्य समितियों की सिफारिशों के आधार पर की गई कार्रवाई पर सरकार को संसद में रिपोर्ट पेश करनी होती है। किसी मुद्दे की जांच में अगर सबूत जुटाने के लिए मामले से जुड़े व्यक्ति को कमिटी बुलाना चाहे तो उसे पेश होना होता है। पेश नहीं होने पर उसे संसद की अवमानना मानी जाती है।वहीं, बिल से जुड़े मसलों पर ये कमिटी एक्सपर्ट से सुझाव लेती है। सुझावों या आपत्तियों को कमिटी अपनी रिपोर्ट में शामिल कर सकती है।कमिटी के सुझाव सरकार के लिए सलाह के तौर पर होते हैं। जरूरी नहीं कि सरकार उसे माने ही। चूंकि कमिटियों में ज्यादातर सांसद और अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी के होते हैं, इसलिए अक्सर सुझाव मान लिए जाते हैं।
जेपीसी के गठन के बाद लोकसभा के स्पीकर जेपीसी का एक अध्यक्ष नियुक्त करते हैं, जिसका फैसला सर्वमान्य होता है। आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के सांसद ही जेपीसी के अध्यक्ष होते हैं। बाकी इसमें सभी दलों के सांसद शामिल किए जाते हैं, जिससे निष्पक्ष रिपोर्ट सामने आए। समिति के अधिकतर सदस्य किसी मामले को दबाने की भी कोशिश करते हैं, तो दूसरे सदस्य आपत्ति दर्ज करा सकते हैं। बोफोर्स केस में ऐसा ही हुआ था, जब एआईडीएमके के सांसद ने जांच के खिलाफ अपना आपत्ति नोट दर्ज कराया था। बिल के यहां पहुंचने के बाद उस पर चर्चा होती है। इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों के होने पर रिपोर्ट निष्पक्ष आती है। चर्चा सिर्फ सदस्यों तक सीमित नहीं रखी जाती। इसमें कई पॉइंट्स बताए जाते हैं, जिनकी जांच की जाती है और चर्चा होती है। सम्बंधित क्षेत्र विशेषज्ञों और समूहों को आमंत्रित किया जाता है। इसके अलावा कुछ मामलों में जनता से भी सलाह ली जा सकती है।
समिति का उद्देश्य किसी मुद्दे, विधेयक के प्रावधानों या घोटाले आदि की जांच करना होता है। भारत की संसदीय प्रणाली में जेपीसी एक शक्तिशाली जांच निकाय के रूप में काम करती है। जेपीसी को जिस काम के लिए बनाया जाता है, उससे जुड़े सबूत और तथ्य जुटाने के लिए किसी भी व्यक्ति, संस्था या पक्ष को बुलाने और उससे पूछताछ करने का अधिकार होता है। अगर कोई मामला जनहित का न हो तो आमतौर पर समिति की कार्यवाही और इसके निष्कर्ष को गोपनीय ही रखा जाता है। अमूमन जेपीसी के पास जांच के लिए अधिकतम तीन महीने का समय होता है। इसके बाद यह अपनी रिपोर्ट पेश करते है और इसका अस्तित्व खत्म हो जाता है।
समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए वैसे तो सरकार बाध्य नहीं होती है पर अगर इसकी सिफारिशों पर कार्रवाई करती है तो इसकी रिपोर्ट सदन को देनी होती है। समितियों की कार्रवाई रिपोर्ट पर संसद में चर्चा हो सकती है और इससे जुड़े सवाल भी उठाए जा सकते हैं। देश के इतिहास में अब तक कई बार जेपीसी का गठन किया जा चुका है। यह जानना भी दिलचस्प है कि पांच बार जेपीसी का गठन करने के बाद सत्तारूढ़ दल अगला चुनाव हार गया।
साल 1987 में स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी बोफोर्स के साथ भारत सरकार ने 1437 करोड़ रुपए का एक रक्षा सौदा किया था। तभी वहां की मीडिया में खबर आई थी कि बोफोर्स ने रक्षा सौदों के लिए कई देशों की सरकारों को रिश्वत दी है। इस पर भारत में भी खूब हंगामा हुआ। खुद राजीव गांधी के करीबी मंत्री रहे वीपी सिंह ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बोफोर्स सौदे की जांच के लिए जेपीसी बनानी बड़ी थी, जिसके अध्यक्ष कांग्रेस सांसद बी। शंकरानंद थे। इस समिति ने रिपोर्ट पेश की तो राजीव गांधी को क्लीन चिट दे दी गई थी। इस पर विपक्ष ने काफी हंगामा किया था। इसके बाद साल 1989 में हुए चुनाव में राजीव गांधी को हार का सामना करना पड़ा था, जबकि 1984 में उन्होंने लोकसभा की 414 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी। वहीं, बोफोर्स घोटाले को उठाने वाले वीपी सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए थे
शेयर बाजार में बिग बुल के नाम से मशहूर रहे ब्रोकर हर्षद मेहता साल 1992 में सुर्खियों में आ गए थे। तब आरोप लगा था कि शेयर बाजार में 4000 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ था। मेहता पर आरोप थे कि वह बैंक से कर्ज लेकर शेयर बाजार में पैसा लगाता है और फिर फायदा कमाने के बाद पैसा बैंक को वापस कर देता है। इसके लिए हर्षद और बैंक अधिकारियों के बीच सांठगांठ की खबरें आईं तो शेयर बाजार गिरता चला गया। तब हर्षद मेहता पर 72 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे। इस पर मेहता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया था कि उसने प्रधानमंत्री को भी एक करोड़ रुपए की रिश्वत दी है। इसको लेकर विपक्ष ने संसद में काफी हंगामा किया। इसके बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस मामले में जेपीसी बनाई थी, जिसके मुखिया कांग्रेस सांसद राम निवास मिर्धा थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को इस मामले में क्लीन चिट मिल गई थी पर 1996 के चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था।
साल 2001 में एक और शेयर ब्रोकर केतन पारेख का नाम उछलने लगा। उस पर 2 लाख करोड़ रुपए की धोखाधड़ी का आरोप लगा था। इससे अहमदाबाद की माधवपुरा मर्केंटाइल सहकारिता बैंक पूरी तरह से डूब गया था। इसका दाग तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर भी लगा तो भाजपा सांसद प्रकाश मणि त्रिपाठी की अध्यक्षता में जेपीसी बनाई गई थी। इस समिति ने सरकार को तो क्लीन चिट दे दी थी पर शेयर बाजार के नियमों में फेरबदल के लिए सिफारिश की थी।
साल 2004 में कोका कोला और पेप्सी जैसी सॉफ्ट ड्रिंक में पेस्टीसाइड की मात्रा अधिक होने का मामला उठा। संसद में भी यह मुद्दा खूब उछला। इस पर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जेपीसी बना दी, जिसका अध्यक्ष विपक्ष के शरद पवार को बनाया गया था। इस जेपीसी ने माना था कि सॉफ्ट ड्रिंक और फ्रूट जूस में पेस्टीसाइड मिलाया जा रहा है। इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था और कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार बनी थी।
साल 2009-10 में 2जी स्पैक्ट्रम आवंटन में रिश्वत लेने का मुद्दा उठा तो तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा को जेल तक जाना पड़ा। इसी मुद्दे पर कई दिन संसद ठप रही। इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने साल 2011 में जेपीसी बना दी, जिसकी अध्यक्षता कांग्रेस सांसद पीसी चाको को दी गई थी। समिति ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को क्लीन चिट दी थी पर इस रिपोर्ट का 15 सांसदों ने विरोध कर दिया। इसके बाद साल 2013 में समिति की फाइनल रिपोर्ट आई, जिसमें 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले का सारा दोष तत्कालीन दूरसंचार मंत्री पर मढ़ा गया था।
इनके अलावा नागरिकता संशोधन विधेयक-1955 में संशोधन के लिए साल 2016 में लाए गए विधेयक की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया था। इस पर समिति ने देश में अवैध रूप से रहने वाले विदेशियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा करार दिया था। साथ ही उन्हें वापस भेजने की गति बेहद धीमी होने पर चिंता जताई थी। वहीं, साल 2019 में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया था। तभी इस विधेयक को जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था।
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य वीवीआईपी के लिए भारत सरकार ने हेलिकॉप्टर खरीदने के लिए अगस्ता वेस्टलैंड कंपनी के साथ 3,700 करोड़ रुपए से ज्यादा का सौदा किया था। इस पर आरोप लगा था कि कंपनी ने इस सौदे के लिए नेताओं और अधिकारियों को रिश्वत दी थी। इस पर मनमोहन सिंह की सरकार ने पूरे मामले की जांच के लिए साल 2013 में जेपीसी के गठन का प्रस्ताव रखा था, जो राज्यसभा से पास हो गया था पर मुख्य विपक्षी दल भाजपा, जेडीयू और तृणमूल कांग्रेस के बहिष्कार के कारण इसका गठन नहीं हो पाया था।