Homeराज्यउत्तर प्रदेशअंग्रेजों के जमाने में मुकदमा जीतने पर पड़ा था जीत नारायण नाम

अंग्रेजों के जमाने में मुकदमा जीतने पर पड़ा था जीत नारायण नाम

– वरिष्ठ पत्रकार सुनील बाजपेई के पितृ शोक
पर पत्रकारों ,नेताओं और अधिकारियों ने व्यक्त की शोक संवेदना

– जीवन भर धार्मिक स्थानों महापुरुषों और दवाइयों आदि के बारे में लिखते रहे जीत नारायण, भर डाली तीन दर्जन से ज्यादा डायरियां

– पूरा सामान औजार आदि रखकर साइकिल से लेकर बैलगाड़ी तक खुद बनाते और ठीक करते थे जीत नारायण

स्थूल शरीर को अलविदा कहने के 4 साल पहले तक भी चलाते रहे साइकिल

कानपुर। स्मार्ट हलचल/संसार के संचालन की ईश्वरीय व्यवस्था के तहत जन्म के बाद मृत्यु के क्रम में पंजाब केसरी दिल्ली के कानपुर में वरिष्ठ पत्रकार सुनील बाजपेई के पिता श्री जीत नारायण बाजपेई की पुण्यात्मा 90 साल से अधिक की उम्र में 28 जुलाई 2024 को अपना स्थूल छोड़कर सूक्ष्म शरीर में देवलोक को प्रस्थान कर गई।
स्वर्गीय राम प्यारी और स्व.श्री गंगा चरण के इकलौते बेटे श्री जीत नारायण बाजपेई का जन्म 10 फरवरी 1934 को उत्तर प्रदेश के जिला कानपुर नगर स्थित ग्राम भैरमपुर थाना सचेंडी में हुआ था। उनके बचपन का नाम रूप किशोर था। लेकिन जब अंग्रेजों के शासनकाल में भूमि से संबंधित एक मुकदमा जीते तो वहीं से उनका नाम जीत नारायण पड़ गया। इस मुकदमे की जीत में पड़ोसी और रिश्ते में चाचा लक्ष्मण प्रसाद तिवारी का भी विशेष योगदान था। बचपन में वही जीत नारायण को कभी अपनी साइकिल में बैठाकर तो कभी पैदल गांव भैरमपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर कानपुर नगर की कचहरी ले जाया करते थे।
उस समय जज साहब के चेंबर के नाम पर एक कच्ची मिट्टी से बनी हुई छोटी सी कोठरी हुआ करती थी।
हर किसी के सुख दुख में शामिल होने में अग्रणी और साधारण सी बात पर भी अश्रुधारा बहा देने वाले बहुत भावुक स्वभाव के जीत नारायण बाजपेई न केवल हर किसी का हर तरह से सहयोग करने में आगे रहते थे, बल्कि लोगों से प्रेमभाव के चलते अनाज से लेकर फसल की हर चीज अपनी साइकिल पर लेकर
शहर में रहने वाले अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी देने पहुंच जाते थे। अपने स्थूल शरीर को छोड़ने के 4 साल पहले तक भी उन्होंने साइकिल चलाना नहीं छोड़ा। वह साइकिल से ही 25 किलोमीटर दूर गांव से शहर लगभग हर दूसरे तीसरे दिन आते थे। लेकिन खेत – खलियान और घर गांव की मिट्टी से प्रगाढ़ प्रेम होने की वजह से उन्होंने अपना अधिकांश समय गांव भैरमपुर में ही गुजारा। वह किसी भी कार्य के लिए दूसरों पर आश्रित रहने के बजाय अपना हर कार्य खुद ही किया करते थे। यहां तक कि अपनी साइकिल के साथ ही बैलगाड़ी तक को बनाने और उसे ठीक करने के लिए सारा सामान अपने पास ही रखते थे।
सबसे खास बात यह भी की उन्हें लेखन का इतना ज्यादा शौक था कि तीन दर्जन से ज्यादा डायरियां भी लिखीं। उनका यह लेखन भौतिक जीवन समापन के लगभग 6 माह पहले तक भी जारी रहा। उनके इस लेखन के विषय में हर रोग की दवाइयां, पुरानी पीड़ी के राजनेताओं समेत सभी देवी देवताओं से संबंधित कहानियों के साथ ही महापुरुषों और धार्मिक स्थानों का इतिहास शामिल रहा। वह अपने पीछे भरे पूरे परिवार के रूप में सुनील बाजपेई (वरिष्ठ पत्रकार) पंजाब केसरी, विजय लक्ष्मी ,सुशील बाजपेयी गोरे, बेबी (पुत्र एवम पुत्र वधू), शीला,शिवप्रकाश दुबे, अलका, रामू शुक्ला (पुत्री एवम दामाद), समीक्षा मिश्रा (रुची),मनोहर मिश्रा राज ( पुत्री एवं दामाद) अनुराग,नेहा बाजपेई ,सुबोध, शालू बाजपेई
(पौत्र एवं पौत्र बधू) विशाल,विकास छोटू (पौत्र) राघव (प्रपौत्र) को छोड़ गए हैं। उनके निधन पर देश – प्रदेश और शहर के अनेक पत्रकारों ,जनप्रतिनिधि राजनेताओं और पुलिस प्रशासन के अधिकारियों ने भी अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हार्दिक शोक संवेदना व्यक्ति की है।

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