Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगहिंदी अपने आप को क्यों अपमानित महसूस करती है?

हिंदी अपने आप को क्यों अपमानित महसूस करती है?

हिंदी भाषा की विवशता,हिंदी अपने शब्दों में क्या कहना चाहती है?

 मदन मोहन भास्कर

स्मार्ट हलचल|आपने हिंदी भाषा के महत्व और उसकी स्थिति के बार में बहुत पढ़ा होगा लेकिन हिंदी भाषा को लेकर शायद चिंतित कोई नहीं हैं। हिंदी को अपमानित करने से किसी अन्य भाषा का महत्व बढ़ सकता है क्या ? क्या लिखूँ समझ में नहीं आता कहां से शुरू करूं ? कैसे शुरू करूं? हिंदी जिसकी पहचान इस देश से है, इसकी माटी से है। इसके कण-कण से हैं। अपने ही आंगन में बेइज्जत कर दी जाती है ।

हिंदी अपने शब्दों में क्या कहना चाहती है?

कहने को संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी (मुझे) राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाये लेकिन आज यह सब मुझे क्यों कहना पड़ रहा है? नहीं जानती थी मेरा (हिंदी ) किसी ‘राज्य-विशेष’ में किसी की ‘जुबान’ पर आना अपराध हो सकता है। मन बहुत दुखता है जब मुझे अपनी ही संतानों को यह बताना पड़े कि मैं(हिंदी ) भारत के 70 प्रतिशत गांवों की अमराइयों में महकती हूं। मैं लोकगीतों की सुरीली तान में गुंजती हूं। मैं नवसाक्षरों का सुकोमल सहारा हूं। मैं जनसंचार का स्पंदन हूं। मैं कलकल-छलछल करती नदिया की तरह हर आम और खास भारतीय ह्रदय में प्रवाहित होती हूं। मैं मंदिरों की घंटियों, मस्जिदों की अजान, गुरुद्वारे की शबद और चर्च की प्रार्थना की तरह पवित्र हूं। क्योंकि मैं आपकी, आप सबकी-अपनी हिन्दी हूं।

विश्वास करों मेरा कि मैं दिखावे की भाषा नहीं हूं, मैं झगड़ों की भाषा भी नहीं हूं। मैंने अपने अस्तित्व से लेकर आज तक कितनी ही सखी भाषाओं को अपने आंचल से बांध कर हर दिन एक नया रूप धारण किया है। फारसी, अरबी, उर्दू से लेकर ‘आधुनिक बाला’ अंग्रेजी तक को आत्मीयता से अपनाया है।

सखी भाषा का झगड़ा मेरे लिए नया नहीं है। इससे पहले भी मेरी दक्षिण भारतीय ‘बहनों’ की संतानों ने यह स्वर उठाया था, मैंने हर बार शांत और धीर-गंभीर रह कर मामले को सहजता से सुलझाया है। लेकिन इस बार मेरी अनन्य सखी मराठी की संतानें मेरे लिए आतंक बन कर खड़ी है। इस समय जबकि सारे देश में विदेशी ताकतों का खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में आपसी दीवारों का टकराना क्या उचित है?

लेकिन कैसे समझाऊं और किस-किस को समझाऊं? महाराष्ट्र में ‘कोई’ दम ठोंक कर कहता है कि मेरा अस्तित्व मिटा देगा। मैं क्या कल की आई हुई कच्ची-पक्की बोली हूं जो मेरा नामोनिशान मिटा दोगे? मैं इस देश के रेशे-रेशे में बुनी हुई, अंश-अंश में रची-बसी ऐसी जीवंत भाषा हूं जिसका रिश्ता सिर्फ जुबान से नहीं दिल की धड़कनों से हैं।

मेरे दिल की गहराई का और मेरे अस्तित्व के विस्तार का तुम इतने छोटे मन वाले भला कैसे मूल्यांकन कर पाओगे? इतिहास और संस्कृति का दम भरने वाले छिछोरी बुद्धि के प्रणेता कहां से ला सकेंगे वह गहनता जो अतीत में मेरी महान संतानों में थी।

मैंने तो कभी नहीं कहा कि बस मुझे अपनाओ। बॉलीवुड से लेकर पत्रकारिता तक और विज्ञापन से लेकर राजनीति तक हर एक ने नए शब्द गढ़े, नए शब्द रचें, नई परंपरा, नई शैली का ईजाद किया। मैंने कभी नहीं सोचा कि इनके इस्तेमाल से मुझमें विकार या बिगाड़ आएगा।

मैंने खुले दिल से सभी भाषाओं का,भाषा के शब्दों का, शैली और लहजे का स्वागत किया। यह सोचकर कि इससे मेरा ही विकास हो रहा है। मेरे ही कोश में अभिवृद्धि हो रही है। अगर मैंने भी इसी संकीर्ण सोच को पोषित किया होता कि दूसरी भाषा के शब्द नहीं अपनाऊंगी तो भला उद्दाम आवेग से इठलाती-बलखाती यहां तक कैसे पहुंच पाती?

मैंने कभी किसी भाषा को अपना दुश्मन नहीं समझा। किसी भाषा के इस्तेमाल से मुझमें असुरक्षा नहीं पनपी क्योंकि मैं जानती थी कि मेरे अस्तित्व को किसी से खतरा नहीं है। पर महाराष्ट्र जैसे राज्यों से छनकर आते घटनाक्रमों से एक पल के लिए मेरा यह विश्वास डोल गया।

पिछले दिनों मैं और मेरी सखी भाषाएं मिलकर त्रिभाषा फार्मूला पर सोच ही रही थी। लेकिन इसका अर्थ यह तो कतई नहीं था कि हमारी संतान एक-दूसरे के विरुद्ध नफरत के खंजर निकाल लें। यह कैसा भाषा-प्रेम है?

यह कैसी भाषाई पक्षधरता है? क्या ‘मां’ से प्रेम दर्शाने का यह तरीका है कि ‘मौसी’ की गोद में बैठने पर अपने ही भाई को दुश्मन समझ बैठो। क्या लगता है आपको, इससे ‘मराठी’ खुश होगी? नहीं हो सकती।

हम सारी भाषाएं संस्कृत की बेटियां हैं। बड़ी बेटी का होने का सौभाग्य मुझे मिला, लेकिन इससे अन्य भाषाओं का महत्व कम तो नहीं हो जाता और यह भी तो सच है ना कि मुझे अपमानित करने से मराठी का महत्व बढ़ तो नहीं जाएगा?

यह कैसा भाषा गौरव है जो अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए स्थापित भाषा को उखाड़ देने की धृष्टता करें। मुझे कहां-कहां पर प्रतिबंधित करोगे? ‍पूरा महाराष्ट्र तो बहुत दूर की बात है अकेली मुंबई से मुझे निकाल पाना संभव नहीं है।

बरसों से भारतीय दर्शकों का मनोरंजन कर रही फिल्म इंडस्ट्री से पूछ कर देख लों कि क्या मेरे बिना उसका अस्तित्व रह सकेगा? कैसे निकालोगे लता के सुरीले कंठ से, गुलजार की चमत्कारिक लेखनी से?

कोई और रचनात्मक काम क्यों नहीं करते ‘मराठी पुत्र’? जो ‘मन’ से सबको भाए ना कि ‘मनसे’ सबको डराए। अपनी सोच को थोड़ा सा विस्तार दो, मैं आपकी भी तो हूँ , मेरा अपमान हो रहा है ऐसा महसूस मत कराओ
। बस इतना ही कहना है ।

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