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चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाने से राजनैतिक दलों को फायदा होगा या नुकसान ?

स्मार्ट हलचल/आज (15-02-2024 ) को सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इसे रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ़ कहा है कि चुनावी बॉन्ड असंवैधानिक हैं और इस पूरे सिस्टम में पारदर्शिता नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट ने आदेश दिया है कि चुनावी बॉन्ड बेचने वाली बैंक स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया तीन हफ्ते में चुनाव आयोग के साथ सभी जानकारियां साझा करे। इसके लिए कोर्ट ने बैंक को तीन हफ्ते का समय दिया है। चुनावी बॉन्ड के क़ानूनी रूप में आने के बाद से इसका विरोध शुरू हो गया था। कांग्रेस पार्टी समेत कई अन्य गैर सरकारी संगठनों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। इस मामले में सुनवाई 31 अक्टूबर को शुरू हुई थी। तीन दिन तक चली लगातार सुनवाई के बाद 2 नवंबर 2023 को अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। अब आज फैसला सुनाते हुए चुनावी बॉन्ड स्कीम को ही गैरकानूनी करार दिया है।
इसके साथ ही कोर्ट बॉन्ड के बेचने पर भी रोक लगा दी है। वहीं कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी निर्देश देते हुए कहा कि आयोग बैंक से जानकारी लेकर 31 मार्च तक सभी जानकारियां वेबसाइट पर साझा करे। बता दें कि चुनावी बॉन्ड को लेकर आयोग भी इसके खिलाफ था। वहीं केंद्रीय बैंक आरबीआई इसकी खिलाफत करती आई है। लेकिन केंद्र सरकार का मानना था कि राजनीतिक दलों को चंदा देने का यह सही माध्यम था।
योजना को सरकार ने दो जनवरी 2018 को अधिसूचित किया था। इसके मुताबिक चुनावी बॉण्ड को भारत का कोई भी नागरिक या देश में स्थापित इकाई खरीद सकती थी। कोई भी व्यक्ति अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से चुनावी बॉण्ड खरीद सकता था। जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल चुनावी बॉण्ड स्वीकार करने के पात्र थे। शर्त बस यही थी कि उन्हें लोकसभा या विधानसभा के पिछले चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट मिले हों। चुनावी बॉण्ड को किसी पात्र राजनीतिक दल द्वारा केवल अधिकृत बैंक के खाते के माध्यम से भुनाया जाता था। बॉन्ड खरीदने के पखवाड़े भर के भीतर संबंधित पार्टी को उसे अपने रजिस्टर्ड बैंक खाते में जमा करने की अनिवार्यता होती थी। अगर पार्टी इसमें विफल रहती है तो बॉन्ड निरर्थक और निष्प्रभावी यानी रद्द हो जाता था।
चुनावी बॉन्ड पर कोर्ट के द्वारा रोक लगाने के बाद अब सवाल उठता है कि आगे क्या होगा? कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि SBI को अब टेक बेचे गए सभी बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग के साथ साझा करनी होगी। इसके लिए कोर्ट ने बैंक को तीन हफ्ते का समय दिया है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी इस मामले में दिशानिर्देश दिए हैं। कोर्ट ने आदेशानुसार, बैंक से जानकारी मिलने के बाद चुनाव आयोग को भी 31 मार्च तक सभी जानकारियां अपनी वेबसाइट पर साझा करनी होंगी।

एसबीआई इन बॉन्ड को 1,000, 10,000, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपए के समान बेचता है। इसके साथ ही दानकर्ता दान की राशि पर 100% आयकर की छूट पाता था। इसके साथ ही इस नियम में राजनीतिक दलों को इस बात से छूट दी गई थी कि वे दानकर्ता के नाम और पहचान को गुप्त रख सकते हैं। इसके साथ ही जिस भी दल को यह बॉन्ड मिले होते हैं, उन्हें वह एक तय समय के अंदर कैश कराना होता है।
साल 2018 में इस बॉन्ड की शुरुआत हुई। इसे लागू करने के पीछे मत था कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा। इसमें व्यक्ति, कॉरपोरेट और संस्थाएं बॉन्ड खरीदकर राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में देती थीं और राजनीतिक दल इस बॉन्ड को बैंक में भुनाकर रकम हासिल करते थे। भारतीय स्टेट बैंक की 29 शाखाओं को इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने और उसे भुनाने के लिए अधिकृत किया गया था। ये शाखाएं नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, गांधीनगर, चंडीगढ़, पटना, रांची, गुवाहाटी, भोपाल, जयपुर और बेंगलुरु की थीं।
इलेक्टोरल बॉन्ड की खूबी यह थी कि कोई भी डोनर अपनी पहचान छुपाते हुए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से एक करोड़ रुपए तक मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीद कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकता था। ये व्यवस्था दानकर्ताओं की पहचान नहीं खोलती और इसे टैक्स से भी छूट प्राप्त थी । आम चुनाव में कम से कम 1 फीसदी वोट हासिल करने वाले राजनीतिक दल को ही इस बॉन्ड से चंदा हासिल हो सकता था।
केंद्र सरकार ने इस दावे के साथ इस बॉन्ड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनवरी 2018 में लिखा था, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था में ‘साफ-सुथरा’ धन लाने और ‘पारदर्श‍िता’ बढ़ाने के लिए लाई गई थी जो नाकाम रही थी ।
एक व्यक्ति, लोगों का समूह या एक कॉर्पोरेट बॉन्ड जारी करने वाले महीने के 10 दिनों के भीतर एसबीआई की निर्धारित शाखाओं से चुनावी बॉन्ड खरीद सकता थी। जारी होने की तिथि से 15 दिनों की वैधता वाले बॉन्ड 1000 रुपए, 10000 रुपए, एक लाख रुपए, 10 लाख रुपए और 1 करोड़ रुपए के गुणकों में जारी किए जाते थे। ये बॉन्ड नकद में नहीं खरीदे जा सकते और खरीदार को बैंक में केवाईसी (अपने ग्राहक को जानो) फॉर्म जमा करना होता था।सियासी दल एसबीआई में अपने खातों के जरिए बॉन्ड को भुना सकते थे । यानी ग्राहक जिस पार्टी को यह बॉन्ड चंदे के रूप में देता था वह इसे अपने एसबीआई के अपने निर्धारित एकाउंट में जमा कर भुना सकता था। पार्टी को नकद भुगतान किसी भी दशा में नहीं किया जाता और पैसा उसके निर्धारित खाते में ही जाता था।
इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वाले व्यक्तियों की पैसे देने वालों के आधार और एकाउंट की डिटेल मिलती थी। इलेक्टोरल बॉन्ड में योगदान ‘किसी बैंक के अकाउंट पेई चेक या बैंक खाते से इलेक्ट्रॉनिक क्लीयरिंग सिस्टम’ के द्वारा ही किया जाता था। सरकार ने जनवरी 2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड के नोटिफिकेशन जारी करते समय यह भी साफ किया था कि इसे खरीदने वाले को पूरी तरह से नो योर कस्टमर्स (केवाईसी) नॉर्म पूरा करना होगा और बैंक खाते के द्वारा भुगतान करना होगा।

गौरतलब है कि चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है और प्रत्येक देश के जीवंत लोकतंत्र की नीव वहाँ होने वाले स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनावों पर टिकी होती है। चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेना एक नागरिक का विशेषाधिकार है, हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में यह प्रक्रिया भ्रष्टाचार से पूरी तरह प्रभावित है। देश में होने वाले चुनावों का भरी-भरकम खर्च भारतीय चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या है। संविधान के कामकाज की समीक्षा हेतु गठित राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, चुनावों की उच्च लागत सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने हेतु काफी हद तक ज़िम्मेदार है। चुनाओं में खर्च होने वाले अनगिनत पैसे या चुनावी फंडिंग के स्रोत को कुछ विशेषज्ञ अपराधीकरण से भी जोड़कर देखते हैं, जिससे देश में कानून तोड़ने वाले ही कानून निर्माता बन जाते हैं। कई बार यह पैसे सुरक्षा के बदले दिया जाता है, जबकि कई स्थिति में यह बड़े व्यावसायिक समूहों से भी प्राप्त होता है जो इस प्रकार के निवेश से लाभ कमाना चाहते हैं। भारतीय चुनावों में काले धन के उपयोग की बात भी समय-समय पर सामने आती रही है। गौरतलब है कि यह न केवल मनी लांड्रिंग को बढ़ावा देता था , बल्कि यह इसके गंभीर आर्थिक और सामाजिक परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं। यह भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म को भी बढ़ावा देता था ।
विशेषज्ञ मानते रहे हैं कि चुनावी बॉण्ड का लोकतंत्र पर दीर्घकालिक प्रभाव होता था । इस विषय पर शोध कर रहे कई शोधकर्ताओं का कहना था कि चुनावी बॉण्ड की प्रक्रिया संबंधी गुप्त जानकारी प्रवर्तन एजेंसी के साथ सरकार को भी होती है, परंतु जनता को इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं होती। जिसके कारण यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि गोपनीयता के साये में एक अच्छा लोकतंत्र कैसे निर्मित किया जा सकता है? अक्सर यह देखा गया है कि चुनावी बॉण्ड प्रक्रिया के माध्यम से अधिकतर पैसा सत्ताधारी डाल को ही मिलता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में खरीदे गए कुल चुनावी बॉण्ड में से लगभग 95% एक दल विशेष के खाते में गए।
चुनावी बॉण्ड से संबंधी विवाद के कारण यह बना कि इस व्यवस्था के तहत न तो फंड देने वाला के नाम की घोषणा की जाती है और न ही फंड लेने वाले के नाम की। यह व्यवस्था राजनीतिक जानकारी की स्वतंत्रता के मौलिक संवैधानिक सिद्धांत की अवहेलना करता है। गौरतलब है कि यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) का एक अनिवार्य तत्व है।साथ ही यह राजनीतिक वित्त में पारदर्शिता के मूल सिद्धांत की भी अवहेलना करता है। यह प्रणाली उन कॉरपोरेट्स की पहचान छिपाने में मदद करती है जो राजनीतिक दलों विशेष रूप से सत्ताधारी दलों को राजनीतिक लाभ के लिये भारी मात्रा में अनुदान देते हैं।कई आलोचक तर्क देते थे कि चूँकि चुनावी बॉण्ड केवल SBI के माध्यम से ही खरीदे जाते हैं, इसलिये सरकार इन की निगरानी कर सकती है। ध्यातव्य है कि कई मीडिया संस्थानों ने इस बात की पुष्टि भी की थी।चुनावी बॉण्ड के माध्यम से विदेशी फंडिंग प्राप्त करने संबंधी कोई शर्त नहीं थी जिससे आर्थिक रूप से कंगाल हो रही कोई कंपनी भी पैसा दान सकती थी । इन परिस्थितियों में सबसे पहले यह प्रतीत होता है कि यह योजना वास्तव में अपने शुरुआती उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाई ।चुनावी बॉण्ड की प्रक्रिया के तहत चुनाव आयोग इन पर निगरानी नहीं कर सकता जो कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के उद्देश्य में बाधा उत्पन्न करता रहा है।इसके अतिरिक्त, किसी दानकर्त्ता कंपनी को दान करने से कम-से-कम तीन साल पहले अस्तित्व में होने की पूर्व शर्त को भी हटा दिया गया था । यह शर्त शेल कंपनियों के माध्यम से काले धन को राजनीति में प्रयोग करने से रोकती थी।
देश में जल्द ही लोकसभा चुनाव होने हैं । ऐसे समय देश को ऐसे मतदाता जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है जो भारत के नागरिकों को परिवर्तन की मांग करने के लिये प्रेरित कर सकें। यदि मतदाता उन उम्मीदवारों और पार्टियों को अस्वीकार करना प्रारंभ कर देंगे जो अतिव्यय करते हैं या उन्हें रिश्वत देते हैं तो देश का लोकतंत्र स्वयं ही एक स्तर और ऊपर उठ जाएगा।
अशोक भाटिया,

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