Homeसोचने वाली बात/ब्लॉगगर्मी में भी अभी तक चुनावी ठंडी का अहसास क्यों है ?

गर्मी में भी अभी तक चुनावी ठंडी का अहसास क्यों है ?

गर्मी में भी अभी तक चुनावी ठंडी का अहसास क्यों है ?
> अशोक भाटिया,
स्मार्ट हलचल/दो चरण का चुनाव हो चुका है और अब 7 मई को तीसरे चरण में 96 सीटों के लिए मतदान की तैयारी है। लेकिन सब ओर से एक ही शिकायत सुनाई दे रही है कि अब तक लोकसभा चुनाव ने रंगत नहीं पकड़ी है। इसके प्रमुख रूप से क्या कारण हो सकते हैं, इस पर लोगों की अलग – अलग राय है ।
इस बार अप्रैल का महीना सामान्य से तीन डिग्री तक अधिक गर्म रहा । उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सब जगह लोग अचानक बढ़ी इस गर्मी से बेहाल हैं। मौसम विभाग ने पहले ही बता दिया था कि इस साल अल नीना का असर है और तापमान सामान्य से अधिक रहेगा। अत्यधिक तपिश और गर्म हवाओं के थपेड़े के कारण न तो नेता और न उनके प्रचार करनेवाले कार्यकर्ता बाहर निकल रहे हैं और न ही मतदाताओं में कोई उत्साह दिख रहा है। मतदान का प्रतिशत भी पिछले चुनावों की अपेक्षा कम ही हो रहा है ।
उत्तर भारत में अभी जहां वोटिंग हुई या अगले चरणों में होनेवाली है वहां सुबह 9 बजे के बाद और शाम के 5 बजे तक घर से निकलनेवाले हालात ही नहीं है। इसका असर आम चुनाव पर भी पड़ा है और नेता, कार्यकर्ता, मतदाता सभी सुस्त नजर आ रहे हैं। सिर्फ बड़े नेताओं की बड़ी रैलियों तक ही चुनाव प्रचार सिमटकर रह गया है।
किसी भी राज्य का चुनाव हो या फिर लोकसभा चुनाव उसमें चौक चौराहों की बैठकी, चाय पान की दुकान पर चर्चा ही राजनीतिक माहौल बनाते आये हैं। लेकिन जैसे जैसे सोशल मीडिया का प्रसार बढ़ा है, ऐसी चर्चाओं पर असर पड़ा है। जो चर्चाएं लोगों के बीच होती थी, अब वह फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यू ट्यूब और वाट्सएप्प पर होने लगी हैं। टीवी डिबेट की जगह यू ट्यूब पर ग्राउण्ड रिपोर्टिंग अधिक प्रभावी होती जा रही है। इसके साथ ही लोग अपनी अपनी सुविधा अनुसार कहीं ट्विटर (एक्स) पर बिजी हैं तो कहीं वाट्स एप्प पर।
ट्विटर के रोज बनने बिगड़नेवाले ट्रेन्ड जहां बौद्धिक लोगों को उलझाये हुए हैं, वहीं जन सामान्य वाट्सएप्प मैसेज फारवर्ड करके अपनी राजनीतिक सक्रियता दिखा रहा है। लेकिन इनमें सबसे बड़ा खतरा है विश्वसनीयता का। एक वर्ग ऐसी चर्चाओं का हिस्सा जरूर है लेकिन इसमें फेक न्यूज का भी प्रसार धड़ल्ले से हो रहा है। इसके कारण इन चर्चाओं और बहसों पर विश्वसनीयता का सबसे बड़ा संकट है। फिर भी सोशल मीडिया के अत्यधिक प्रभावशाली होने का असर भी इस आम चुनाव की सरगर्मी को ऑफलाइन से हटाकर ऑनलाइन की ओर ले गया है।
इस बार के आम चुनाव में एक और ट्रेन्ड जो साफ साफ दिखाई देने लगा है, वह यह कि इस बार का चुनाव नेतृत्व चुनने का चुनाव नहीं है। इस बार सारा जोर उम्मीदवारों पर है। कहने के लिए यह आम चुनाव जरूर है लेकिन बीते दो दशक में ऐसा पहली बार दिखाई दे रहा है कि जनता की रुचि राष्ट्रीय नेतृत्व से ज्यादा स्थानीय उम्मीदवार में है। इसीलिए इस बार का आम चुनाव मोदी या राहुल गांधी में से किसी एक को चुनने का चुनाव नहीं है। जनता मानों उस दृष्टिकोण से इस चुनाव को देख ही नहीं रही है। इस बार स्थानीय उम्मीदवार पर सारा जोर है। इसलिए सीट दर सीट चुनावी गणित बन बिगड़ रहे हैं। मतदाता भी स्थानीय उम्मीदवारों को लेकर ही चर्चा कर रहे हैं।
निर्वाचन आयोग ने अपनी सुविधा और संसाधनों को देखते हुए इस बार 7 चरणों में चुनाव करवाने का फैसला किया है। अभी तक जो दो चरण हुए हैं उसमें 19 अप्रैल को 102 और 26 अप्रैल को 89 सीटों के लिए मतदान हुआ है। ये सीटें भी कई राज्यों में फैली हुई हैं। कुछ राज्यों में तो ऐसा हो रहा है कि बड़ा राज्य होने के बावजूद वहां एक चरण में पांच से आठ सीटों के लिए मतदान हुआ है। इसलिए भी चुनाव में सरगर्मी नहीं आ रही है।
कम चरणों में चुनाव होने से एक राष्ट्रव्यापी माहौल बनता है और सब उसमें शामिल होते हैं। अगर चुनाव को लंबा खींचा जाए तो मतदाता में ही कोई उत्साह नहीं बचता है। इसलिए भी इस बार आमचुनाव का माहौल अभी तक नहीं बन पाया है। आनेवाले चरणों में तो पांचवे में 49, छठे में 57 और सातवें में 57 सीटों के लिए मतदान होगा। इससे चुनाव का राष्ट्रव्यापी माहौल आगे चलकर बन ही जाएगा, इसमें भी संदेह है।
इस बार के आम चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों का घोर अभाव है। कांग्रेस की ओर से मोदी सरकार के खिलाफ कोई ऐसा मुद्दा नहीं उठाया गया है जिस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा हो। दूसरी ओर भाजपा ने राम मंदिर को जरूर राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनाने का प्रयास किया लेकिन उसमें भी उन्हें सफलता मिलती नहीं दिख रही है। इसलिए भाजपा की ओर से जहां कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण को एक बार फिर उठाया जा रहा है, वहीं कर्नाटक में देवगौड़ा के पोते प्रज्ज्वल रेवन्ना की सेक्स सीडी को कांग्रेस अब राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनाने में लग गयी है। उसका पूरा इकोसिस्टम इसे राष्ट्रव्यापी स्तर पर उठाना चाहता है, क्योंकि बीजेपी कर्नाटक में जेडीएस की साझीदार है और प्रज्ज्वल भी चुनावों में उम्मीदवार है।
इस बार के आमचुनाव में यह भी एक ऐसा फैक्टर है जिसने चुनाव की सरगर्मी को कम किया है। एक ओर सत्ताधारी भाजपा है जो यह मानकर चल रही है उसको मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार भी बंपर बहुमत मिलनेवाला है। दूसरी ओर कांग्रेस सहित अन्य लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियां इसी मनोवैज्ञानिक दबाव में फंसी हुई हैं कि जब भाजपा जीत ही रही है तो बहुत मेहनत करके भी क्या हासिल होगा?एक ओर जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा कार्यकर्ता भी शिथिल पड़े हुए हैं तो दूसरी ओर विपक्षी दलों के नेता और कार्यकर्ता खुद को हारा हुआ मानकर चल रहे हैं। विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया के कारण भी विपक्षी पार्टियों में तालमेल नहीं बैठ पा रहा है। इसका असर भी चुनाव की सरगर्मी पर पड़ा है।
इनके अलावा और भी कई कारण हैं जिसका असर इस बार के आम चुनाव पर पड़ा है। यह सीजन शादी विवाह का सीजन भी होता है और गर्मी की छुट्टियों का भी। इसलिए ग्रामीण मतदाता जहां अपनी खेती और सामाजिक कामों में व्यस्त रहता है वहीं शहरी मतदाता गर्मी की छुट्टियां होते ही सैर सपाटे पर निकल जाता है।
बहरहाल, उम्मीद करनी चाहिए कि तीसरे चरण के बाद से चुनावों में सरगर्मी आयेगी। भाजपा खेमे से आ रही कम सीटों की आहट ने न केवल भाजपा कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया है बल्कि विपक्षी पार्टियों में भी नया जोश आया है। इस सबका असर चुनाव के शेष रहे चरणों पर जरूर होगा और उम्मीद करनी चाहिए कि मतदान का अंत उतना फीका नहीं रहेगा जितनी फीकी इसकी शुरुआत रही है।
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, एवं टिप्पणीकार

RELATED ARTICLES