Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगसद्बुद्धिदायक है परम पुनीत गायत्री मंत्र

सद्बुद्धिदायक है परम पुनीत गायत्री मंत्र

पं. लीलापत शर्मा 
स्मार्ट हलचल/मनुष्य ईश्वर का उत्तराधिकारी एवं राजकुमार है। आत्मा, परमात्मा का ही अंश है। अपने पिता केे संपूर्ण गुण एवं वैभव बीज रूप से उसमें मौजूद हैं। जलते हुए अंगार में जो शक्ति है वही छोटी चिंगारी में भी मौजूद है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि मनुष्य बड़ी निम्नकोटि का जीवन बिता रहा है। दिव्य होते हुए भी दैवी संपदाओं से वंचित हो रहा है।
परमात्मा सत है, परंतु उसके पुत्र हम असत में निमग्न हो रहे हैं। परमात्मा प्रकाश है हम अंधकार में डूबे हुए हैं। परमात्मा आनंद स्वरूप है हम दु:खों से संत्रस्त हो रहे हैं। ऐसी उल्टी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने का कारण क्या है? यह विचारणीय प्रश्न है।
जबकि ईश्वर का अविनाशी राजकुमार अपने पिता के इस सुरम्य उपवन संसार में विनोद क्रीड़ा करने के लिए आया हुआ है तो उसकी जीवन यात्रा आनंदमयी रहकर दु:ख दारिद्रय से भरी हुई क्यों बन गई है? यह एक विचारणीय पहेली है।
अग्नि स्वभावत: उष्ण और प्रकाशवान होती है, परंतु जब जलता हुआ अंगार बुझने लगता है तो उसका ऊपरी भाग राख से ढंक जाता है। तब उस राख से ढंके हुए अंगार में वे दोनों ही गुण दृष्टिगोचर नहीं होते जो अग्नि में स्वभावत: होते हैं। बुझा हुआ, राख से ढंका हुआ अंगार न तो गर्म होता है और न प्रकाशवान। वह काली कलूटी कुरूप भस्म का ढेर मात्र बना हुआ पड़ा रहता है। जलते हुए अंगार को इस दुर्दशा में पहुंचाने का कारण वह भस्म है, जिसने उसे चारों ओर से घेर लिया है। यदि यह राख की परत ऊपर से हटा दी जाए तो भीतरी भाग में फिर वैसी ही अग्नि मिल सकती है जो अपने उष्णता और प्रकाश के गुण से सुसंपन्न हो।
परमात्मा सच्चिदानंद है। वह आनंद से ओतप्रोत है। उसका पुत्र आत्मा भी आनंदमय ही होना चाहिए। जीवन की विनोद क्रीड़ा करते हुए इस नंदन वन में उसे आनंद ही आनंद अनुभव होना चाहिए। इस वास्तविकता को छिपाकर जो उसके बिल्कुल उलटी दु:ख, दरिद्र और क्लेश, कलह की स्थिति उत्पन्न कर देती है, वह कुबुद्धि रूपी राख है।
जैसे अंगार को राख ढंककर उसको अपनी स्वाभाविक स्थिति से वंचित कर देती है, वैसे ही आत्मा की परम सात्विक, परम आनंदमयी स्थिति को यह कुबुद्धि ढंक लेती है और मनुष्य निकृष्ट कोटि का दीन-हीन जीवन व्यतीत करने लगता है।
कुबुद्धि को ही माया, असुरता, अविद्या आदि नामों से पुकारते हैं। यह आवरण मनुष्य की मनोभूमि पर जितना मोटा चढ़ा होता है, वह उतना ही दु:खी पाया जाता है। शरीर पर मैल की जितनी मोटी तह जम रही होगी, उतनी ही खुजली और दुर्गंध होगी ।
शरीर में दूषित, विजातीय विष एकत्रित न हो तो किसी प्रकार का कोई रोग न होगा। पर यह विकृतियां जितनी अधिक जमा होती जाएंगी शरीर उतना ही रोगग्रस्त होता जाएगा। कुबुद्धि एक प्रकार से शरीर पर जमी हुई मैल की तह या रक्त से भरी हुई विषैली विकृति है, जिसके कारण खुजली, दुर्गंध, बीमारी तथा अनेक प्रकार की अन्य असुविधाओं के समान जीवन में नाना प्रकार की पीड़ा, चिंता, बेचैनी और परेशानी उत्पन्न होती रहती हैं।
दु:ख चाहे व्यक्तिगत हों या सामूहिक उनका कारण एक ही है और वह है कुबुद्धि। संसार में इतने प्रचुर परिणाम में सुख साधन भरे पड़े हैं कि इन खिलौनों से खेलते-खेलते सारा जीवन हंसी-खुशी बीत सकता है। मनुष्य को ऐसा अमूल्य शरीर, मस्तिष्क एवं इंद्रिय समूह मिला हुआ है कि इनका ऐसा आनंद लिया जा सकता है कि स्वर्ग भी उसकी तुलना में तुच्छ सिद्ध हो।
इतना सब होते हुए भी लोग बेतरह दु:खी हैं, जिन्दगी में कोई रस नहीं मौत के दिन पूरे करने के लिए समय को एक बोझ की तरह काटा जा रहा है। मन में चिंता, बेबसी, भय, दीनता और बेचैनी की अग्नि दिनभर जलती रहती है, जिसके कारण पुराणों में वर्णित नारकीय यातनाओं जैसी व्यथाएं सहनी पड़ती हैं।
यह संसार चित्र-सा सुन्दर है, इसमें कुरुपता का एक कण भी नहीं। यह विश्व विनोदमयी क्रीड़ा का प्रांगण है, इसमें चिंता और भय के लिए कोई स्थान नहीं। यह जीवन आनंद का निर्बाध निर्झर है इसमें दु:खी रहने का कोई कारण नहीं। स्वर्गादपि गरीयसी-इस जननी जन्म भूमि में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो मानस की कली को खिलाते हैं। इस सुर दुर्लभ नर तन की रचना ऐसे सुन्दर ढंग से हुई है कि साधारण वस्तुओं को वह अपने स्पर्श मात्र से ही सरस बना लेता है। परमात्मा का राजकुमार (आत्मा) इस संसार में क्रीड़ा कल्लोल करने आता है। उसे शरीर रूपी रथ, इन्द्रियों रूपी सेवक, मस्तिष्क रूपी मंत्री देकर परमात्मा ने यहां इसलिए भेजा है कि इस नंदन वन जैसे संसार की शोभा को देखे, उसमें सर्वत्र बिखरी हुई सरलता का स्पर्श और आस्वादन करे। प्रभु के इस महान उद्देश्य में बाधा उत्पन्न करने वाली, स्वर्ग को नरक बना देने वाली कोई वस्तु है तो वह केवल कुबुद्धि ही है।
गायत्री सद्बुद्धि है। इस महा मंत्र में सद्बुद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है। इसके 24अक्षरों में 24 अमूल्य शिक्षा संदेश भरे हुए हैं, वे सद्बुद्धि के मूर्तिमान प्रतीक हैं। उन शिक्षाओं मेें वे सभी आधार मौजूद हैं जिन्हें ह्दयंगम करने वाले का संपूर्ण दृष्टिकोण शुद्ध हो जाता है और उस भ्रम जन्य अविद्या का नाश हो जाता है, जो आए दिन कोई न कोई कष्ट उत्पन्न करती हैं। गायत्री महामंत्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई है कि उसकी साधना से अपने भीतर छिपे हुए अनेक गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं और अंतस्थल में सात्विकता की निर्झरणी बहने लगती है। विश्व व्यापी अपनी प्रबल चुंबक शक्ति से खींच कर अंत: प्रेरणा में जमा कर देने की अदभुत शक्ति गायत्री में मौजूद है। इन सब कारणों से कुबुद्धि का शमन करने में गायत्री अचूक रामबाण मंत्र की तरह प्रभावशाली सिद्ध होती है।
इस शमन के साथ-साथ अनेक दु:खों का समाप्त हो जाना भी पूर्णतया निश्चित है। गायत्री देवी प्रकाश की वह अखण्ड ज्योति है जिसके कारण कुबुद्धि का अज्ञान का अंधकार दूर होता है और अपनी वही स्वाभाविक स्थिति प्राप्त हो जाती है, जिसको लेकर आत्मा इस पुण्यमयी धरती माता की परम शांतिदायक गोदी में किल्लोल करने आई है।
रंगीन कांच का चश्मा पहन लेने पर आंखों से सब चीजें उसी रंग की दिखती हैं जिस रंग का कि वह कांच होता है। कुबुद्धि का चश्मा लगा लेने से सीधी साधारण-सी परिस्थितियां और घटनाएं भी दु:खदायी दिखाई देने लगती हैं। जिस मनुष्य को भौंरी रोग हो जाते हैं सिर घूमता है, मस्तिष्क में चक्कर आता हैं उसे दिखाई देता है कि सारी पृथ्वी, मकान, वृक्ष आदि घूम रहे हैं। डरपोक आदमी को झाड़ी में भूत दिखाई देने लगता है। जिसके भीतर दोष है उसे बाहर के सुधार से कुछ लाभ नहीं हो सकता, उसका रोग मिटेगा तभी जब भीतरी अनुभूतियों का निवारण होगा।
पीला चश्मा पहनने वाले के सामने चाहे कितनी ही चीजें बदल कर रखी जाएं पर पीलेपन के अतिरिक्त और कुछ दिखाई न देगा। बुखार से मुंह कडुआ हो रहा है तो स्वादिष्ट पदार्थ भी कडुए लगेंगे। कुबुद्धि ने जिसके दृष्टिकोण को, विचार प्रवाह को दूषित बना दिया है वह चाहे स्वर्ग में रखा जाए, चाहे कुबेर-सा धनपति या इन्द्र सा सत्ता संपन्न बना दिया जाए तो भी दु:खों से छूट न सकेगा।
गायत्री महामंत्र का प्रधान कार्य कुबुद्धि का निवारण है जो व्यक्ति कुबुद्धि से बचने और अग्रसर होने का व्रत लेता है, वही गायत्री का उपासक है। इस उपासना का फल तत्काल मिलता है। जो अपने अंत:करण मेंं सद्बुद्धि को जितना स्थान देता है, उसे उतनी ही मात्रा में तत्काल आनंदमयी स्थिति का लाभ प्राप्त होता है। इसीलिए कहा गया है- अक्षर चौबीस परम पुनीता, इनमें बसे शास्त्र, श्रुति, गीता

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